Book Title: Adhyatmagyan Praveshika
Author(s): Atmanandji Maharaj
Publisher: Shrimad Rajchandra Sadhna Kendra Koba

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Page 11
________________ सुखका स्वस्प और उसकी प्राप्ति प्र. १ः सुख क्या है ? उ. १ : इंद्रियोंको जो रुचिकर हैं ऐसी वस्तुओंको ग्रहण करके जगतके जीव जिस भावका अनुभव करते हैं उसे सामान्यरूपसे सुख कहा जाता है । प्र. २ : क्या यह सच्चा सुख है ? उ. २ : नहीं। प्र. ३ : वह सच्चा सुख क्यों नहीं है ? उ. ३ : प्रथम तो वह क्षणभंगुर- अल्पकालीन है और दूसरा कि वह पराधीन है । जगतके मनचाहे पदार्थोंका संयोग किसीको भी कायम नहीं रहता बल्कि भाग्याधीन होने से बदलता रहता है । जब उन संयोगोंका वियोग होता है तब जगतके जीव दुःखका अनुभव करते हैं । प्र. ४ : किसीको मनचाहे पदार्थ मिलते ही रहें तो उतने समय तो वह सुखी है कि नहीं ? उ. ४ : वास्तवमें वह सुखी नहीं है, बल्कि कल्पनासे अपनेको सुखी मानता है; क्योंकि एक इच्छित वस्तु प्राप्त हुई कि शीघ्र ही दूसरी वस्तु प्राप्त करनेकी इच्छा उत्पन्न हो जाती है । इस प्रकार जब तक इच्छाएँ होती रहती हैं तब तक जीव इच्छाओंसे आकुलव्याकुल रहा करता है और सच्चा सुख - निराकुल सुख प्राप्त नहीं कर पाता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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