Book Title: Adhyatmagyan Praveshika
Author(s): Atmanandji Maharaj
Publisher: Shrimad Rajchandra Sadhna Kendra Koba

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Page 12
________________ सुखका स्वस्प और उसकी प्राप्ति प्र. ५ : हमको तो आकुलतामें भी दुःख नहीं लगता, सुख ही लगता है। उ. ५ : जैसे किसीने सुवर्ण कभी देखा ही न हो, तो वह पीतलको ही सोना माने; परन्तु पीतल सो पीतल है और सोना सो सोना ही है । उसी प्रकार इंद्रियसुख वह इंद्रियसुख है और अतीन्दिय (आत्मिक) सुख सो अतीन्द्रिय सुख है । जहाँ आत्मिक सुखका अनुभव नहीं है वहाँ इंद्रिय सुखको सच्चा सुख माननेकी अज्ञानजनक प्रवृत्ति नहीं मिटती । अंतमें देह और इंद्रियाँ क्षीणं होती हैं तब इंद्रियसुखकी प्राप्ति नहीं होनेसे वृद्धावस्था और मृत्युके समय जगतके जीव परवशता और अत्यंत खेदखिन्नताका ही अनुभव करते हैं। प्र. ६ : तो सच्चा सुख क्या है ? उ. ६ : जो अपूर्व है, आत्मिक है, विषय-निरपेक्ष है, अनुपम है, अनंत है और हानिवृद्धिरहित है वह सुख सच्चा है, ऐसा निश्चय विवेकी पुरुषोंको करने योग्य है । प्र. ७ : ऐसा निश्चय करनेसे क्या लाभ ? उ. ७ : ऐसा निश्चय करनेसे शाश्वत आनंदके मार्गकी ओर झुकनेकी योग्यता आती है और क्रमशः शाश्वत आनंद की प्राप्ति हो सकती है। प्र. ८ : हमें इस बातकी प्रत्यक्ष प्रतीति कैसे हो सकती है? उ. ८ : शाश्वत आनंदकी प्राप्तिका आरम्भ आत्मिक गुणोंके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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