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सच्चा ज्ञान और सच्ची श्रद्धा
उसकी साधना क्या है ? उ. ४ : 'देहादि जड़ पदार्थोसे, मैं शुद्ध चैतन्यस्वरूपी आत्मा
सचमुच भिन्न हूँ - ऐसा सद्गुरुके उपदेशसे यथार्थरूपमें जानने और अभ्यास करनेसे उसका ज्ञान क्रमशः सम्यक् हो जाता है । इस प्रकार स्व-परका विवेक, आत्माअनात्माका विवेक, सारासारका विवेक जिसके अंतरमें प्रगट होता है उसे सच्चा ज्ञान होता है। .
जैसे तलवार और म्यान अलग हैं, दूध और पानी अलग हैं, गंदे पानीकी मलिनता और पानी- अलग हैं और सुवर्णरजमें सोना और मिट्टी अलग हैं, वैसे देह और आत्माको भिन्नता, लक्षण द्वारा जाननी चाहिए । और जानकर अभ्यास करना चाहिए । देहाध्यास कम करना और आत्माभ्यास बढ़ाना इस प्रकारकी सतत तत्त्वाभ्यासरूप साधना कल्याणकारी है।
जो ज्ञान कर्मबंधके कारणोंको केवल जानता है, परन्तु उससे निवृत्त नहीं होता वह ज्ञान भी अज्ञान ही है । जिसके पढ़नेसे, समझनेसे और विचारनेसे आत्मा विभावसे, विभावके कार्योंसे और विभावके परिणामसे विरक्त न हुआ, विभावका त्यागी न हुआ, विभावके कार्योंका और विभावके फलका त्यागी न हुआ; वह पढ़ना, वह विचारना और वह समझना अज्ञान है । विचारवृत्तिके साथ त्यागवृत्ति उत्पन्न करना वही विचार सफल है, ऐसा ज्ञानीका परमार्थ कथन है ।
इस प्रकारसे, जैसे जैसे सच्चे ज्ञानकी साधना की जाय, वैसे वैसे आत्माकी शुद्धि बढ़े और यही सच्चा
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