Book Title: Adhyatmagyan Praveshika
Author(s): Atmanandji Maharaj
Publisher: Shrimad Rajchandra Sadhna Kendra Koba

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Page 32
________________ सदाचार उ. ५ : 'जो मुमुक्षुजीव गृहस्थव्यवहारमें प्रवर्तमान हो उसे तो अखंड नीतिका मूल प्रथम आत्मामें स्थापित करना चाहिये, नहीं तो उपदेशादिकी निष्फलता होती है । द्रव्यादि उत्पन्न करने आदिमें सांगोपांग न्यायसंपन्न रहना उसका नाम नीति है । इस नीतिके छोड़ते हुए प्राण-त्याग जैसी दशा आनेपर त्याग वैराग्य सच्चे स्वरूपमें प्रगट होते हैं और उसी जीवको सत्पुरुषके वचनोंका तथा आज्ञाधर्मका अद्भुत सामर्थ्य, माहात्म्य और रहस्य समझमें आता है । जो जीव कल्याणकी आकांक्षा रखता है, और प्रत्यक्ष सत्पुरुषका निश्चय है, उसे प्रथम भूमिकामें यह नीति मुख्य आधार है । कठिन बात है इसलिये नहीं बन सकती, यह कल्पना. मुमुक्षुको अहितकारी है और त्यागने योग्य है । प्र. ६ : सदाचारमें कैसे स्थिर हुआ जाय यह संक्षेपमें बताइये। उ. ६ : सभ्यता, सज्जनता, सद्भावना, साहस और सत्कृत्योंमें तत्पर रहनेसे सदाचारी बना जा सकता है, जो सतत कर्तव्यरूप है, ऐसी महाज्ञानियोंकी आज्ञा है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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