Book Title: Adhyatmagyan Praveshika
Author(s): Atmanandji Maharaj
Publisher: Shrimad Rajchandra Sadhna Kendra Koba

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Page 34
________________ तप और उसकी आराधना ऐसे अनेक कारणोंसे आचार्योंने स्वाध्यायको श्रेष्ठ तप कहा है और उसमें प्रवर्तन करनेका गृहस्थ और त्यागी दोनोंको उपदेश दिया है । प्र. ६ : स्वाध्यायके अतिरिक्त अन्य तप करने चाहिएँ या नहीं ? उ. ६ : तप तो सभी प्रकारके करने योग्य हैं । अपनी जितनी शक्ति हो उतना तप करना चाहिए । फिरभी तपका अनुष्ठान करते समय अपनी शक्ति नहीं छिपाना । कौन किस प्रकारका तप करे वह महत्त्वपूर्ण नहीं है, किन्तु समझ लेना चाहिए कि मुख्य तप तो अंतर-तप है । और जो बाह्य तप हैं वे अंतर-तपके सहकारी हैं । अंतर-तप आत्माकी परिणतिके साथ सीधा संबंध रखता है, इसलिये चित्तकी (उपयोगकी) शुद्धिके लिए अंतरतपकी मुख्यता है । उपयोगकी शुद्धिके अनुरूप मोक्ष होता है, केवल बाह्य देहादिकी चेष्टाके अनुसार मोक्ष नहीं होता - ऐसा स्पष्ट जाननेसे दृष्टि विवेकसंपन्न होती है और सम्यक् तपमें प्रवर्तन होता है । प्र. ७ : तपकी क्या महत्ता है ? उ. ७ : पूर्वाचार्योने चार प्रकारकी आराधनाको मोक्षका कारण कहा है - सच्ची श्रद्धा, सच्चा ज्ञान, सच्चा आचरण और सच्चा तप । इस चतुर्विध आराधनासे चार गति का नाश होकर पंचमगति (सिद्ध-अवस्था) प्राप्त कर सकते हैं। इस प्रकार मोक्षकी आराधनामें तप एक महत्त्व Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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