Book Title: Adhyatma ki Varnmala
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 14
________________ चक्षुष्मान् ! कुछ होना चाहते हो तो कुछ करो। प्रारम्भ में होना और करना-दो होते हैं । मध्य में होना और करना--एक बन जाते हैं। मन चंचल है, यह शिकायत सब लोग करते हैं पर वे एकाग्रता के लिए कुछ नहीं करते, इसलिए उनकी शिकायत मृत्युशय्या तक बनी रहती है । तुमने प्रेक्षा का मर्म समझा है। तुम इस शिकायत को नहीं पालोगे। मन चंचल है, इसमें कोई संदेह नहीं । चंचलता इसकी प्रकृति है। मिटेगी भी नहीं । तुम्हें उसकी मात्रा को कम करना है। जितनीजितनी एकाग्रता की मात्रा बढ़ेगी, उतनी ही तुम्हारी आंतरिक चेतना अभिव्यक्त होने लगेगी। चंचलता को कम करने के लिए अभ्यास अत्यन्त अनिवार्य है। तुम अभ्यास न करो, कुछ भी समय न लगाओ और सफलता चाहो, यह कैसे संभव बनेगा ? अभ्यास करते-करते एक साधारण आदमी जौहरी बन जाता है। उसकी दृष्टि सध जाती है। वह देखते ही रत्न को परख लेता है। अभ्यास से अनेक विद्याएं आयत्त होती हैं । तुम इस स्वायत्तता के मंत्र को पढ़ो और एकाग्रता का अभ्यास करो । प्रारम्भ में चाहे बीस मिनट या आधा घंटा लगाओ पर लगाओ अवश्य । 'अवंध्यं दिवसं कुर्यात्' इस सूक्त को भूलो मत । वह आधा घंटा का अभ्यास तुम्हें एकाग्रता की भूमि तक पहुंचा देगा और धीमे-धीमे निर्विचार चेतना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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