Book Title: Adhyatma ki Varnmala
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 54
________________ चक्षुष्मान् ! तुम अनुभव करो - भावधारा कभी संक्लिश्यमान और कभी विशुद्धयमान होती है । वह सदा एकरूप नहीं रहती । प्रमाद की अवस्था आती है, भावधारा संक्लिश्यमान हो जाती है । अप्रमाद घटित होते ही वह विशुद्ध बन जाती है । भावधारा के परिवर्तन के साथ-साथ आभामण्डल का रंगहोती है, आभामण्डल उजला होती है, आभामण्डल अंधकार पर ही नहीं होता, मन पर २५ रूप भी बदलता है । भावधारा पवित्र और निर्मल हो जाता है । वह अपवित्र जैसा बन जाता है। इसका प्रभाव शरीर भी होता है । यह प्रश्न शारीरिक स्वास्थ्य और मानसिक स्वास्थ्य – दोनों से जुड़ा हुआ है । भावधारा की पवित्रता, मानसिक शुद्धि के लिए ही आवश्यक नहीं है, शारीरिक स्वास्थ्य के लिए भी आवश्यक है । तुम अभ्यास करो - अधिक समय भावशुद्धि रहे । जागरूकता बढ़ी, भावशुद्धि बढ़ेगी । जागरूकता कम हुई, भावशुद्धि कम हो जाएगी। सब कुछ अभ्यास पर निर्भर है । प्रेक्षाध्यान का प्रयोजन है भावक्रिया का विकास, जागरूकता... का विकास । श्वास को देखना, शारीरिक प्रकंपनों को देखना, रंगों को देखना- प्रेक्षा के ये सारे प्रयोग इसीलिए हैं कि जागरूकता बढ़ जाए । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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