Book Title: Adhyatma ki Varnmala
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 58
________________ चक्षुष्मान् तुमने न देखे हैं । वन में वृक्ष हैं। उन वृक्षों की अधिक सुरक्षा है, जो मूल्यवान् फलों से लदे रहते हैं । . २७ तुम अनुभव करो — ध्यान का वह जिस पर स्वभाव - परिवर्तन के फल लगते हैं । जैसा का तैसा रहे, रत्तीभर भी परिवर्तन न कम और सुरक्षा भी कम । स्वभाव परिवर्तन का सूत्र है - भाव विशुद्धि और अनुप्रेक्षा । कोई व्यक्ति भय के संवेग से पीड़ित है । डरना उसका स्वभाव बन गया। वह दिन में भी डरता है, रात को भी डरता है । समूह में भी डरता है, अकेला भी डरता है । भय का हेतु होने पर भी डरता है और न होने पर भी डरता है । भय बाहर से नहीं आता, वह भीतर से फूटता है । इस संवेग आांत व्यक्ति अभय होना चाहता है, भय के स्रोत को बन्द कर देना चाहता है । यह कैसे संभव बने ? Jain Education International तरु सुरतरु बन जाता है, ध्यान चले और स्वभाव आए, उसका मूल्य भी मनश्चिकित्सक मानसिक प्रशिक्षण की विधियों और शामक औषधियों के द्वारा उसकी चिकित्सा करते हैं । कुछ लाभ भी होता है । भय के स्पन्दन भीतर में हैं । औषधियां कुछ समय के लिए उन स्पंदनों को निष्क्रिय कर देती है, किन्तु औषधियों का प्रभाव समाप्त होते ही स्पन्दन फिर सक्रिय हो जाते हैं । भाव विशुद्धि के स्पन्दन उत्पन्न करो, अभय की अनुप्रेक्षा For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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