Book Title: Adhyatma ki Varnmala
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 51
________________ चक्षुष्मान् ! आयुर्विज्ञान में पहले दो शब्द थे-नाड़ीतंत्र और ग्रन्थितंत्र । दोनों का कार्य पृथक्-पृथक् माना जाता था। अब इस मत में परिवर्तन आया है । नाड़ीतन्त्र और ग्रंथितंत्र का कार्य इतना असंपृक्त है कि उन्हें पृथक नहीं किया जा सकता। एक नया शब्द प्रचलित हुआ है-नाड़ीग्रंथितंत्र। मस्तिष्क का ऊर्ध्वभाग पिच्युटरी और पिनियल-इन दोनों ग्रन्थियों का प्रभाव क्षेत्र है इसलिए वह नाड़ी-ग्रंथितंत्रीय प्रवृत्तियों का केंद्रीय स्थल है । शरीर के अवयवों में इसका प्रमुख स्थान है । इस स्थान पर ध्यान केंद्रित करो। तंत्र और हठयोग की भाषा में यह सहस्रार चक्र है । प्रेक्षाध्यान की भाषा में यह ज्ञानकेंद्र है। ___अतीन्द्रिय ज्ञान चेतना के केंद्रों में यह सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है । जैसे कोई पुरुष दीप को सिर पर रखकर चलता है तब दीप का प्रकाश चारों दिशाओं में फैलता है वैसे ही ज्ञानकेंद्र के जागृत होने पर चैतन्य का प्रकाश सब भोर व्याप्त हो जाता है। शरीर में अनेक चैतन्य केंद्र हैं। सबसे अधिक चैतन्य केंद्र मस्तिष्क में हैं । सिद्धसेन गणि के शब्दों में मूर्धा बहुमर्मकः-मस्तिष्क अनेक मर्मस्थानों-चैतन्य केंद्रों वाला है । ज्ञान और क्रिया--दोनों के संचालक-तंतु मस्तिष्क में हैं इसलिए ज्ञानकेन्द्र पर चित्त को एकाग्र करो। मस्तिष्क में सर्वाधिक जैविक विद्युत् या प्राणशक्ति है इसलिए Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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