Book Title: Adhyatma ki Varnmala
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 30
________________ चक्षुष्मान् ! शरीर को देखो । शरीर रहस्यों का रत्नाकर है । उसमें जो है, वह ज्ञात कम है, अज्ञात अधिक है । उसमें जो हो रहा है, वह भी ज्ञात कम है, अज्ञात अधिक है । शरीर प्रेक्षा का अर्थ है- अज्ञात को ज्ञात करना । चंचल मनःस्थिति में जो नहीं जाना जाता, वह एकाग्रता की स्थिति में जान लिया जाता है । शरीर में प्रतिक्षण परिवर्तन होता रहता है । इसका मूल हेतु है कर्म का विपाक । हमारे शरीर में कर्म विपाक के अनेक केन्द्र हैं । उनमें आने वाले सूक्ष्म रसायन प्रभावित करते हैं नाड़ीतंत्रीय और ग्रन्थितंत्रीय रसायनों को । १२ शरीर को देखो, केवल द्रष्टाभाव से देखो । न राग और न द्वेष, केवल दर्शन | यह दर्शन कर्म विपाक से होने वाली प्रतिक्रिया से बचाएगा । शुभ- विपाक से होने वाले संवेदन राग की मूर्च्छा को सघन बना सकते हैं । अशुभ विपाक से होने वाले संवेदन द्वेष की मूर्च्छा को सघन बना सकते हैं । पुण्य के फल को कैसे भोगें ? पाप के फल को कैसे भोगें ? यह बहुत बड़ा विवेक है । एक व्यक्ति पुण्य के फल में अति आसक्त होकर प्रचुर पाप का बंध कर लेता है । दूसरा व्यक्ति पुण्य का फल भोगने में आसक्त नहीं होता, वह बंध को प्रतनु कर देता है । एक व्यक्ति अशुभ कर्म के विपाक को रोते-रोते झेलता है, वह दुःख के हेतुओं का और अधिक संचय कर लेता है । दूसरा व्यक्ति अशुभ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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