Book Title: Acharya Mahavir Prasad Dwivedi Vyaktitva Krutitva
Author(s): Shaivya Jha
Publisher: Anupam Prakashan

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Page 7
________________ परमेश्वर के सामने शुद्ध हृदय से उसका निर्देश करना ही होगा। अच्छा, तो उसका नाम था या है 'सोहागरात' । उसमें क्या है, यह आप पर प्रकट करने की जरूरत नहीं, क्योंकि-'परेङ्गितज्ञानफला हि बुद्धयः ।" ऐसी ही स्वीकारोक्ति और निर्भीक स्पष्टवादिता द्विवेदीजी की चारित्रिक विशेषताएँ है, जो उनकी पत्नावली और आलोचनाओं में भी अवितथ प्रतिबिम्बित हुई है। द्विवेदीजी व्यक्ति के नहीं, उसके गुणों के उपासक थे, इसीलिए उन्होने अनौचित्य की भरसक पुरजोर गर्हणा की है और असाधु प्रयोगों की ओर अपने समसामयिकों का ध्यान आकृष्ट किया है, चाहे वे प्रयोग किसी महान् कहे जानेवाले व्यक्ति या साहित्यकार के ही क्यों न हों। उन्होंने जूही, कानपुर से प० पद्मसिंह शर्मा को लिखा था : "हमने दो-एक व्यंग्यपूर्ण और हास्यरसानुयायी गद्य-पद्यमय लेख लिखे है, उनका सम्बन्ध ऐसे लोगों की समालोचनाओं से है, जो कुछ नही जानते, पर सब कुछ जानने का दावा करते हैं। अगर सलाह हुई, तो उनको शायद हम क्रम-क्रम से प्रकाशित कर दें। भाषा और व्याकरण पर एक और लेख लिखने का हमारा इरादा है। उममें भी हम हरिश्चन्द्र की त्रुटियां दिखलायेंगे, और अच्छी तरह दिखलायेंगे । काशी के कई पण्डितों ने अनस्थिरता को साधु बतलाया । 'संस्कृत' पत्रिका के सम्पादक अप्पाशास्त्री विद्यावागीश ने तो कई तरह से उसकी साधुता साबित की।"१ द्विवेदीजी ने न तो अपने जीवन में क्लिष्टता को महत्त्व दिया और न काव्य में। यहाँ तक कि बाबू मैथिलीशरण गुप्त की रचनाओं में भी इस दोष को पाकर उन्होने कवि को सलाह दी थी कि काव्य में सरलता ही वरेण्य है, न कि अस्पष्टता और दुरुहता । गुप्तजी के नाम लिखे गये एक पत्र में द्विवेदीजी ने कहा है : 'यत्र-तत्र पेंसिल के निशान और सूचनाएँ देख जाइए।....इसमें कहीं-कहीं क्लिष्टता खटकती है। यथासम्भव उसे दूर करने का यत्न कीजिएगा। नहीं तो टिप्पणियाँ दे दीजिएगा।' इसी पत्र के अन्त में उन्होंने गुप्तजी को सरल भाषा में कविता रचने की सलाह दी है : 'एक बात का विचार रखिएगा। भाषा सरल हो। भाव सार्वजनीन और सार्वकालिक हो, सब देशों के सब मनुष्यों के मनोविकार प्रायः एक-से होते हैं । काव्य ऐसा होना चाहिए, जो सबके मनोविकार को उत्तेजित करे-देश-काल से मर्यादा-बद्ध न हो । ऐसी ही कविता अमर होती है ।२ ___जिन कारणों से इंगलैण्ड में डॉ० जॉनसन ने मेटाफिजिकल कवियों की आलोचना की थी, प्रायः उन्हीं कारणों से द्विवेदीजी ने 'सुकविकिंकर' और 'द्विरेफ' के छद्म १. द्विवेदी-पत्नावली (भारतीय ज्ञानपीठ, १९५४), पृ०६० । २. उपरिवत्, पृ० ११४ ।

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