Book Title: Acharya Mahavir Prasad Dwivedi Vyaktitva Krutitva
Author(s): Shaivya Jha
Publisher: Anupam Prakashan

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Page 5
________________ भूमिका बीसवीं शताब्दी के प्रथम दो दशकों में जिन नवीन भावादर्शो की प्रतिष्ठा हुई और जिनसे एक नये क्लासिकल एवं आचारवादी युग का सूत्रपात हुआ, उस प्यूरिटन युग का समर्थ नेतृत्व आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी ने किया जो बनारसीदास चतुर्वेदी के शब्दों में, ' महापुरुष ही नहीं, महामानव भी थे । १ वस्तुतः, द्विवेदीजी हिन्दी - साहित्य के वैसे ही शहीद थे, जैसे भारतेन्दु । इन दोनों ने दिन-रात एक कर साहित्य की अथक सेवा की और इसकी इमारत को एक ऐसी सुदृढ पीठिका पर कायम करना चाहा, जो युग-युग तक अक्षुण्ण रहे । भारतेन्दु के अधूरे काम को द्विवेदीजी ने ही पूरा किया | हिन्दी काव्य व्रजभाषा से मुक्त हो गया, 'भाषा की शब्द- सम्पत्ति की अभिवृद्धि हुई तथा उसमें वह लचक आई, जो उसे सहज ही भिन्न दिशाओं में मोड़ सके । यह वह काल था, जिसने रतिशास्त्र को अग्निसात् किया था । इस आचारवादी जड़ता और आदर्शवादी रुक्षता का प्रभाव भाषा और शैली पर भी पड़ा। द्विवेदीजी की शैली इसका ज्वलन्त प्रमाण है । भाव और भाषा दोनों दृष्टियों से यह एक पुरुष काल था । २ इस पुरुष - काल के लेखकों के लिए द्विवेदीजी आदर्श लेखक, मार्गदर्शक एवं सम्पादक थे । ध्यातव्य है कि उन दिनों एकमात्र 'सरस्वती' ही 'पत्रिकाओं की रानी नहीं, पाठकों की सेविका थी ।' द्विवेदीजी के कथनानुसार, 'तब उसमें कुछ छापना या किसी के जीवन चरित्र आदि प्रकाशित करना जरा बड़ी बात समझी जाती थी । ' 3 ऐसी दशा में लोग द्विवेदीजी को कभी-कभी बड़े- बड़े प्रलोभन देते । "कोई कहता - मेरी मौसी का मरसिया छाप दो, मैं तुम्हें निहाल कर दूँगा । कोई लिखता - अमुक सभा में दी गई, अमुक सभापति का 'स्पीच' छाप दो, मैं तुम्हारे गले में बनारसी दुपट्टा डाल दूँगा । कोई आज्ञा देता - मेरे प्रभु का सचित्र जीवन चरित्र निकाल दो, तो तुम्हें एक बढ़िया घड़ी या पैरगाड़ी नजर की जायगी ।" इन प्रलोभनों के बावजूद द्विवेदीजी टस से मस नहीं होते थे, परन्तु इतना तो अवश्य होता था कि इनका विचार करके वे अपने दुर्भाग्य को कोसते थे और कहते थे कि जब मेरे आकाश महलों को खुद मेरी ही पत्नी ने गिराकर चूर कर दिया, तब भला ये घड़ियाँ और गाड़ियाँ मैं कैसे हजम कर सकूंगा । अतः 'बहरा' और 'गूँगा' बनकर वे 'सरस्वती' में उन्हीं रचनाओं का १. रेखाचित्र (भारतीय ज्ञानपीठ, १९५२), पृ० १२ । २. केसरीकुमार, साहित्य और समीक्षा (१९५१), पृ० ४२ । ३. द्र० क्षेमचन्द्र सुमन (सम्पादक), जीवन-स्मृतियाँ (१९५३) पृ० ४५ ॥

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