Book Title: Acharya Mahavir Prasad Dwivedi Vyaktitva Krutitva
Author(s): Shaivya Jha
Publisher: Anupam Prakashan

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Page 6
________________ ( ४ ) प्रकाशन करते थे, जो पाठकोपयोगी होते । उन्होंने लिखा है : "मैं उनकी रुचि का सदैव खयाल रखता, और यह देखता रहता 'कि मेरे किसी काम से उनको सत्पथ से विचलित होने का साधन न प्राप्त हो । संशोधन द्वारा लेखों की भाषा बहुसंख्यक पाठकों की समझ में आने लायक कर देता । यह न देखता कि यह शब्द अरबी का है या फारसी काया तुर्की की। देखता सिर्फ यह कि इस शब्द, वाक्य या उल्लेख का आशय अधिकांश पाठक समझ लेंगे या नही । अल्पज्ञ होकर भी किसी पर अपनी विद्वत्ता की झूठी छाप लगाने की कोशिश मैंने कभी नही की ।" जाहिर है कि द्विवेदी जी - जैसे कर्त्तव्यपरायण, उदार साहित्यसेवी विरले ही होते हैं । उनमें अपने कर्त्तव्य के प्रति अपूर्व निष्ठा और ईमानदारी थी ही, हिन्दी-भाषा और साहित्य के प्रति अगाध प्रेम भी था । अपनी 'जीवनगाथा' के एक रोचक स्थल पर उन्होंने अपने साहित्यिक जीवन के आरम्भिक दिनों की झाँकी प्रस्तुत करते हुए कहा है कि कतिपय छिटपुट रचनाओं के प्रकाशन के अनन्तर ही उन्होंने अपने ऊपर ग्रन्थकार, लेखक, समालोचक और कवि की पदवियाँ लाद ली थीं, जिनके कारण उनके गर्व की मात्रा में बहुत-कुछ इजाफा हो गया था । किन्तु उनके तत्कालीन मित्रों और सलाहकारों ने उसे पर्याप्त न समझा। उन्होंने द्विवेदीजी को सलाह दी : 'अजी ! कोई ऐसी किताब लिखो जिससे टके सीधे हों ।' सरलहृदय द्विवेदीजी उनके चकमे में आ गए और बड़े श्रम से उन्होंने 'तरुणोपदेश' नामक ग्रन्थ की रचना की । फिर भी, उनके मित्रों को इससे सन्तोष न हुआ, कारण कि इसमें वह सरसता न थी, जिससे 'पाठक उसपर इस तरह टूटें, जिस तरह गुड़ नहीं, बहते हुए व्रण या गन्दगी पर मक्खियों के झुण्ड के झुण्ड टूटते हैं।' उन्होंने लेखक को सलाह दी : ' कामकला लिखो, कामकिल्लोल लिखो; कन्दर्प- दर्पण लिखो; रति-रहस्य लिखो; मनोज-मंजरी लिखो; अनंगरंग लिखो ।' द्विवेदीजी ने स्वीकार किया है कि इस सलाह के कारण ही बहुत दिनों तक उनका चित्त चलायमान रहा । अन्त में, उन्होंने चार-चार चरणवाले लम्बे-लम्बे छन्दों में एक पद्यात्मक पुस्तक लिख ही डाली । इसकी आलोचना स्वयं द्विवेदीजी ने इस प्रकार की है: ".... ऐसी पुस्तक, जिसके प्रत्येक पद्य से रस की नदी नहीं, तो बरसाती नाला जरूर बह रहा था । नाम भी मैंने ऐसा चुना कि उस समय तक उस रस के अधिष्ठाता को भी न सूझा था । तीस-चालीस साल पहले की बात कह रहा हूँ, आजकल की नहीं । आजकल तो नाम बाजारू हो रहा है और अपने अलौकिक आकर्षण के कारण निर्धनों को धनी और धनियों को धनाधीश बना रहा है । अपने बूढ़े मुँह के भीतर धँसी हुई जबान से आपके सामने उस नाम का उल्लेख करते मुझे बड़ी लज्जा मालूम होगी। पर पापों का प्रायश्चित्त करने के लिए आप पंच समाज-रूपी

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