Book Title: Aatmsakshatkar
Author(s): Dada Bhagwan
Publisher: Dada Bhagwan Aradhana Trust

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Page 12
________________ दादाश्री : उनके वहाँ जाना, और नहीं जाना हो तो, जाना आवश्यक भी नहीं है। आप जाना चाहें तो जाना और मत जाना हो तो नहीं जाना। उन्हें दुःख न हो, इसलिए भी जाना चाहिए। आपको विनय रखना चाहिए। यहाँ पर 'आत्मज्ञान' लेते समय मुझसे कोई पूछे कि, 'अब मैं गुरु को छोड़ दूँ?' तब मैं कहूँगा कि, 'मत छोड़ना। अरे, उन्हीं गुरु के प्रताप से तो यहाँ तक पहुँच पाए हो।' संसार का ज्ञान भी गुरु बिना नहीं होता और मोक्ष का ज्ञान भी गुरु बिना नहीं होता। व्यवहार के गुरु 'व्यवहार' के लिए हैं और ज्ञानीपुरुष 'निश्चय' के लिए हैं। व्यवहार रिलेटिव है और निश्चय रियल है। रिलेटिव के लिए गुरु चाहिए और रीयल के लिए ज्ञानीपुरुष चाहिए। प्रश्नकर्ता : ऐसा भी कहते हैं न कि गुरु के बिना ज्ञान किस तरह मिलेगा? दादाश्री : गुरु तो रास्ता दिखाते हैं, मार्ग दिखाते हैं और 'ज्ञानीपुरुष' ज्ञान देते हैं। 'ज्ञानीपुरुष' अर्थात् जिन्हें जानने को कुछ भी बाकी नहीं रहा, खुद तद्स्वरूप में बैठे हैं। अर्थात् 'ज्ञानीपुरुष' आपको सबकुछ दे देते हैं और गुरु तो संसार में आपको रास्ता दिखाते हैं, उनके कहे अनुसार करें तो संसार में सुखी हो जाते हैं। आधि, व्याधि और उपाधि में समाधि दिलवाएँ वे 'ज्ञानीपुरुष'। प्रश्नकर्ता : ज्ञान गुरु से मिलता है, लेकिन जिस गुरु ने खुद आत्मसाक्षात्कार कर लिया हो, उनके ही हाथों ज्ञान मिल सकता है न? । दादाश्री : वे 'ज्ञानीपुरुष' होने चाहिए और फिर सिर्फ आत्मसाक्षात्कार करवाने से कुछ नहीं होगा। जब 'ज्ञानीपुरुष', 'यह जगत् किस तरह से चल रहा है, खुद कौन है, यह कौन है,' ऐसे सभी स्पष्टकर दें, तब काम पूरा होता है, ऐसा है। वर्ना, पुस्तकों के पीछे पड़ते रहते हैं, लेकिन पुस्तकें तो 'हेल्पर' हैं। वह मुख्य चीज़ नहीं है। वह साधारण कारण है, वह असाधारण कारण नहीं है। असाधारण कारण कौन-सा है? 'ज्ञानीपुरुष'!

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