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परिणाम स्वरूप क्या होता है? ज्ञाता-दृष्टा पद में रहा जा सकता है और हमें कोई पूछे कि खरा पुरुषार्थ क्या है? तो हम कहेंगे, ‘ज्ञाता-दृष्टा' रहना, वह तो ये पाँच आज्ञाएँ ज्ञाता-दृष्टा रहना ही सिखाती है न? हम देखते हैं कि जहाँ-जहाँ जिसने सच्चे दिल से पुरुषार्थ शुरू किया है उस पर हमारी कृपा अवश्य बरसती ही है।
१२. आत्मानुभव तीन स्टेज में, अनुभव-लक्ष्य-प्रतीति प्रश्नकर्ता : आत्मा का अनुभव हो जाने पर क्या होता है?
दादाश्री : आत्मा का अनुभव हो गया, यानी देहाध्यास छूट गया। देहाध्यास छूट गया, यानी कर्म बँधना रुक गया। फिर इससे ज्यादा और क्या चाहिए?
पहले चंदूभाई क्या थे और आज चंदूभाई क्या हैं, वह समझ में आता है। तो यह परिवर्तन कैसे? आत्म-अनुभव से। पहले देहाध्यास का अनुभव था और अब यह आत्म-अनुभव है।
प्रतीति अर्थात् पूरी मान्यता सौ प्रतिशत बदल गई और 'मैं शुद्धात्मा ही हूँ' वही बात पूरी तरह से तय हो गई। मैं शुद्धात्मा हूँ' वह श्रद्धा बैठती है लेकिन वापस उठ जाती है और प्रतीति नहीं ऊठती। श्रद्धा बदल जाती है, लेकिन प्रतीति नहीं बदलती
यह प्रतीति यानी मान लो हमने यहाँ ये लकड़ी रखी अब उस पर बहुत दबाव आए तो ऐसे टेड़ी हो जाएगी लेकिन स्थान नहीं छोड़ेगी। भले ही कितने ही कर्मों का उदय आए, खराब उदय आए लेकिन स्थान नहीं छोड़ेगी। 'मैं शुद्धात्मा हूँ' वह गायब नहीं होगा।
अनुभव, लक्ष्य और प्रतीति ये तीनों रहेंगे। प्रतीति सदा के लिए रहेगी। लक्ष्य तो कभी-कभी रहेगा। व्यापार में या किसी काम में लगे कि फिर से लक्ष्य चूक जाएँ और काम खत्म होने पर फिर से लक्ष्य में आ जाएँ। और अनुभव तो कब होगा, कि जब काम से, सबसे निवृत होकर एकांत में बैठे हों तब अनुभव का स्वाद आएगा। यद्यपि अनुभव तो बढ़ता ही रहता है।
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