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खुद के दोष देखने का साधन - प्रतिक्रमण
क्रमण-अतिक्रमण-प्रतिक्रमण
संसार में जो कुछ भी हो रहा है वह क्रमण है। जब तक वह सहज रूप से होता है, तब तक क्रमण है, लेकिन यदि एक्सेस (ज़्यादा) हो जाए तो वह अतिक्रमण कहलाता है। जिसके प्रति अतिक्रमण हो जाए, उससे यदि छूटना हो तो उसका प्रतिक्रमण करना ही पड़ेगा, मतलब धोना पड़ेगा, तब साफ होगा। पूर्व जन्म में जो भाव किया कि, 'फलाने (व्यक्ति) को चार धौल दे देनी है।' इसी वजह से जब इस जन्म में वह रूपक में आता है, तब चार धौल दे दी जाती है। वह अतिक्रमण हुआ कहलाएगा, इसलिए उसका प्रतिक्रमण करना पड़ेगा। सामनेवाले के 'शुद्धात्मा' को याद करके, उसके निमित्त से प्रतिक्रमण करना चाहिए।
कोई खराब आचरण हुआ, वह अतिक्रमण कहलाता है। जो खराब विचार आया, वह तो दाग़ कहलाता है, फिर वह मन ही मन में काटता रहता है। उसे धोने के लिए प्रतिक्रमण करने पड़ेंगे। इस प्रतिक्रमण से तो सामनेवाले का भी आपके लिए भाव बदल जाता है, खुद के भाव अच्छे हों तो और औरों के भाव भी अच्छे हो जाते हैं। क्योंकि प्रतिक्रमण में तो इतनी अधिक शक्ति हैं कि बाघ भी कुत्ते जैसा बन जाता है ! प्रतिक्रमण कब काम आता है? जब कोई उल्टे परिणाम आएँ, तब काम आता है।
प्रतिक्रमण की यथार्थ समझ तो प्रतिक्रमण यानी क्या? प्रतिक्रमण यानी सामनेवाला हमारा जो अपमान करता है, तब हमें समझ जाना चाहिए कि इस अपमान का गुनहगार कौन है? करनेवाला गुनहगार है या भुगतनेवाला गुनहगार है, पहले हमें यह डिसीज़न लेना चाहिए। तो अपमान करनेवाला वह बिल्कुल भी गुनहगार नहीं होता। वह निमित्त है। और अपने ही कर्म के उदय को लेकर वह निमित्त मिलता है। मतलब यह अपना ही गुनाह है। अब प्रतिक्रमण
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