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हैं, इसलिए उसे पढ़ते ही अपने सारे पर्याय बदलते जाते हैं, और वैसेवैसे आनंद उत्पन्न होता जाता है। क्योंकि यह वीतरागी वाणी है। राग-द्वेष रहित वाणी हो तो काम होता है नहीं तो काम नहीं होता। भगवान की वाणी वीतराग थी, इसलिए उसका असर आज तक चल रहा है। तो 'ज्ञानी पुरुष' की वाणी का भी असर होता है। वीतराग वाणी के अलावा दूसरा कोई उपाय नहीं है।
__ प्रत्यक्ष परिचय नहीं मिले तब प्रश्नकर्ता : दादा, यदि परिचय में नहीं रह सकें, तब पुस्तकें कितनी मदद करती हैं?
दादाश्री : सब मदद करती हैं। यहाँ की, दादा की प्रत्येक चीज़, दादा के वे शब्द हैं (पुस्तक के), आशय जो दादा का है, मतलब सभी चीजें हैल्प करती है।
प्रश्नकर्ता : मगर साक्षात परिचय और इसमें अंतर रहेगा न?
दादाश्री : वह तो, यदि अंतर देखने जाएँ तो सभी में अंतर होता है। इसलिए हमें तो जिस समय जो आया वह करना है। 'दादा' नहीं हों तब क्या करोगे? दादाजी की पुस्तक है, वह पढना। पुस्तक में दादाजी ही हैं न? वर्ना आँखें बंद की कि तुरंत दादाजी दिखाई देंगे।
१५. पाँच आज्ञा से जगत् निदोर्ष ‘स्वरूपज्ञान' बिना तो भूल दिखती ही नहीं। क्योंकि 'मैं ही चंदूभाई हूँ और मुझ में कोई दोष नहीं है, मैं तो सयाना-समझदार हूँ,' ऐसा रहता है और 'स्वरूपज्ञान' की प्राप्ति के बाद आप निष्पक्षपाती हुए, मन-वचनकाया पर आपको पक्षपात नहीं रहा। इसलिए खुद की भूलें, आपको खुद को दिखती हैं।
जिसे खुद की भूल पता चलेगी, जिसे प्रतिक्षण अपनी भूल दिखेगी, जहाँ-जहाँ हो वहाँ दिखे, नहीं हो वहाँ नहीं दिखे, वह खुद ‘परमात्मा