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अलग हो जाओ। बुद्धि इसमें फँसाती है। एक बार समझ लेने के बाद बुद्धि का मानना मत। हुआ सो न्याय । कोर्ट के न्याय में भूल-चूक हो सकती है, उल्टा-सीधा हो जाता है, लेकिन इस न्याय में कोई फर्क नहीं ।
न्याय खोजते तो दम निकल गया है । इन्सान के मन में ऐसा होता है कि मैंने इसका क्या बिगाड़ा है, जो यह मेरा बिगाड़ता है । न्याय ढूँढने से तो इन सभी को मार पड़ी है, इसलिए न्याय नहीं ढूँढना। न्याय खोजने से इन सभी को मान खा-खाकर निशान पड़ गए और फिर भी अंत में हुआ तो वही का वही । आखिर में वही का वही आ जाता है । तो फिर पहले से ही क्यों न समझ जाएँ ? यह तो केवल अहंकार की दखल है !
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विकल्पों का अंत, यही मोक्ष मार्ग
बुद्धि जब भी विकल्प दिखाए न, तब कह देना, जो हुआ वही न्याय । बुद्धि न्याय ढूँढती है कि ये मुझसे छोटा है और मेरी मर्यादा नहीं रखता। वह मर्यादा रखे तो न्याय और न रखे वह भी न्याय । बुद्धि जितनी निर्विवाद होगी, उतने ही हम निर्विकल्प होंगे फिर !
न्याय ढूँढने निकले तो विकल्प बढ़ते ही जाएँगे और यह कुदरती न्याय विकल्पों को निर्विकल्प बनाता जाता है। जो हो चुका है, वही न्याय है। और इसके बावजूद भी पाँच आदमियों का पंच जो कहे, वह भी उसके विरूद्ध में चला जाता है, तब वह उस न्याय को भी नहीं मानता, किसी की बात नहीं मानता। तब फिर विकल्प बढ़ते ही जाते हैं। अपने इर्द-गिर्द जाल ही बुन रहा है वह आदमी कुछ भी प्राप्त नहीं करता । बहुत दु:खी हो जाता है! इसके बजाय पहले से ही श्रद्धा रखना कि हुआ सो न्याय ।
और कुदरत हमेशा न्याय ही करती रहती है, निरंतर न्याय ही कर रही है लेकिन वह प्रमाण नहीं दे सकती । प्रमाण तो 'ज्ञानी' देते हैं कि कैसे यह न्याय है? कैसे हुआ, वह 'ज्ञानी' बता देते हैं । उसे संतुष्ट कर दें और तब निबेड़ा आता है । निर्विकल्पी हो जाएगा तो निबेड़ा आएगा।
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