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चोर, चोरी करने को धर्म मानता है, दानी, दान देने को धर्म मानता है। ये लोकभाषा है, भगवान की भाषा नहीं है । भगवान के यहाँ ऐसा वैसा कुछ है ही नहीं । भगवान के यहाँ तो इतना ही है कि, 'किसी जीव को दुःख नहीं हो, वही हमारी आज्ञा है ! '
निजदोष दिखाए अन्याय
केवल खुद के दोष के कारण पूरा जगत् अनियमित लगता है। एक क्षण के लिए भी अनियमित हुआ ही नहीं । बिल्कुल न्याय में ही रहता है। यहाँ की कोर्ट के न्याय में फर्क पड़ जाए, वह गलत निकले लेकिन इस कुदरत के न्याय में फर्क नहीं होता ।
और एक सेकन्ड के लिए भी न्याय में फर्क नहीं होता । यदि अन्यायी होता तो कोई मोक्ष में जाता ही नहीं । ये तो कहते हैं कि अच्छे लोगों को परेशानियाँ क्यों आती हैं ? लेकिन लोग, ऐसी कोई परेशानी पैदा नहीं कर सकते। क्योंकि खुद यदि किसी बात में दखल नहीं करे तो कोई ताक़त ऐसी नहीं है कि जो आपका नाम दे । खुद ने दखल की है इसलिए यह सब खड़ा हो गया है।
'जगत् न्याय स्वरूप
यह जगत् गप्प नहीं है । जगत् न्याय स्वरूप है। कुदरत ने कभी भी बिल्कुल, अन्याय नहीं किया । कुदरत कहीं पर आदमी को काट देती है, एक्सिडेन्ट हो जाता है, तो वह सब न्याय स्वरूप है । न्याय के बाहर कुदरत गई नहीं । यह बेकार ही नासमझी में कुछ भी कहते रहते हैं और जीवन जीने की कला भी नहीं आती, और देखो तो चिंता ही चिंता। इसलिए जो हुआ उसे न्याय कहो।
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'हुआ सो न्याय' समझे तो पूरा संसार पार हो जाए, ऐसा है। इस दुनिया में एक सेकन्ड भी अन्याय होता ही नहीं । न्याय ही हो रहा है। लेकिन बुद्धि हमें फँसाती है कि इसे न्याय कैसे कह सकते हैं? इसलिए हम मूल बात बताना चाहते हैं कि यह कुदरत का है और बुद्धि से आप
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