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स्वरूप' हो गया! 'मैं चंदूभाई नहीं, मैं शुद्धात्मा हूँ' यह समझने के बाद ही निष्पक्षपाती हो पाते हैं। किसीका ज़रा-सा भी दोष दिखे नहीं और खुद के सभी दोष दिखें, तभी खुद का कार्य पूरा हुआ कहलाता है। खुद के दोष दिखने लगे, तभी से हमारा दिया हुआ 'ज्ञान' परिणमित होना शुरू हो जाता है। जब खुद के दोष दिखाई देने लगे, तब दूसरों के दोष दिखते नहीं हैं। औरों के दोष दिखें तो वह बहुत बड़ा गुनाह कहलाता है।
इस निर्दोष जगत् में जहाँ कोई दोषित है ही नहीं, वहाँ किसे दोष दें? जब तक दोष हैं, तब तक सारे दोष निकलेंगे नहीं, तब तक अहंकार निर्मूल नहीं होगा। जब तक अहंकार निर्मूल न हो जाए, तब तक दोष धोने हैं।
__ अभी भी यदि कोई दोषित दिखता है, तो वह अपनी भूल है। कभी न कभी तो, निर्दोष देखना पड़ेगा न? हमारे हिसाब से ही है यह सब। इतना थोड़े में समझ जाओ न, तो भी सब बहुत काम आएगा।
___ आज्ञापालन से बढ़े निर्दोष दृष्टि मुझे जगत् निर्दोष दिखता है। आपको ऐसी दृष्टि आएगी, तब यह पज़ल सॉल्व हो जाएगा। मैं आपको ऐसा उजाला दूंगा और इतने पाप धो डालूँगा कि जिससे आपको उजाला रहे और आपको निर्दोष दिखता जाए।
और साथ-साथ पाँच आज्ञाएँ दूंगा। उन पाँच आज्ञाओं में रहोगे तो जो दिया हुआ ज्ञान है, उसे वे ज़रा भी फ्रेक्चर नहीं होने देंगी।
तब से हुआ समकित! खुद का दोष दिखें, तभी से ही समकित हुआ, ऐसा कहलाएगा। खुद का दोष दिखे, तब से समझना कि खुद जागृत हुआ है। नहीं तो सब नींद में ही चल रहा है। दोष खतम हुए या नहीं हुए, उसकी बहुत चिंता करने जैसी नहीं है, लेकिन मुख्य ज़रूरत जागृति की है। जागृति होने के बाद फिर नये दोष खड़े नहीं होते हैं और जो पुराने दोष हैं, वे निकलते रहते हैं। हमें उन दोषों को देखना है कि किस तरह से दोष होते हैं।