Book Title: Tulsi Prajna 1990 03
Author(s): Nathmal Tatia
Publisher: Jain Vishva Bharati
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी प्रज्ञा TULASI-PRAJÑA QUARTERLY RESEARCH JOURNAL AA OF ANEKANTA SODHA-PITHA, JAIN VISHVA BHARATĪ 31 34 खण्ड १५ १० मार्च, १६६० 55 'जैन विश्वभा विज्जा वल पमोक्खी अह 55 लाडनूं अनेकांत शोध-पीठ जैन विश्व भारती लाडनूं (राजस्थान ) अङ्क ४ Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलस्याङ्जा सम्पादक डॉ. नथमल टाटिया सहायक सम्पादक रामस्वरूप सोनी डॉ. मंगल प्रकाश मेहता ANS अनेकांत शोध-पीठ जैन विश्व भारती लाडनूं (राजस्थान) Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड १५ मार्च, १९९० अंक ४ अनुक्रमणिका पृष्ठ १. साध्वी अशोकधी : कल्पसूत्र : एक पर्यवेक्षण २. साध्वी निर्वाणश्री : संस्कृत साहित्य का आधुनिक साहित्य के संदर्भ में मूल्यांकन ७ ३. आचार्य राजकुमार जैन : महर्षि चरक की अनेकान्त सम्बन्धी अवधारणा ४. कुमारी कमला जोशी : पुनर्जन्म-प्राचीन दार्शनिकों की दष्टि में ५. श्रीमती संगीता मेहता : जैन संस्कृत स्तोत्र साहित्य : उद्भव एवं विकास ६. अभय प्रकाश जैन : १०८ का माहात्म्य ७. प्रो० कल्याणमल लोढ़ा : कोहो पीइं पणासेइ 8. Dr. Nathmal Tatia: Doctrine of Karma in Buddhism and Jainism 9. Muni Mahendra Kumar : Concept of Space and Time in Western Philosophy 10. Jagat Ram Bhattacharyya: Some Problems of Māgadhi Dialect वार्षिक मूल्य : रु. ३५.०० इस अङ्क का मूल्य : रु० २०.०० नोट-यह आवश्यक नहीं है कि इस अंक में प्रकाशित लेखों में उल्लिखित विचार सम्पादक अथवा संस्था को मान्य हों। Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार दशा की आठवीं दशा का नाम पर्युषण कल्प है । परि उपसर्ग पूर्वक वस् धातु से अन् प्रत्यय लगाकर पर्युषण शब्द निर्मित हुआ है। पर्युषण का अर्थ आत्मा का नैकट्य या अपने स्वभाव में उपस्थित रहना है । नियुक्तिकार द्वितीय भद्रबाहु ने निरुक्त सहित इसके नौ पर्यायवाची नामों का विश्लेषण किया है। वे नाम इस प्रकार हैं कल्पसूत्र : एक पर्यवेक्षण [] साध्वी अशोकश्री १. पर्याय व्यवस्था २. पर्युपशमना ३. प्राकृतिक ४ परिवसना ५. पर्युषण ६. वर्षावास ७. प्रथम समवसरण ८ स्थापना ६ ज्येष्ठावग्रह' । ये शब्द व्यौत्पत्तिक वैचित्र्य होने पर भी पर्युषण अर्थ से अनुस्यूत होकर विभिन्न परम्पराओं और मर्यादाओं के प्रतीक हैं । १. पर्याय व्यवस्था उस युग में दीक्षा पर्याय की ज्येष्ठता और वरिष्ठता का मानक पर्युषणकाल ही सम्मत था। जिसके पर्युषण संख्या अधिक होती वह दीक्षा पर्याय में ज्येष्ठ और अतिरिक्त कनिष्ठ | इसलिए यह वर्तमान के नाम से भी प्रचलित था । -- २. पर्युपशमना ऋतुबद्धकाल की अपेक्षा वर्षावास की प्रवृत्तियां कुछ भिन्न होती हैं इसलिए इसकी दूसरी अभिधा पर्यंपशमना है । ३. प्राकृतिक गृहस्थ वर्ग और श्रमण वर्ग दोनों के लिए ही यह विशेष आराधनीय पर्व होता है, इसलिए यह एक प्राकृतिक पर्व है । ४. परिवसना - इस समय श्रमण अन्य अपेक्षाओं को गौण करके आत्मा की निकटता से उपासना करता है, इसलिए इसकी संज्ञा परिवसना है । ५. पर्युषण - इस समय ज्ञान, दर्शन और चारित्र की आराधना की जाती है । इसलिए इसकी एक अभिधा पर्युषण है । ६. वर्षावास मुनि वर्ग चार मास तक एक ही स्थान पर निवास करता है इसलिए यह वर्षावास के नाम से प्रसिद्ध है | खण्ड १५, अंक ४, (मार्च, १० ) Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७. प्रथम समवसरण____ चातुर्मास के योग्य क्षेत्र में होने वाले प्रथम प्रवेश को प्रथम समवसरण कहा जाता है। ८. स्थापना ऋतुबद्ध की अपेक्षा वर्षावास की आचार परम्परा कुछ विलक्षण होती है इसलिए इसकी एक संज्ञा स्थापना है। ९. ज्येष्ठावग्रह ऋतुबद्ध काल में श्रमण एक स्थान में एक मास तक रह सकता है, किन्तु वर्षावास में चार मास एक स्थान पर रहता है इसलिए इसे ज्येष्ठावग्रह कहा जाता है। कल्प कल्प शब्द का अर्थ-आचार, मर्यादा, व्यवहार, नीति, विधि और समाचारी है। आचार्य उमास्वाति के अनुसार जो अनुष्ठान ज्ञान, शील और तप का उद्वर्तन और दोष परम्परा का अपवर्तन करता है वह कल्प है। वर्तमान में यह पर्युषण कल्प 'कल्पसूत्र' के नाम से विख्यात हो गया। इसकी सबसे प्राचीनतम टीका 'संदेहविषोषधि" है, जिसके रचयिता जिनप्रभसूरि हैं और इसकी रचना ई० सन् १३०७ में हुई थी। जिनप्रभसूरि ने अपनी टीका में सर्वप्रथम इस लघु नामका प्रयोग किया। तत्पश्चात् दशाश्रुत स्कन्ध से मुक्त होकर यह स्वतंत्र ग्रंथ के रूप में प्रकाशित हुआ । स्वतंत्र संज्ञाकरण होने के पश्चात् इसकी संरचना के विषय में नाना अभिमत और नाना कल्पनाएं उभरने लगीं। कई मनीषियों का यह चिन्तन है कि नन्दी सूत्र में एक कल्प का नाम आया है जो वर्तमान में बृहत् कल्प के नाम से प्रसिद्ध है। उत्कालिक सूत्र की तालिका में चुल्लकल्प और महाकल्प-ये दो नाम भी उल्लिखित हैं। महाकल्प को विलुप्त हुए तो हजार वर्ष हो गये, अतः संभावना की जाती है कि चुल्लकल्प सूत्र ही कल्पसूत्र की संज्ञा से अभिहित हुआ हो। लेकिन यह चिन्तन यथार्थ प्रतीत नहीं होता क्योंकि इसे प्रमाणित करने के लिए अब तक कोई भी पुष्ट आधार उपलब्ध नहीं है। यह ग्रंथ स्वतंत्र संरचना नहीं है। इसे सिद्ध करने के लिए तो महत्वपूर्ण प्रमाण इसकी नियुक्ति और चूणि है । यदि यह ग्रंथ स्वतंत्र होता तो दशाश्रुत स्कन्ध की नियुक्ति और चणि में इसकी विवेचना नहीं मिलती । लेकिन नियुक्ति और चूणि में इन्द्र आगमन गर्म चक्रमण अट्टणशाला, जन्म, प्रीतिदान, दीक्षा, केवलज्ञान, वर्षावास, निर्वाण आदि समस्त विषयों का संक्षिप्त प्रस्तुतीकरण हुआ है जो कि कल्पसूत्र में उपलब्ध होता है। अतः यह कल्पसूत्र दशाश्रुत स्कन्ध की आठवीं दशा है न कि कोई स्वतंत्र ग्रंथ। इसके नियुक्ति कर्ता कौन थे—यह तो एक स्वतंत्र विषय है । प्रामाण्य का धरातल संदेहास्पंद कल्पसत्र को कई आचार्यों ने प्रामाणिक सिद्ध करने के लिए प्रयत्न किया है। उनके चिन्तनानुसार श्रमण भगवान महावीर का जीवन आचारांग से, भगवान ऋषभ तुलसी प्रज्ञा Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति से, स्थिरावली का नंदी सूत्र से और समाचारी विभाग भी आगम सम्मत प्रतीत होता है लेकिन यह नितान्त यथार्थ है, ऐसा नहीं कहा जा सकता, क्योंकि इसका मूलस्वरूप ही संदेहास्पद है। पाश्चात्य विद्वानों ने इस संदर्भ को अभिव्यक्त करते हुए कहा है कि चौदह सपनों का आलंकारिक वर्णन इसमें बाद में जोडा गया है। समाचारी और स्थिरावली का भी कुछ अंश बाद में प्रक्षिप्त किया गया है। इस प्रक्षिप्तांश को भाषा भेद से भी सिद्ध किया जाता है। जबकि चौदह सपनों का आलंकारिक काव्यात्मक भाषा में वर्णन किया गया है और इसमें समास की भी बहुलता है तथा अन्य सारा वर्णन साधारण भाषा में किया गया है । यह एक प्रामाणिक सत्य है कि रचयिता का भाषा प्रवाह प्रायः समान गति से प्रवाहित होता है। जिस प्रवाह में ग्रंथ प्रारंभ होता है उसी प्रवाह में प्रायः समाप्त हो जाता है। काव्यों में छंद भेद तो होता है लेकिन भाषा का प्रवाह समान ही होता है। इस प्रक्षिप्तांश के आधार पर ही बेबर की यह एक अवधारणा बन गई कि यह देवद्धिगणि की रचना है। उनके अभिमतानुसार इस कल्पसूत्र के तीन खण्ड हैंप्रथम खण्ड में भगवान महावीर का जीवन दर्शन, दूसरे खण्ड में पूर्ववर्ती तेईस तीर्थंकर और तीसरे में स्थिरावली का वर्णन है। बेबर की धारणा तो प्रमाणिक प्रतीत नहीं होती क्योंकि देवद्धि गणी की अपेक्षा हमें भद्रबाहु के प्रमाण प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होते हैं। ज० विन्टर निटस के अनुसार प्रथम में जिन चरित्र, दूसरे में स्थिरावली और तीसरे में समाचारी का निरुपण है। इन तीनों के संयुक्त भाग को ही कल्पसूत्र की संज्ञा दी गई है । वर्तमान में ग्रंथ का स्वरूप यही उपलब्ध होता है। प्राचीन प्रतियां कल्पसूत्र की प्राचीनतम छः प्रतियां मिलती हैं। जिसमें कई प्राचीन हैं, कई प्राचीनतम हैं। अहमदाबाद के उजमभाई की धर्मशाला में मुक्तिविजयजी के ज्ञान भण्डार में ताड़पत्र की एक प्रति प्राप्त हुई है। तीन प्रतियां खंभात के शांतिनाथ नामक ज्ञान भण्डार में प्राप्त हुई हैं। जिनकी पत्र संख्या क्रमशः १७४८७ और १५४ है। खंभात से प्राप्त दो प्रतियों में पुष्पिका भी लिखी हुई है। एक पुष्पिका यहाँ उद्धत की जा रही है "संवत् १२४७ वर्षे सुदि ६ बुधे अधेह श्री भृगु कच्छे समस्त राजावलि विराजित महाराजाधिराज उमापति वरलब्ध प्रसाद जंगन जनार्दन प्रताप चतुर्भुज श्रीमद्भीमदेव कल्याण विजय राज्ये एतद् प्रसादावाप्त श्री लाटदेशे निरूपित दण्ड श्री शोभन देवे अस्य निरुपणया मुद्रा व्यापारे रत्नसिंह प्रतिपत्तौ इह श्री भृगुकच्छे श्रीमदाचार्य विजयसिंह सूरि पट्टोद्धरण श्रीमज्जिनशासन समुच्चय आदेशनामृत पय प्रजापालक अबोध जनपथिक ज्ञान श्रम पीलित कर्ण पटु पेय परममोक्षास्पद विश्राम श्रीमदाचार्य श्री पद्मदेव सूरि।" _ 'मंगल महाश्री "छ" ग्रंथ २२०० "४" नामक एक प्रति साराभाई मणीलाल नवाब के संग्रहालय की है। लेकिन यह प्रति कागज पर लिखी हुई है। एक प्रति पुण्य विजयजी खण्ड १५७ अंक ४, (मार्च, ६०) Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के भण्डार में उपलब्ध हुई है। यह भी ताड़पत्रीय प्रति है। द्वितीय प्रति में पुष्पिका छ: पद्यों में गुम्फित है। एक प्रति सारा भाई नवाब के संग्रहालय में उपलब्ध हुई है। कागज में लिखित प्रतियों में से एक भी प्रति ऐसी नहीं है जो कि तेरहवीं सदी से पहले की हो । ताड़पत्रीय प्रतियों में एक प्रति अवश्य है जो कि संवत् १२४७ की है और जो खंभात से प्राप्त है। अतिरिक्त सारी प्रतियां चौदहवीं एवं पन्द्रहवीं शताब्दी की हैं । इन सभी प्रतियों में भाषा और मूल पाठ में बहुत विषमता है। तथा कहीं-कहीं अति संक्षेप भी है । इसलिए यह निर्णय नहीं लिया जा सकता कि कौनसी प्रति बिल्कुल शुद्ध एवं मूल रूप में है। प्राचीनतम प्रति में चौदह स्वप्नों का आलंकारिक वर्णन बिल्कुल नहीं है। लेकिन प्राचीन प्रतियों में यह वर्णन कुछ अवश्य मिलता है तथा पुरातन प्रतियों में अंक संख्या भी उपलब्ध नहीं होती। १६वीं तथा १७वीं शताब्दी की प्रतियों की संख्या अवश्य मिलती है । इससे सिद्ध होता है कि संकात्मक पद्धति बाद में विकसित हुई हो। डा० जेल माल्स फोर्ड ने जैसलमेर में इन प्रतियों का निरीक्षण किया और उन्होंने कहा कि अभी इस विषय में और अन्वेषण अपेक्षित है। टिप्पण लेखक श्रीमद्पृथ्वीचन्द्र ने भी मूलपाठ में कहीं-कहीं विसंगति होने से चूणि का सहारा लिया है। विद्वानों का अभिमत सत्य प्रतीत होता है कि चूर्णिकारों एवं टीकाकारों ने भी मूलपाठ में कहीं-कहीं परिवर्तन कर दिया है। जहां भी अर्थ बोध नहीं हुआ वहीं उन्होंने अपनी मति के अनुसार शब्दों में काट-छांट कर दी। व्याकरण भी परिवर्तित प्राचीन और अर्वाचीन व्याकरण में भी बहुत अंतर है । हेम व्याकरण में 'य श्रुति' का विधान है। प्राचीन व्याकरण में इकार का प्रयोग मिलता है। जैसे–चई, चइत्ता आदि । अर्वाचीन में 'ह्रस्व संयोगे' सूत्र को काम में लिया जाता है। जैसे—गुत्त, जुत्त, पुण्णिमा प्रभृति । प्राचीन में ह्रस्व नहीं होता, वहां गोत्त, थोत्त शब्द प्रयुक्त "क ग च ज त द प य वां प्रायो लुक्" "ख च य थ भां ह" इन सूत्रों का प्रयोग भी नहीं के बराबर है। 'असण पाण खामस' इन शब्दों का संक्षिप्तिकरण भी मिलता है। जैसे-अ-पा-खा-सा। चार संख्या के प्रतीक शब्दों की संघटना भी उस युग में प्रचलित थी । जैसे असण ठक् असण टक् और असष । छः संख्या के सूचक शब्द फ, फा, फ, फ्रा का भी प्रयोग मिलता है । अतः व्याकरण भेद बहुत स्थानों पर मिलता है । इन सारे तथ्यों से इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि इसमें प्रक्षिप्तांश तो अवश्य है लेकिन कहां कितना है यह अब तक भी अन्वेषणीय है। इसलिए इसकी प्रामाणिकता अब तक भी संदेहास्पद है। ... ग्रंथ परिचय :-यह गद्यात्मक है। इसकी सूत्र संख्या (२८८) है। इसमें ३ विभाग हैं। (१) जिन चरित्र (२) स्थिरावली (३) समाचारी। जिन चरितावली के १८१ सूत्र हैं। स्थिरावली के ४१ और समाचारी के ६६ सूत्र हैं। सूत्रों की कुल संख्या २८८ है। तुलसी प्रज्ञा Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन चरित्र :-जिन चरित्र (पूरा) वेढा नामक छंद में रचा गया है। चौबीस तीर्थंकरों का जीवनवृत्त इसमें गुम्फित किया गया है। विवेचना पद्धति में यहां पश्चानुपूर्वी क्रम का आलम्बन लिया गया है। इसलिए सर्वप्रथम श्रमण भगवान् महावीर का जीवन चरित्र सुन्दर साहित्यिक एवं आलंकारिक भाषा में चित्रित किया गया है। स्वप्न, स्वप्न फल, इन्द्रागमन, गर्भापहार, अट्टणशाला, जन्मोत्सव, दीक्षा, चतुर्मास, अन्तकृत भूमि और परिनिर्वाण आदि का विभिन्न संदर्भो पर विस्तृत विवेचन किया गया है। बुद्ध से जन्म तुलना :-भगवान महावीर के जीवन प्रसंग की तुलना बौद्ध ग्रंथ 'ललित विस्तरा' में वर्णित बुद्ध की जन्म घटना से की जा सकती है। कल्पसूत्र के अनुसार इन्द्र मन ही मन पर्यालोचन करता हुआ कहता है कि अतीत में न कभी ऐसा हुआ है, वर्तमान में न कभी ऐसा होता है और न भविष्य में कभी ऐसा होगा । अरहन्त, चक्रवर्ती, बलदेव और वासुदेव आदि अन्त्यकुल, प्रान्तकुल, कृपणकुल, दरिद्रकुल, तुच्छकुल, भिक्षुककुल में न कभी उत्पन्न हुए हैं और न कभी उत्पन्न होते हैं और न कभी उत्पन्न होंगे। यह एक ऐतिहासिक और पारम्परिक निश्चित तथ्य है कि वे उग्रकुल, भोगकुल, राजन्यकुल, क्षत्रियकुल, इद्रवाकुल और हरिवंश आदि उत्तम कुलों में अतीत में पैदा हुए थे, वर्तमान में पैदा होते हैं और भविष्य में उत्पन्न होंगे । यही तथ्य ललित विस्तरा में मिलता है-"चाण्डाल कुल, वेणूकार कुल, रथकार कुल, पुरुकस कुल जैसे हीनकुलों में उत्पन्न नहीं होते। वे या तो ब्राह्मण कुल में जन्म लेते हैं या क्षत्रिय कुल में पैदा होते हैं।"" दीर्घनिकाय में क्षत्रिय की श्रेष्ठता का प्रतिपादन करने वाली जो सनत्कुमार ने गाथा कही उसका भगवान् बुद्ध ने अनुमोदन करते हुए कहा था-'यह गाथा बहुत सार्थक है न कि निरर्थक है ।" बृहदारण्यक उपनिषद् में भी यही उल्लेख मिलता है.---"क्षत्रिय में उत्कृष्ट कोई जाति नहीं है।"५ राजसूय यज्ञ विद्या में भी ब्राह्मण नीचे बैठकर क्षत्रिय की उपासना करता है। पञ्च कल्याण :- आपका जन्म, दीक्षा, कैवल्य आदि पञ्च कल्याण हस्तोतरा नक्षत्र में हुए। परिनिर्वाण स्वाति नक्षत्र में हुआ था। पांच कल्याण का वर्णन ठाणांग सूत्र में और पञ्चाशकशास्त्र में भी मिलता है । __भगवान महावीर का जीवन वृत्त आचार चूला से मिलता-जुलता है। पुरुषादानीय पार्श्वनाथ, अर्हत् अरिष्टनेमि और ऋषभदेव इनकी प्रमुख-प्रमुख घटनाओं का उल्लेख है। शेष तीर्थंकरों के जीवन व्याख्या में तो मात्र पांच कल्याण और अन्तकृत भूमिका आदि का ही वर्णन किया गया है। ऋषभदेव का जीवन वृत्त जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति से मिलता-जुलता है। इसमें स्वप्न फल के पादकों का उल्लेख नहीं किया गया है क्योंकि स्वप्नों का फल स्वयं नाभि राना ने घोषित किया था। पुरुषों की बहत्तर कलाओं एवं स्त्री की चौंसठ कलाओं का विशेष उल्लेख किया गया है। स्थविरावली :- भगवान महावीर के नौ गण और इन्द्रभूति आदि ११ गणधरों का तथा उनके सहवर्ती शिष्यों का इसमें विस्तृत विवेचन किया गया है। भगवान् खण्ड १५, अंक ४ (मार्च, ९०) Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर की परम्परा का प्रारम्भ आर्य सुधर्मा स्वामी से होता है । आर्य सुधर्मा जम्बू, प्रभव और शायम्भव आदि प्रमुख आचार्यों से लेकर आर्यव्रज और फाल्गुनमित्र तक का विवेचन किया गया है । इस व्याख्या क्रम में उनके प्रमुख प्रमुख पट्टधर शिष्यों तथा उनसे निःसृत कुल, गण शाखाओं, प्रशाखाओं की भी विस्तृत सूची प्रस्तुत की गयी है । सूत्र में भी एक स्थविरावली नामक प्रकरण है जिसमें इन्द्रभूति से लेकर नागार्जुन आचार्य तक का वर्णन किया गया है ।" समाचारी : - इसमें साधुओं की आचार परम्परा तथा चातुर्मासिक विशेष विद्याओं का आकलन किया गया है । जैसे -- स्थान, आसन, संस्तारक, भोजन, लुञ्चन, पात्र तथा उत्सर्ग विधि, अपवाद विधि की व्याख्या प्रस्तुत की गई है । परिषद् में परिवाचना :-- -छेद सूत्रों की परिवाचना पहले परिषद में नहीं होती थी । इस शोध प्रधान युग कोई भी तथ्य गुप्त नहीं रह सकता । आज जैन आगम साहित्य के विभिन्न ग्रंथों पर शोध का उपक्रम चल रहा है। हाल ही में डा० श्रीमती मधुसेन का 'निशीथ चूर्णि' पर शोध निबन्ध प्रकाशित हुआ है । जिसमें उसने धर्म और दर्शन के आधार पर नये तथ्य भी उजागर किये हैं । प्रस्तुत कल्पसूत्र की वाचना तो कई वर्षों से चली आ रही है । सर्वप्रथम इसकी वाचना राजा ध्रुवसेन के पुत्र की मृत्यु होने पर आश्वासन के रूप में हुई थी । तब से अब तक पर्युषण में यह क्रम वाचना का चलता रहा है और वर्तमान में भी यही क्रम चल रहा है । संदर्भ : १. पज्जोसमणाए अक्खराई होति उ इमाहं गोण्णाई, परियाय ववत्थणा पज्जोसमणा य पागइया । परिवसणा पज्जुसणा, पज्जोसमणा य वासावासो थ, पढ़म समोसरणं तियं, ठवणा जेट्ठोग्गेहगट्ठा ॥ -श्री दशाश्रुत स्कन्ध निर्युक्ति गा० ५३-५३, पृष्ठ ५२ २. कल्पसूत्र - सूत्र - ११ ३. ललित विस्तरा -पृष्ठ- २२ ४. दीर्घनिकाय -- ३१४ पृष्ठ- २४५ ५. बृहदारण्यकोपनिषद् --- १०४१११ पृष्ठ- २६६ ६. ठाणां --- ५। सूत्र - ७ ७. पञ्चाशक शास्त्र -पृष्ठ-६ ८. नन्दी सूत्र संख्या - ४-५ तथा श्लोक २० से ४२ तक गणधर सम्पादक - पुण्यविजयजी बुलसी प्रज्ञा Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत साहित्य का आधुनिक साहित्य के सन्दर्भ में मूल्यांकन - साध्वी निर्वाणश्री मानव एक चिंतनशील प्राणी है। उसने चिंतन को भाषा और लिपि का जो परिवेष दिया, वही साहित्य कहलाया। भाषा और वर्ण्यविषय के आधार पर साहित्य की अलग-अलग पहचान बनी । संस्कृत साहित्य भाषा से उद्भूत एक अभिधा है । इसी प्रकार अन्य भाषाओं के आधार पर भी अलग-अलग साहित्य बना। आधुनिक साहित्य से हमारा तात्पर्य हिंदी साहित्य से है क्योंकि हमारी राष्ट्रीय भाषा यही है। संस्कृत साहित्य में अपार ज्ञान राशि है। उसका प्रभाव प्राय: भारत की सभी प्रांतीय भाषाओं में ही नहीं, नेपाली जेसी विदेशी भाषाओं में भी परिलक्षित होता है। संस्कृत साहित्य के संदर्भ में यह कहना अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं होगा कि वह हिंदी साहित्य का जनक है। दोनों भाषाओं के साहित्य के समीक्षात्मक अध्ययन से यह तथ्य बहुत स्पष्ट रूप में उजागर होता है । वर्ण्यवस्तु और शैली दोनों ने हिंदी साहित्य को प्रभावित किया है । इसे हम पारिभाषिक शब्दावलि में सिद्धांतमूलक और आकृतिमूलक प्रभाव भी कह सकते हैं। धर्म, दर्शन, विज्ञान, इतिहास, गणित, ज्योतिष, आयुर्वेद, व्याकरण, छंद, अलंकार आदि तमाम विषयों पर संस्कृत भाषा में पर्याप्त साहित्य उपलब्ध है। आधुनिक साहित्य के संदर्भ में संस्कृत साहित्य का मूल्यांकन करने के लिए हमें हिंदी साहित्य को चार भागों में विभक्त करना होगा। आदिकाल (ई. १२४१-१३७५) इस समय में रचित साहित्य 'रासो' के नाम से प्रख्यात हुआ। विद्यापनि द्वारा रचित 'पृथ्वीराज रासो' उनमें प्रमुख है। इसकी भाषा संस्कृत बहुल है । उसी की तरह सरसता एवं सौष्ठव है। कथा का नियोजन एवं घटना विस्तार भी संस्कृत से बहुत कुछ मिलता-जुलता है। इसमें समाविष्ट शुक-शुकी के संवाद में तो बाण की कादम्बरी की छाया स्पष्ट परिलक्षित होती है। शैली और विषय की दृष्टि से यह कृति संस्कृत कवि जयदेव के गीत-गोविंद' से बहुत प्रभावित है। इस काल का सिद्धसाहित्य व वाममार्गी साहित्य बौद्धदर्शन, सांख्य-योग-दर्शन एवं लोक साहित्य से अनुप्राणित है । आदिकाल की रचनाओं को संस्कृत साहित्य की अपेक्षा अपरिष्कृत कहा जा सकता है । संस्कृत साहित्य के आदिकालीन ग्रंथ अनुभव प्रधान हैं, जबकि हिंदी खण्ड १५, अंक ४ (मार्च, १०) Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्य के अनुकरण प्रधान । वेद, उपनिषद्, आरण्यक, ब्राह्मण, पुराण व स्मृति साहित्य में संकलन की बनिस्पत स्वतंत्रचिंतन का अंश अधिक है। मध्यकाल (ई. १३७५---१७००) यह काल भक्तिकाल एवं पूर्वमध्यकाल के नाम से विख्यात है। इस काल के कृष्ण एवं राम भक्ति काव्य भागवत व रामायण के ही उपजीवी हैं। कबीर, रहीम, तुलसी, सूर, जायसी, रसखान एवं मीरा आदि इस युग के प्रमुख संतकवि हुए हैं। कबीर का साहित्य वेदांत, योगदर्शन, बौद्धदर्शन एवं तंत्र साहित्य से प्रभावित है। कबीर की अनेक साखियां संस्कृत के नीतिवाक्यों एवं सूक्तिमय श्लोकों का ही हिंदी रूपान्तरण है। कबीर ने शंकर के अद्वैत दर्शन को जनभोग्य बनाने का एक सुन्दर उपक्रम किया है। उनकी एक साखी इस बात की साक्षी है-- जल में कुंभ कुंभ में जल है, भीतर बाहर पानी । इंटा कुंभ जल जलहि समाना, यह तत कह्यो गियानी ॥ सूर की रचनाएं सांख्य योग एवं वैष्णव तत्रों से प्रभावित हैं। सूर की रचनाओं में सांख्ययोग और वैष्णवतंत्र की छाया है । वल्लभाचार्य की कृतियां शुद्धाद्वैत पर आधृत हैं। हिंदी की अपेक्षा संस्कृत साहित्य में कहीं अधिक रमणीयता व बेधकता है। जायसी के 'वन-वन विरछि न चंदन होइ, तन-तन विरह न उपने सोई' एवं कबीर के लालन की नहीं बोरियां' में वह उत्कृष्टता नहीं आ पाई है जो 'शैले-शैले न माणिक्यं मौक्तिकं न गजे-गजे' में है । हिंदी साहित्य में कृष्ण भक्ति के अंतर्गत राधा की परिकल्पना को सर्वथा नवीन माना जाता है। पर वस्तुतः उसकी उत्प्रेरिका भागवत की गोपी ही है। इसी प्रकार नन्ददास का रुक्मिणी मंगल भी भागवत के रुक्मिणी उद्धार की ही प्रतिच्छाया है। रामचरितमानस के रचयिता तुलसीदास ने एक ही नवीनता की है कि उन्होंने राम को पुरुषोत्तम की अपेक्षा परमब्रह्म के रूप में प्रतिष्ठित कर दिया है। यह भक्तियुग का स्पष्ट प्रभाव है। उनकी इस परिकल्पना की अपेक्षा वाल्मीकि का कथन अधिक व्यावहारिक, मानवीय प्रतीत होता है। तुलसी के 'पार्वतीमंगल', केशव की 'चन्द्रिका' और नन्द की 'विरह मंजरी' के पीछे कालिदास और बाण का ही कवित्व बोल रहा है। भाव, भाषा और शैली की दृष्टि से संस्कृतकवि हिंदी कवियों की अपेक्षा कहीं अधिक आगे हैं । रीतिकाल (ई० १७००-१६००) इसे उत्तरमध्यकाल भी कहा जाता है । इस काल के साहित्यकारों ने श्रृंगार रस को प्रधान बना साहित्यमंदिर को सुसज्जित किया। पर वे कभी कालिदास, हाल, भर्तृहरि और जयदेव की तुलना में नहीं आ सके। स्वयं हिन्दी के कवियों ने उनका उत्कीर्तन किया हैकथा संस्कृत सुनि कछु थोरी। भाषा वांचि चौपई जोरी॥ तुलसी प्रज्ञा Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कालिदास ने मृत्यु जैसे बीभत्स दृश्य के वर्णन में शृंगाररस का जो चमत्कार दिखलाया है वह पाठकों को आश्चर्य में डालनेवाला है । ताडका वध का वर्णन इस संदर्भ में मानवीय है राममन्मथशरेण ताडिता, दुःसहने हृदये निशाचरी । गन्धवद्र धिर चन्दनोक्षिता जीवितेश वसति जगाम सा ॥ रीतिकाल में रस, छन्द और अलंकार का निरूपण करनेवाले अनेक लक्षण ग्रन्थ हैं । पर साहित्य के आधार बिना उनकी परिभाषाएं एवं उदाहरण अपूर्ण हैं । वे काव्य शास्त्रीय और पिंगल शास्त्रीय ग्रन्थों पर आधृत हैं । रीतिकाल नायिका भेद के लिए प्रसिद्ध है। इस विषय के सांगोपांग विवेचन के लिए कवि मतिराम का नाम आदर के साथ लिया जाता है। पर कवि भानुदत्त की रसमंजरी और भरतमुनि का नाट्यशास्त्र इसकी तुलना में बहुत आगे है। भक्तिकाल के साहित्य में नीति के ग्रंथों की भी एक बड़ी शृंखला चली। सतसई, दोहावली, शतक और बावनी साहित्य उसमें प्रमुख है । पर इस विशाल साहित्य में बहुत कम अंश ऐसे हैं, जो लोकोत्तर संस्कृत एवं लौकिक संस्कृत-चाणक्यनीति, शुक्रनीति एवं नीतिशतक आदि से भिन्न हों। भक्तिकालीन साहित्य संस्कृत साहित्य की तुलना में आगे है तो इसी दृष्टि से कि उसने चिंतन की कुछ नई निम्नांकित रेखाएं खींची हैं ० निर्माण ईश्वर में विश्वास । ० बहुदेववाद और अवतारवाद का विरोध । ० जातिवाद एवं वर्णवाद का विरोध । ० रूढ़ियों व आडंबरों का विरोध । आधुनिक काल (ई० १६००......) . भारतेन्दु, प्रसाद, पन्त, दिनकर, निराला, प्रेमचन्द, द्विवेदी और महादेवी वर्मा इस युग की प्रमुख विभूतियां हैं। संस्कृत नाटकों और इस के नाटकों के आदर्शों में बहुत कम परिवर्तन है । अनेक नाटकों में संस्कृत के मंगलाचरण, नांदीपाठ और भरत वाक्य ज्यों के त्यों उद्धृत हैं। संस्कृत नाटकों के मौलिक तत्त्व-सुखवाद, आदर्शवाद और काव्यमयता हिंदी के नाटकों में है। पर इन मूल्यों के स्थिरीकरण का श्रेय संस्कृत नाटकों को ही मिलता है। आधुनिक कवियों ने संस्कृत के वर्णवृत्तों का सफल प्रयोग किया है। हरिऔध का 'प्रिय प्रवास' इस बात का स्पष्ट निदर्शन' है। इसकी भाषा भी संस्कृत प्रधान है। कहीं-कहीं तो 'ही और थी' के अतिरिक्त हिन्दी का कुछ भी नहीं है । सौन्दर्य और संक्षिप्तता का जैसा उत्कृष्ट रूप संस्कृत साहित्य में उभर पाया है, वैसा हिंदी साहित्य में नहीं। 'रूपोद्यान-प्रफुल्ल प्रायकलिका, राकेन्दु बिम्बानना'..........जैसी पदावलियां इसके सुन्दर उदाहरश हैं । इस युग के छायावादी कवियों ने प्रकृति को मानवीय रूप और मानव को प्रकृतिमय रूप प्रदान करने का उपक्रम किया है। पर संस्कृत साहित्य में किया गया मानवीकरण अधिक स्वाभाविक है। शकुन्तला के पतिगृह प्रस्थान पर प्रकृति की शोकातुर अवस्था का जो वर्णन खण्ड १५, अंक ४ (मार्च; ६०) Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कालिदास ने किया है, वह सचमुच आश्चर्यकारी है उद्गीण दर्भ कवला मृगी, परित्यक्ता नर्तना मयूरी। अपसृत पाण्डुपत्रा मुञ्चन्ति अश्रु इव लता ॥ आधुनिक कवियों ने अध्यात्मवाद को छायावाद के नाम से प्रस्तुत किया है। 'मैं तुम्हारी बीन भी हूं, मैं तुम्हारी रागिणी'....... ... ..महादेवी की इन पंक्तियों में अध्यात्म साकार हो बोल रहा है । कवि निराला ने इसी बात को बिल्कुल उलटकर यों कहा है... 'तुम तुंग हिमाचल शृंग और मैं चंचल गति सुरसरिता'। सचमुच उनके द्वारा आत्मा और परमात्मा के भेद की यह कितनी सुन्दर अभिव्यञ्जना है । आधुनिक कवियों ने अभिधा की अपेक्षा व्यञ्जना और लक्षणा का प्रयोग अधिक किया है। पर हमारे प्राचीन संस्कृत कवि भी इस कला में सिद्धहस्त थे। अंगिरस ऋषि से शंकर के साथ अपने संबंध की चर्चा सुन पार्वती की जो मनः स्थिति हुई उसका जिक्र कांतपदावलि में करते हुए कवि ने कहा है एवं वादिनि देवौं पार्वे पितुरघोमुखी। लीला कमल पत्राणि गणयामास पार्वती।। साहित्य की आत्मा उसका अर्थ-गौरव और शरीर पद-लालित्य व अलंकार हैं। इनकी समन्विति में भारवि, दंडी और कालिदास अद्वितीय रूप से सफल रहे हैं। माघकवि के एक ही महाकाव्य शिशुपाल वध में उक्त सभी विशेषताएं प्रकृष्टता के साथ देखी जा सकती हैं। आधुनिक कवि संस्कृत कवियों की अपेक्षा सामाजिक व राष्ट्रीय चेतना के जागरण में आगे हैं । उन्होंने स्वतंत्रता, सुकाल, स्त्रीशिक्षा, छुआछूत-निवारण आदि विषयों के सन्दर्भ में खुलकर लिखा है। इसलिए आत्मबलिदान, कर्त्तव्यपालन और स्वार्थ त्याग का स्वर तेजी से उभरा है। कुछ साहित्यकारों ने सामंतवाद और पूंजीवाद को भी ललकारा है । वे श्रमिकों और कृषकों के पक्षधर बने । उन्होंने सर्वात्मवाद, समन्वयावाद ओर मानवतावाद के आदर्शों की प्रतिष्ठा की। दोनों साहित्यधाराओं के समीक्षात्मक अध्ययन से हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि हिंदी साहित्य में जहां सामयिक मूल्यों की चर्चा अधिक है, वहां संस्कृत साहित्य शाश्वत सत्यों का ज्योतिदीप है । हिंदी साहित्य संस्कृत साहित्य का चिरऋणी है । यदि त्रिभाषा फार्मूला के तहत संस्कृत साहित्य को उपेक्षित किया गया तो यह उस साहित्य की अवमानता नहीं, भारतीय संस्कृति की अवमानना है। क्योंकि हमारी संस्कृति के बीज प्राकृत और संस्कृत जैसी प्राच्य भाषाओं में ही विद्यमान है। तुलसी प्रज्ञा Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महर्षि चरक की अनेकान्त सम्बन्धी अवधारणा आचार्य राजकुमार जैन* भारतवर्ष एक धर्म प्रधान देश है । अतः भारतीय जन-जीवन में आध्यात्मिक, धार्मिक भावना एवं सामाजिक सौहार्दभाव की जड़ें इतनी गहरी जमी हुई हैं कि अनेक वर्षों के आघात-प्रत्याघात भी उनका समूलोच्छेदन नहीं कर पाए । भारतीय चिन्तन धारा ने जहां परहित विवेक की प्रतिष्ठापना की वहां इसने “मैं" और "विश्व" तथा उसके पारस्परिक सम्बन्ध को लेकर उन्मुक्त और गम्भीर मनन किया है। दिव्यद्रष्टा ऋषियों ने ऐहिक चिन्तन से मुक्त होकर आत्म तत्त्व की गवेषणा में अपनी समग्र शक्ति एकाग्र चित्त से लगाई। उन्होंने आत्म साधना की प्रक्रिया का अन्वेषण किया और ज्ञान के आधार पर अलौकिक चक्षुओं द्वारा संसार के परिभ्रमणशील चक्र का अवलोकन कर उसकी यथार्थता से मानव मात्र को अवगत कराया। भारतीय दर्शनशास्त्र एवं आयुर्वेद दोनों ही भारतीय संस्कृति का पोषण एवं संवर्धन करने वाले अभिन्न अंग रहे हैं । भारतीय दर्शनकार ऋषियों ने दर्शनशास्त्र के माध्यम से जहां विश्व की चेतनाभूत आत्मा को जागृत कर उसे निःश्रेयस के पथ पर अग्रसर किया वहां आयुर्वेद ने आत्मा के निवास-स्थान भूत शरीर की स्वास्थ्य रक्षा, आरोग्य एवं अनातुरावस्था के लिए विभिन्न उपायों का निर्देश किया ताकि स्वास्थ एवं अनातुर शरीर के माध्यम से आत्मा अपने चरम लक्ष्य निवृत्ति को प्राप्त कर सके । जिस प्रकार संसार चक्र के रूप में आत्मा और शरीर परस्पर संयुक्त हैं उसी प्रकार शास्त्रीय अध्ययन पद्धति के रूप में दर्शन और आयुर्वेद का पारस्परिक सम्बन्ध प्रारम्भ से ही चला आ सामान्यतः सभी दर्शनों ने न्यूनाधिक रूप में आयुर्वेद और उसके सिद्धान्तों को प्रभावित किया है । क्योंकि आयुर्वेद के संहिता ग्रंथ ऐसे काल की देन हैं जब दर्शनों ने भारत में प्रचलित तत्कालीन समस्त विद्याओं को प्रभावित किया था। अतः आर्षकाल में दर्शन और आयुर्वेद का विकास समान रूपेण होने से तथा दोनों शास्त्रों का समान ज्ञान अजित करने वाले प्रवक्ताओं (ऋषियों) द्वारा इनकी रचना किये जाने से दर्शन तथा दार्शनिक विचारों का प्रर्याप्त प्रभाव आयुर्वेद पर पड़ा है । चरक संहिता, सुश्रुत संहिता एव अष्टांग हृदय आयुर्वेद के महत्त्वपूर्ण ग्रंथ हैं। चरक संहिता के आद्य प्रवक्ता (ग्रंथकर्ता) महर्षि अग्निवेश थे, अतः उनके नाम के आधार पर ग्रंथ का नामकरण "अग्निवेश तंत्र" हुआ। कालान्तर में यह ग्रंथ खण्डित हो गया और परवर्ती आचार्यों द्वारा सम्पूर्ण ग्रंथ * प्रथम तल, १६/६, स्वामी रामतीर्थ नगर, नई दिल्ली खण्ड १५, अंक ४ (मार्च, ६०) ११ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलरूप में उपलब्ध नहीं हुआ । अग्निवेश तंत्र के खंडित अंश (चिकित्सा स्थान के १७वें अध्याय से ३० अध्याय तक, सम्पूर्ण कल्पस्थान के १२ अध्याय तथा सिद्धिस्थान के १२ अध्याय) को आचार्य डल्हण ने परिपूरित किया । कालान्तर में इस ग्रंथ का परिसंस्कार हुआ जिसके परिसंस्कारकर्ता थे आचार्य चरक । इस प्रकार वर्तमान में उपलब्ध चरक संहिता अग्निवेश तंत्र का परिसंस्कारित रूप है । अनेकान्तवाद जैन धर्म का एक महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त है जिसमें पारस्परिक विरोध भाव के समूलोच्छेद की भावना निहित है । वह दुराग्रह एवं अहं भाव से मनुष्य को विरत करता है और उसमें समता दृष्टि उत्पन्न करता है । तत्त्व का अन्वेषण करने वाला व्यक्ति किसी भी बात को सहजता से स्वीकार या अस्वीकार नहीं करता । वह उसे अनेक स्थितियों और विविध सन्दर्भों में बिठाकर उसकी विशेषताओं का उत्खनन करता है । वह वस्तु स्वरूप की गहराई में झांकता है और उसके तल तक जाने का प्रयत्न करता है । प्रत्येक वस्तु या तत्त्व को वह तर्क की कसौटी पर कसता है और उसके परिणाम की प्रतीक्षा करता है। जल्दबाजी में वह न कोई निर्णय करता है और न कोई कदम उठाता है। यही कारण है कि वह संभावनाओं में विश्वास करता है और प्रत्येक संभावना को लेकर वह वस्तुतत्त्व की परीक्षा करता है। तर्क की कसौटी पर खरा उतरने पर ही वह उसे स्वीकार करता है । वह आग्रह अपेक्षा ग्रहण में विश्वास करता है और वस्तु के प्रत्येक पहलू का सूक्ष्म निरीक्षण करता हुआ "ही" तक जाने से पूर्व उस वस्तु के वास्तविक स्वरूप को पहचानने का प्रयत्न करता है । इस वैचारिक उदारता या दुराग्रह के अभाव का दूसरा नाम ""अनेकान्तवाद" है । अनेकान्त में आग्रह के लिए कोई स्थान नहीं है । आग्रह ही दृष्टिकोण को संकुचित या एकपक्षीय बनाता है। किसी भी वस्तु के विषय में आग्रहपूर्वक जब कहा जाता है तो उससे वस्तु स्वरूप का वास्तविक प्रतिपादन नहीं हो पाता । यही कारण है कि वस्तु को जैसा समझा जाता है वह केवल वैसी ही नहीं है, उससे भिन्न कुछ अन्य स्वरूप भी उसका है, जिसे जानना या समझना आवश्यक है । जैसे "देवदत्त अमुक लड़के का पिता है" - जब यह कहा जाता है तो वस्तुतः पुत्र की अपेक्षा से वह पिता है, अतः यह ठीक है । किन्तु वह देवदत्त केवल पिता ही नहीं है, अपितु वह अपने पिता की अपेक्षा से - पुत्र भी है और अपनी बहिन की अपेक्षा से भाई तथा मामा की अपेक्षा से भान्जा भी " है । इस प्रकार वह एक ही देवदत्त अनेक धर्मात्मक है । इसका स्वरूप अथवा वह वस्तु स्थिति अनेकान्त के द्वारा भली-भांति समझी जा सकती है । आयुर्वेद शास्त्र में भी अनेकान्त का आश्रय लिया गया है और उसके आधार पर वस्तु स्वरूप का प्रतिपादन किया गया है, यह अनेक उद्धरणों से सुस्पष्ट है । आयुर्वेद में " जहां अनेकान्त के आधार पर विभिन्न विषयों का प्रतिपादन एवं गंभीर विषयों का विवेचन किया गया है, वहां तन्त्र युक्ति प्रकरण के अन्तर्गत उसका परिगणन कर उसके स्वतन्त्र अस्तित्व को भी स्वीकार किया गया है । आयुर्वेद शास्त्र में कुल ३६ तन्त्र युक्तियां प्रतिपादित की गई हैं, जिसमें अनेकान्त भी एक तन्त्रयुक्ति है । आयुर्वेद शास्त्र तुलसी प्रज्ञा १२ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कारों ने भिन्न-भिन्न प्रकार से अनेकान्त की व्याख्या की है, जो अपने-अपने दृष्टिकोण से उपयुक्त है । सर्वप्रथम आचार्य चक्रपाणि दत्त द्वारा विहित व्याख्या का अनुशीलन .करते हैं जो निम्न प्रकार है : , “अनेकान्तो नाम अन्यतरपक्षानवधारणं यथा--ये ह्यातुराः केवलाद भेषजावृते, . म्रियन्ते न च ते सर्व एव भेषजापपन्ना, समुत्तिष्टेरन् ।" -"चरक संहिता सिद्धिस्थान १२/४३ पर चक्रपाणि टीका अर्थात् दूसरे पक्षों का अनवधारण करना अनेकान्त कहलाता है । जैसे जो रोगी केवल भेषज के बिना मर जाते हैं, वे सभी रोगी भेषज से युक्त होने पर ठीक नहीं होते। यहां पर केवल एक का ही कथन महर्षि द्वारा नहीं किया गया है, अपितु अन्य पक्ष का समर्थन भी किया गया है । जो रोगी पूर्ण चिकित्सा नहीं मिल पाने के कारण मर जाते हैं, वे सभी रोगी पूर्ण चिकित्सा मिलने पर ठीक हो ही जाते हैं, यह आवश्यक नहीं है । अर्थात् उसमें से भी कुछ रोगी पूर्ण चिकित्सा मिलने पर भी मर जाते हैंयह आशय है । यहां पर महर्षि ने अपनी बात कहने के लिए अनेकान्त का आश्रय लिया है। इसी को और अधिक स्पष्ट करते हुए आगे कहा गया है कि सभी व्याधियां उपाय साध्य नहीं होती हैं। जो रोग उपाय (चिकित्सा) से साध्य हैं, वे बिना उपाय (चिकित्सा) के अच्छे नहीं होते। असाध्य व्याधियों के लिए षोडश्कल भेषज (चिकित्सा) का विधान भी नहीं है, क्योंकि विद्वान् और ज्ञान सम्पन्न वैद्य भी मरणोन्मुख रोगियों को अच्छा करने में समर्थ नहीं होते हैं । अनेकान्त को महर्षि सुश्रुत ने कुछ दूसरे ढंग से प्रस्तुत किया है, किन्तु आशय . वही है । जैसे "क्वचित्तथा क्वचिदन्यथेति यः सोऽनेकान्तः । द्रव्यं प्रधान, केचिद्रसं, केचिद्वीय, केचि विपाकमिति।" -सुश्रुत संहिता, उत्तरातन्त्र ६५/२४ अर्थात् कहीं ऐसा और कहीं अन्यथा-इस प्रकार जो कथन किया जाता है वह अनेकान्त है । जैसे-कुछ आचार्य द्रव्य को प्रधान बतलाते हैं, कुछ रस को, कोई वीर्य को प्रधान मानते हैं, तो कोई विपाक को। यहां जो उदाहरण दिया गया है वह समन्वय एवं व्यापक दृष्टिकोण का प्रतिपादक है । आयुर्वेद शास्त्र में सामान्यतः द्रव्य, रस, गुण, वीर्य, विपाक और प्रभाव में द्रव्य को प्रधान माना गया है, किन्तु भिन्न-भिन्न स्थिति में पृथक्-पृथक् रूप से रस, गुण, वीर्य, विपाक और प्रभाव को प्रधान मानने वाले आचार्यों के मतों को भी समादत किया गया है जो अनेकान्त की भावना पर आधारित हैं । इसमें यद्यपि कुछ विरोधाभास प्रतीत होता है, किन्तु वस्तुत: वह विरोध या विरोधाभास न होकर दृष्टिकोण की उदारता और व्यापकता है जो समन्वय मूलक है । खण्ड १५, अंक ४ (मार्च, ६०) Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त के उद्भवकर्ताओं ने यह अच्छी तरह अनुभब किया था कि जीवनतत्व अपने आप में पूर्ण हुए भी वह कई अंशों की अखण्ड समष्टि है । यही स्थिति प्रत्येक वस्तुतत्त्व की भी है । अतः वस्तु को समझने के लिये अंश का समझना भी आवश्यक है । किसी मशीन को पूर्णरूप से समझने के लिए उसके पुों का समर्शना भी जरूरी है। यदि हम अंश को समझने में आनाकानी करते रहे या उसकी उपेक्षा करते रहे तो हम अंशवान् याने वस्तुतत्व को उसके सर्वांगसम्पूर्ण रूप में नहीं समझ सकेंगे । साधारणतया समाज में जो झगड़ा या वाद-विवाद होता है, वह दुराग्रह, हठवादिता और एक पक्ष पर अड़े रहने के कारण होता है। यदि हम सत्य की जिज्ञासा से उसके समस्त पहलुओं को अच्छी तरह देख लें तो कहीं न कहीं सत्य का अंश निकल आयेगा। एक ही वस्तु या विचार को एक तरफ से न देखकर उसे चारों ओर से देख लिया जाये तो फिर किसी को आपत्ति नहीं होगी। इस दृष्टिकोण को ही अनेकान्त वाद या स्याद्वाद कहा गया। आइन्स्टीन का सापेक्षवाद भगवान बुद्ध का विभज्यवाद इसी भूमिका पर खड़ा है। अनेकान्तवाद इन दोनों का व्यापक या विकसित रूप है। महर्षि चरक ने उपर्युक्त तथ्य को सहजता से स्वीकार कर आत्मसात् किया। उन्होंने केवल तंत्रयुक्ति के रूप में ही अनेकान्त को नहीं अपनाया अपितु सिद्धान्त रूप में भी उसका प्रतिपादन किया । तद्विषयक अनेक उद्धरण चरक संहिता में उपलब्ध होते हैं। उन्होंने विभिन्न पक्षों के ऐकान्तिक दुराग्रह की निन्दा करते हुए एक स्थान पर कहा है तथर्षीणां विवदतावाचेदं पुनर्वसुः। नैनं वोचत तत्वं हि दुष्प्राप्यं पक्षसंश्रयात् ॥ वादान् सप्रतिवादान् हि बदन्तो निश्चितानिव । पाक्षान्तं नैव गच्छन्तितिलपीडकवद्गती॥ मुक्त्वेवं वादसंघट्टमध्यात्मनुचिन्त्यताम् । नाविधूते तमः स्कन्धे ज्ञेये ज्ञानं प्रवर्तते । -चरक संहिता, सूत्र स्थान २५।२६-२८ अर्थात् इस प्रकार परस्पर विवाद करते हुए ऋषियों के वचन सुनकर पुनर्वसु ने कहा कि आप लोग ऐसा नहीं कहें। क्योंकि अपने-अपने पक्षों का आश्रय लेकर विवाद करने से तत्व को प्राप्त करना दुष्कर होता है। अर्थात् सिद्धान्त का निर्णय नहीं हो पाता । वाद (उत्तर) और प्रतिवाद (प्रत्युत्तर) को निश्चित सिद्धान्त की तरह कहते हुए किसी एक पक्ष के अन्त तक नहीं पहुंचा जा सकता है । जैसे-तेल पेरने वाला बैल एक निश्चित घेरे में घूमता हुआ जहां से आरम्भ करता है, पुनः वहीं पहुंच जाता है। उसी प्रकार पक्ष का आग्रहपूर्वक आश्रय करने वाला वाद-विवाद करता हुआ अन्य पक्ष के खण्डन और स्वपक्ष के मण्डनपूर्वक पुनः उसी बिंदु पर आ जाता है-जहां से उसने आरम्भ किया था। अतः वाद-विवाद की प्रक्रिया की छोड़कर अध्यात्म (यथार्थ तत्त्व) का चिन्तन करना चाहिए । क्योंकि जब तक अज्ञान का नाश नहीं होता है तब तक ज्ञेय तुलसी प्रज्ञा Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (जानने योग्य) विषय में ज्ञान वहीं होता है । अनेकान्त प्रतिपादन की दृष्टि से पुनर्वसु का उपर्युक्त कथन विशेष महत्त्वपूर्ण है ! एकान्तवादियों के द्वारा स्वरूप प्रतिपादन हेतु किए गए प्रयास की तुलना उन्होंने तेल पेरने वाले मनुष्य से की है, जो निरन्तर एक निश्चित दायरे में घूमता हुआ एक ही बिन्दु पर पुनः आ जाता है और अन्य बातें उसके लिए महत्त्वहीन एवं निःसार होती हैं। पुनर्वसु ने अपने दृष्टिकोण को व्यापक बनाते हुए इस तथ्य का प्रतिपादन किया है कि जब किसी वस्तु या विषय विशेष के अन्वेषण एवं लक्ष्य प्राप्ति हेतु प्रवृत्ति की जाती है तो आग्रहपूर्वक स्वपक्ष या अपनी बात दूसरों पर नहीं लादी जानी चाहिये। यदि ऐसा किया जाता है तो इससे न तो वस्तु स्वरूप की मर्यादा की प्रतीति होना सम्भव है और न ही लक्ष्य प्राप्ति की जा सकती है। एकान्त सदैव मतभेदों को बढ़ाता है, जबकि अनेकान्त उन्हें दूर कर सार्वभौम सत्य का प्रतिपादन करता है । एकान्त एकांगी होता है, अतः इससे वस्तु का एक पक्ष ही उद्भासित होता है और सत्य की पूर्णता उसे आवृत्त नहीं कर पाती है । सत्य की अपूर्णता वस्तु के यथार्थ स्वरूप के प्रतिपादन में बाधक होती है और कई बार उससे भ्रामक बातें ही प्रचारित की जाती है, किन्तु अनेकान्त के द्वारा ऐसा नहीं होता है। यह तिविवाद और असंदिग्ध रूप से कहा जा सकता है कि महत्त्वपूर्ण विषयों के प्रतिपादन में आयुर्वेद-शास्त्र में स्थान-स्थान पर अनेकान्त का आश्रय लिया गया है। जैसे वस्तु स्थिति से अनभिज्ञ कतिपय दुराग्रही एवं एकान्तवादी लोगों का यह दढ़मत है कि विष का प्रयोग सर्वथा जीवन का हरण करता है । तीक्ष्ण विष के प्रयोग से तो मनुष्य का प्राणान्त अवश्यम्भावी है । किन्तु वस्तुस्थिति इससे भिन्न है। इसी तथ्य को जब अनेकान्त के परिप्रेक्ष्य में देखा गया तो महर्षि अग्निवेश को कुछ और ही अनुभव हुआ। उन्होंने तीक्ष्ण विष के विषय में स्वानुभूत पदार्थ का विवेचन इस प्रकार से किया योगावपि विषं तीक्ष्णमुत्तमं भेषजं भवेत् । भेषजं चापि दुर्युक्तं तीक्ष्णं सम्पद्यते विषम् ॥ तस्मान्न भिषजा युक्तं युक्तिबाह येन भेषजम् । धीमता किंचिदादेयं जीवितरोग्यकाक्षिणा॥ -चरक संहिता, सूत्रस्थान १११२६-१२८ अर्थात् विधिपूर्वक सेवन (प्रयोग) करने से तीक्ष्ण विष भी उत्तम औषधि हो जाता है और अविधि पूर्वक प्रयोग की गई श्रेष्ठ औषधि भी तीक्ष्ण विष बन जाती है। इसलिए जीवन और आरोग्य की इच्छा रखने वाले बुद्धिमान् मनुष्य के द्वारा युक्ति बाह्य (युक्ति पूर्वक प्रयोग नहीं करने वाले) वैद्य से कोई भी औषधि नहीं लेनी चाहिये। यहां पर अपेक्षा पूर्वक विष का विषत्व और भेषजत्व प्रतिपादित किया गया है। साथ ही युक्तिपूर्वक प्रयोग की अपेक्षा से औषधि का भेषजत्व और विषत्व बतलाया गया बण्ड १५, अंक ४ (मार्च, ६०) Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है। इस प्रकार का प्रतिपादन अनेकान्त का आश्रय लिये बिना सम्भव नहीं है। क्योंकि युक्ति की अपेक्षा से ही भेषज श्रेष्ठ औषध हो सकती है। यदि युक्ति की अपेक्षा न रखी जाय तो वही भेषज रोगी का प्राण हरण कर सकती है। जैसा कि आजकल प्रायः देखा जाता है कि आधुनिक चिकित्सा विज्ञान (एलोपैथी) के इंजेक्शनों के प्रयोग में बरती गई जरा-सी असावधानी रोगी का प्राणान्त कर देती है । वही इंजेक्शन अच्छी तरह विचार कर प्रयोग किये जाने पर जीवनदायी बन जाता है। इसी प्रकार यदि अनुष्य को संखिया, कुचला, धत्तूर आदि विषवर्गीय किसी द्रव्य का सेवन बिना संस्कार किए ही कराया जाता है तो निश्चय ही वह काल का ग्रास बन सकता है, किन्तु वही विष जब शुद्ध और संस्कारित करके मात्रापूर्वक औषध रूप में प्रयुक्त किया जाता है तो उसके द्वारा अनेक भीषण व्याधियों का नाश किया जाता है । आधुनिक चिकित्सा वैज्ञानिक ' परीक्षणों ने आमवात (गठियावाय) की व्याधि में विधिपूर्वक उचित मात्रा में सर्प विष" का प्रयोग उपयोगी एवं लाभप्रद सिद्ध किया है । इस प्रकार विषत्व की अपेक्षा से वह विष है, किन्तु भेषजत्व की अपेक्षा से वही तीक्ष्ण विष जीवनदायी श्रेष्ठ औषधि हैं। इस प्रकार आयुर्वेद-शास्त्र में ऐसे अनेक प्रकरण एवं उद्धरण विद्यमान हैं जो अनेकान्त का आश्रय लेकर प्रतिपादित किए गए हैं । इससे न केवल उस विषय की दुरुहता की समाप्ति हुई है, अपितु अनेक शंकाओं का अनायास ही निरसन हो गया है। अतः यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि ऐसा करने से आयुर्वेद-शास्त्र के दृष्टिकोण में पर्याप्त व्यापकता आई है और वह पूर्ण उदारतावादी कहलाने का अधिकारी है। जीवन विज्ञान के संदर्भ में मानव-प्रकृति एवं आरोग्य-मूलक सिद्धान्तों का प्रतिपादन आयुर्वेदशास्त्र की अपनी मौलिक विशेषता है। उसमें यदि संकुचित दृष्टिकोण एवं दुराग्रहों का आश्रय लिया जाता तो निश्चय ही आयुर्वेद-शास्त्र की शाश्वतता और लोकोपकारी भावना का लोप हो जाता, किन्तु ऐसा नहीं है । अनेकान्त ने आयुर्वेद को कितना सहिष्णु और व्यापक दृष्टिकोण वाला बनाया है उसका सहज आभास उन स्थलों से मिलता है जहां अन्य ऋषियों के भिन्न दृष्टिकोण-मूलक वचनों को भी समादृत किया गया है। ". 000 सम्यग्दष्टि विज्जारहमारूढो मणोरहपहेसु भमइ जो चेदा। सो जिणणाणपहावी सम्माविट्ठी मुणेदवो ॥ -समयसार जो जीव विद्यारूपी रथ में आरूढ़ होकर मन रूपी रथ के मार्ग पर चलता है वह जिनेश्वर के ज्ञान की प्रभावना करने वाला सम्यग्दृष्टि है। तुलसी प्रज्ञा Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुनर्जन्म-प्राचीन दार्शनिकों की दृष्टि में । कु० कमला जोशी पुनर्जन्म का अर्थ है-मरणोपरान्त चेतना का पुनः नए शरीर, इन्द्रिय, सुख-दुःख इत्यादि को प्राप्त करना। यह अत्यन्त रहस्यमय एवं विवादास्पद विषय है। यदि चेतना पुनः नए शरीरादि को प्राप्त करती है तो मृत्यु क्या है ? भारतीय चिन्तकों ने पुनर्जन्म पर गहन मनन एवं सूक्ष्म विश्लेषणपरक वैचारिक मंथन के निष्कर्षस्वरूप (चार्वाक को छोड़कर) स्वीकार किया कि मृत्योपरान्त चेतना अवश्य रहती है। अतः कह सकते हैं कि लोग जिसे मृत्यु कहते हैं वह चेतना की नहीं देहेन्द्रियादि की होती है । दोनों का वियोग मरण है। चैतन्य (आत्मा) मरणोपरान्त पुनः नवीन शरीर को ग्रहण करता है, जैसे-हम पुराने कपड़ों को छोड़कर नए कपड़े पहनते हैं। प्रस्तुत लेख में पुनर्जन्म के सम्बन्ध में प्रमुख भारतीय, पाश्चात्य दार्शनिकों एवं यथास्थान आधुनिक वैज्ञानिकों के विचारों एवं अनुभूतियों को स्पष्ट करते हुए पुनर्जन्म की प्राचीन धारणामों पर प्रकाश डालने का प्रयास किया गया है। भारतीय अध्यात्म जगत् में पुनर्जन्म, आत्मा की अमरता, कर्मफल की अवश्यभोग्यता, मोक्ष इत्यादि परस्पर सम्बद्ध हैं। बन्धगत होने पर जीव एक देहान्त के उपरान्त कर्मवश फलभोग हेतु दूसरी देह में जाता रहता है। देहान्तर की प्राप्ति करते रहना (मोक्ष तक) ही पुनर्जन्म है । बन्धमुक्त होने तक जीव कर्मफलानुसार एक जन्म में प्राप्त देहादि में सुख-दुःख भोगता है एवं रागद्वेषादि कषाय, क्लेशादि से प्रेरित होकर पुनः कर्म करने से एक देहेन्द्रियादि के नाश के बाद दूसरी योनि, देह, जाति, नाम, वंश, सौभाग्य, दुर्भाग्यादि पाता है।' यह परम्परा चलती रहती है। वर्तमान जीवन से पहले भी अचेतन देहादि में स्थित देही का अस्तित्व था और भविष्य में भी रहेगा। भूत, वर्तमान एवं भविष्य जीवन का अभिप्राय संसारी जीवों के अनेक भवों से है । संहिताओं में भी इस तरह के विचार मिलते हैं कि पापी दूसरे लोक में कष्ट पाता है और पुण्यकर्ता उच्च भौतिक सुख भोगता है। "ऋत" (जीवों को पापपुण्यानुसार कर्मफल देने वाला तत्त्व) इस व्यवस्था का नियामक है। अगले जन्म के अच्छे या बुरे होने के विषय में उपनिषदों का कहना है कि संकल्पपूर्वक किए गए शुभाशुभ कर्मों के आधार पर जीव अच्छे-बुरे जन्म पाता है। इनमें देवयान एवं पितृयान से प्रयाण करने वाले (कर्मबद्ध) जीवों के पुनर्जन्म का उल्लेख भी मिलता है। सत्त्वगुण शोधछात्रा (संस्कृत विभाग), कुमांऊ विश्वविद्यालय, नैनीताल (यू० पी०) खण्ड १५, अंक ४ (मार्च, ६०) Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के आधिक्य से दिव्य लोकों की, रजोगुण की वृद्धि से आसक्तियुक्त मनुष्ययोनि एवं तमोगुण की अधिकता से कीड़े, पशु, वृक्ष, लता एवं तामसी (मूढ़) योनियां प्राप्त होती हैं ।' कर्मानुसार स्वभाव, स्वभावानुरूप संकल्, कषाय, कार्मण, तेजसादि शरीर बनते हैं । ये शरीर विनाशी एवं परिवर्तनशील हैं। गीता के ये कथन पुनर्जन्म में आस्था के प्रतीक हैं । प्रायः सभी आस्तिक दर्शन पुनर्जन्म में विश्वास करते हैं। बौद्ध एवं जैन (भारतीय नास्तिक दर्शन) भी पुनर्जन्म के समर्थक हैं। क्षणिकवाद को मानते हुए भी बुद्ध कर्मफल एवं पुनर्जन्म में पूर्ण विश्वास रखते थे। एक बार पर में कांटा चूभा तो इसका कारण बताते हुए वे अपने शिष्यों से बोले-इस जन्म से इक्यानवें (६१) जन्म पूर्व मेरी शक्ति (शस्त्र विशेष) से एक पुरुष की हत्या हुई थी, उसी कर्म के प.लवश मेरा पैर बिंधा है। यह उदाहरण बौद्धों की पुनर्जन्म में दृढ़ निष्ठा व्यक्त करता है । क्षणवाद एवं पुनर्जन्म के सिद्धांत में प्रतीत होने वाले विरोध को दूर करने के लिए बौद्ध दीपशिखा का उदाहरण देते हैं कि एक दीप रात भर जलता है किन्तु प्रथम पहर की लौ और दूसरे पहर की लो अलग-अलग होती है। यही नहीं, प्रथम क्षण और दूसरे क्षण की लौ भी भिन्न है। तेलरूप प्रवाह के कारण जलने वाली लौ प्रतिक्षण नई पैदा हो रही है किन्तु बाहर से एक ही वर्तिका प्रतीत होती है। अलग-अलग लो नहीं दिखायी देती। इसी तरह प्रत्येक वस्तु के अस्तित्व के विषय में एक अवस्था उत्पन्न होती है, एक लय होती है । एक के लय होते ही दूसरी के उठ जाने से प्रवाह की दो अवस्थाओं में एक क्षण का भी अन्तर नहीं रहता है । इसीलिए पुनर्जन्म के समय न वही जीव रहता है न दूसरा ही हो जाता है । एक जन्म के अन्त में विज्ञान के लय होते ही दूसरे जन्म का प्रथम विज्ञान उठ खड़ा होता है। भवचक्र से बौद्धों ने क्षणिकवाद को स्वीकार करते हुए भी जीव का (अस्तित्व की इच्छापर्यन्त) पुनर्जन्म माना है।' जैन दार्शनिकों के अनुसार कर्मवश आत्मा पुनर्जन्म के चक्कर में पड़ा रहता है। जीवन जैसा इस भव में है वैसा ही परभव में होना आवश्यक नहीं है। भगवान् महावीर का दृढ़ विचार है कि कार्य का कारणानुरूप होना एकान्तिक नियम नहीं । वैसे भी कारणानुरूप कार्य के होने पर भी भवान्तर में कर्मवैचित्र्यवश विचित्रता आ जाती है । गीता एवं योगादि में भी कर्म वैचित्र्य स्वीकृत है ।१२ जैनाचार्यों के अनुसार कुछ महात्मा पूर्वभव को जातिस्मरणज्ञान से जान सकते हैं । १३ कुछ नास्तिक पुनर्जन्म की सत्ता में विश्वास नहीं करते। उनका कहना है कि पुनर्जन्म में विश्वास करके अदृष्ट की कल्पना में दृष्ट फल का परिहार करना मूर्खता है। अप्रत्यक्ष के संदिग्ध होने से दिवेकी को प्रत्यक्ष सुख की प्राप्ति हेतु ही प्रयत्न करना चाहिए। ऐसे विचारों को दार्शनिक दृष्टि से न देखकर जीवन-व्यवहर की दृष्टि से ही देखें तो भी ये उचित नहीं लगते । पाप-भय के अभाव में व्यक्ति हिंसा, असत्य, शोषणादि कुकृत्यों से एक दूसरे को पीड़ित कर सुखार्जन करने लगेंगे । क्योंकि डर किस बात का ? अगला जन्म तो है नहीं जो कर्मफल भोगने पड़ेंगे। इससे (परस्पर शोषण, नैतिक मूल्यों एवं मानसिक गिरावट से) संसार में कोई सुखी नहीं रह सकता। परलोक के संदिग्ध होने पर भी सज्जनों के लिए असत् आचरण त्याज्य ही है । इसलिए परलोक तुलसी प्रज्ञा Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ को न मानने में कोई हानि नहीं है । परलोक के होने पर असद् आचारी नास्तिक का दांव उलटा पड़ जाएगा अर्थात् उसकी ही हानि होगी। कुछ पाश्चात्य दार्शनिकों (प्लेटो, सुकरात, अरस्तू आदि) ने भी भारतीय परंपरा के समान पुनर्जन्म का सिद्धांत स्वीकार किया है। प्लेटो के विचारानुसार संसार के सभी पदार्थ द्वन्द्वात्मक हैं । अतः जीवन के बाद मृत्यु और मृत्यु के बाद जीवन अनिवार्य है।" हीगल जैसे कुछ विद्वान् पुनर्जन्म को नहीं भी मानते हैं। किन्तु यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि पाश्चात्य दर्शन परम्परा में भी चैतन्य की नित्यता एवं पुनर्जन्म सम्बन्धी विचार पाए जाते हैं । दार्शनिकों के अतिरिक्त आधुनिक वैज्ञानिक भी चेतना की उत्पत्ति के कारण को न खोज पाने से पुनर्जन्म के विचार को मान्यता देते हैं । चैतन्य संयोग से पैदा होता है या अचानक आकाश से टपक पड़ता है—इन प्रश्नों का समाधान न होने पर वैज्ञानिकों ने विचार किया कि संसार में हम ऐसे अजनबी और अचानक आ पड़ने वाले तो नहीं हैं जैसा हमने पहले सोचा था । आर्थर एच. काम्पटन लिखते हैं- "एक निर्णय जो बताता है कि......."मृत्यु के बाद आत्मा की संभावना है। ज्योति लकड़ी से भिन्न है.... लकड़ी तो थोड़ी देर उसे प्रकट करने में इंधन का काम करती है।"१८ चेतना शरीरादि से मिन्न है किन्तु शरीरादि से इसकी अभिव्यक्ति होती है। कुछ वैज्ञानिक मानने लगे हैं कि जैसे मनुष्य दो दिन के बीच की रात में स्वप्न देखता है उसी तरह चेतना, मृत्यु एवं पुनर्जन्म के बीच विश्व में घूमती रहती है। इस प्रकार चैतन्य के नित्यत्व एवं पुनर्जन्म सम्बन्धी विचारों में एकत्व है। उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि भारतीय विचारकों, पाश्चात्य दार्शनिकों एवं वैज्ञानिकों ने पुनर्जन्म के विचार को स्वीकार किया है । भारतीय आध्यात्मवाद का यह अत्यन्त प्राचीन सिद्धांत है जो भारतीय दर्शन की प्रायः सभी धाराओं में मान्य है। इस सिद्धांत की जड़ें वेदों एवं उपनिषदों में हैं । प्राचीन मनीषियों के अनुसार त्रिकालज्ञ ऋषि एवं निष्कपट और सरल चित्त व्यक्ति अपने पूर्वजन्मों, कर्मों एवं भावी घटनाओं को जान सकते हैं । ध्यातव्य है कि भारतीय आध्यात्मवादियों ने पुनर्जन्म के सिद्धांत को दृढ़ता से मानने के साथ-साथ इससे छुटकारा पाने के उपाय भी बताए हैं । पुनर्जन्म उस जीव का होता है जो कषाय एवं कर्मों के संस्कारों से बंधा रहता है, जो इन से छूट जाता है उसका पुनर्जन्म नहीं होता। वस्तुतः पुनर्जन्म के सिद्धांत की स्वीकृति व्यक्ति को दूसरों का अहित करने एवं अशुभ कार्यों से रोकती है। पुनर्जन्म को मानने या न मानने से पुनर्जन्म के नियम की कोई हानि नहीं होती, यदि वह है तो भी, नहीं है तो भी, किन्तु इतना अवश्य है कि पाप-भय एवं मानवकल्याण की दृष्टि से यह सिद्धांत अत्यन्त उपयोगी है । इस जीवन के बाद भी जीवन मिलेगा । जीवन के प्रति आशावादी एवं रचनात्मक दृष्टिकोण और मृत्यु के प्रति भय न होकर एक तटस्थता का-सा भाव उत्पन्न हो जाता है। अत्यन्त प्राचीनकाल से इस विषय पर चिन्तन-मनन एवं खोजें चल रही हैं किन्तु विश्वासखण्ड १५, अंक ४ (मार्च, ६०) १६ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अविश्वास की कशमकश एवं रहस्यमयता के कारण निर्विवाद रूप से किसी अन्तिम निर्णायक मत पर नहीं पहुंचा जा सका है। परामनोविज्ञान एवं पूर्वजन्म के स्मरण से सम्बद्ध अनेक घटनाओं के मिलते रहने से दर्शन जगत् की पुनर्जन्म सम्बन्धी धारणाओं को बल मिलता है। सन्दर्भ: १. (क) गीता, २११९,२०,२४,३०, बृहद्रव्यसंग्रह, गाथा-२,३,१४, वाक्यपदीय-११ (ख) कूटस्थ नित्या परमार्थसस्येति यावत् । --योगवार्तिक, पृ० १४ (ग) शङ्करकृत ऐतरेय भाष्य, २१, छादोग्योपनिषद्-८।२२ (घ) न्याय, वैशेषिक दर्शनों एवं कुछ मीमांसकों के अनुसार मोक्ष दशा में आत्मा चैतन्य रहित हो जाता है किन्तु जात्मतत्त्व नित्य है । ये चेतना को आत्मा का आगन्तुक गुण मानते हैं। २. वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गह्वाति नरोऽपराणि । तथाशरीराणि विहाय जीर्णान्यानि संयाति नवानि देही ॥-गीता, २१२२ ३. (क) पुण्यो वे पुण्येन कर्मणा भवति पापेनेति । ---बृहदारण्यकोपनिषद्, ३।२।१३ (ख) योनिमन्ये प्रपद्यन्ते शरीरत्वाय देहिनः। स्थाणुमन्येऽनुसंयन्ति यथा कर्म यथा श्रुतम् ॥--कठोपनिषद्, २०५७ (ग) तत्वार्थसूत्र, ६॥३,४,११-१४,८।१०-२६, भगवतीसूत्र-१२१५ ४. बृहदारण्यकोपनिषद्, ४।१०।५, छान्दोग्योपनिषद-५॥१०,४१४ ५. (क) यदा सत्त्वे प्रबुद्धे तु प्रलयं याति देहभृत् । .. तदोत्तमविदां लोकान्मलान्प्रतिपद्यते ॥ --गीता, १४।१४ (ख) रजसि प्रलयं गत्वा कर्मसंगिषु जायते । तदा प्रलीनस्तमसि मूढ़योनिषु जायते ।। -वही, १४१५ ६. वही, २११६,१८ ७. (क) न्यायसूत्र-१।१।१६,४।१।१०, वैशेषिक सूत्र-६।२।१५, योगसूत्र-२।१२,३६ (ख) दृष्टादृष्टजन्मनि वर्तमान भविष्यति। --योगवातिक, पृ० १६० ८. इत एकनवती कल्पे शक्त्या में पुरुषो हतः।। तेन कर्मविपाकेन पादे विद्धोऽस्मि भिक्षवः ।।---षड्दर्शनसमुच्चय टीका ६. (a) Buddhism, राईस डेविड्स, पृ० ६१, मिलिन्दप्रश्न-पृ० ६८ (b) When a person dies his character lives after him and by its force brings into existence a being who though possessing a different form is entirely influenced by it. And this process will go on until the person in question has completely overcome his thirst for being. ----Outlines of Indian Philosophy, Hiriyanna, P. 153 (शेषांश पृष्ठ २६ पर) तुलसी प्रज्ञा २० Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन संस्कृत स्तोत्र साहित्य : उद्भव एवं विकास [ श्रीमती संगीता मेहता * ( खण्ड १५, अंक २ से आगे ) मानतुंगाचार्य विक्रम की सातवीं शती में मानतुंगाचार्य ने भक्तामर स्तोत्र' की रचना की । आचार्य रूद्रदेव त्रिपाठी के अनुसार मानतुंगाचार्य ने आठवीं शती में भक्तामर स्तोत्र' "नमिउण्थोत्तं" एवं "भत्तिभर थोत्तं" नामक स्तोत्रों की रचना की । इनका भक्तामर स्तोत्र श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों सम्प्रदायों में समान रूप से समादृत है । यह स्तोत्र सर्वाधिक लोकप्रिय हुआ । परिणामस्वरूप इस पर १६ टीकाएं तथा २२ से अधिक पादपूर्तिमूलक काव्यों की सृष्टि हुई। इसके प्रत्येक पद्य के आद्य या अंतिम चरण को लेकर समस्यापूर्ति - आत्मक स्तोत्र काव्य लिखे जाते रहे हैं । इस स्तोत्र में ४८ पद्य हैं, प्रत्येक पद्य 'काव्यत्व रहने के कारण ४८ काव्य कहे जाते हैं । इस स्तोत्र में भगवान् आदिनाथ की स्तुति वर्णित है | मानतुंगाचार्य की रचनाओं में भक्ति के साथ ही मंत्र, तंत्र, यंत्र, आभाणक तथा अन्यान्य शास्त्रीय विषयों का मंथन भी हुआ और इस प्रकार स्तोत्र साहित्य में एक नये प्रयोग का सूत्रपात हो गया। जैन संस्कृत स्तोत्र परम्परा के विकास में लोकप्रिय स्तोत्रकार मानतुंगाचार्य का योगदान अत्यन्त स्पृहणीय है । हरिभद्रसूरि आठवीं शती में हरिभद्रसूरि ने एक लघु किन्तु महत्वपूर्ण "संसारदावानल स्तुति " की "भाषासमक' पद्धति में रचना की ।' अभिनव पद्धति में स्तोत्र रचना की दृष्टि से हरिभद्रसूरि का योगदान उल्लेखनीय है । धनंजय ईसवी सन् की आठवीं शती में का प्रणयन किया । इस स्तोत्र में ४० और उसमें कर्त्ता ने अपना नाम सूचित किया है । बप्पभट्टि महाकवि धनंजय ने "विषापहार" नामक स्तोत्र इन्द्रवज्रा पद्य हैं, अंतिम पद्य का छंद भिन्न है भट्टि का समय सन् ७४३ - ८३८ बताया जाता है ।" इन्होंने सरस्वतीस्तोत्र, वीरस्तव, शान्तिस्तोत्र और चतुर्विंशति- जिन स्तुति' की रचना की है । सरस्वती स्तोत्र में १३ पद्य और वीरस्तव में ११ पद्य हैं । चतुर्विंशतिका में ह६ पद्य हैं और यमकालंकार * सहायक प्राध्यापक (संस्कृत), शासकीय महाविद्यालय, महू । खण्ड १५, अंक ४ (मार्च, ९० ) २१ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में स्तोत्र का गुम्फन किया है। दो चरणों की समान आवृत्ति वाले यमक का प्रयोग यहां सर्वप्रथम हुआ है । इनके पिता का नाम बप्प तथा माता का नाम भट्टि था । मातापिता के संयुक्त नाम के आधार पर इनका नाम बप्पभट्टि रखा गया । जैन संस्कृत स्तोत्र परम्परा को विकसित करने में बप्पभट्टि की भूमिका प्रेरणादायक रही है । विद्यानन्द ईसा की नवम शती ( सन् ७८३-८४ ) * १० विद्यानन्द "श्रीपुरपार्श्वनाथस्तोत्र' का प्रणयन किया । इसमें ३० पद्य हैं । स्रग्धरा, शार्दूलविक्रीडित्, शिखरिणी और मन्दाक्रान्ता छन्दों का प्रयोग किया गया है । दार्शनिक स्तोत्र होते हुए भी इसमें काव्यतत्त्व की प्रधानता विद्यमान है । कवि ने आराध्य की प्रशंसा में रूपक अलंकार की सफल योजना की है । " कवि ने भक्ति-निष्ठा के साथ दार्शनिकों द्वारा अभिमत आप्त का निरसन किया है । प्रवाहपूर्ण भाषा एवं उदात्त शैली का प्रयोग आचार्य विद्यानन्द की अन्यतम विशेषता है । जिनसेन द्वितीय नवम शताब्दी में जिनसेन द्वितीय ने जिनसहस्त्रनाम स्तोत्र का प्रणयन किया । इस स्तोत्र के आरम्भ में ३४ श्लोकों में नाना विशेषणों द्वारा तीर्थंकर का स्तवन किया गया है । तत्पश्चात् दश शतकों में सब मिलाकर जिनेन्द्र के १००८ नाम गिनाये हैं । इन नामों में ब्रह्मा, शिव, विष्णु, बुद्ध, इन्द्र, बृहस्पति आदि नाम भी आये हैं । सुदीर्घस्तोत्र - कार के रूप में जिनसेन द्वितीय अविस्मरणीय आचार्य हैं । जम्बूमुनि ग्यारहवीं शती" में जम्बूमुनि ने "जिनशतक" नामक स्तोत्र की रचना की । कवि ने इसमें स्रग्धरा छंद का प्रयोग तथा शब्दालंकारों का सुन्दर समावेश किया है । शिवनाग ग्यारहवीं शती" में ही शिवनाग ने “पार्श्वनाथमहास्तव", "धरणेन्द्रोरगस्तव " अथवा "मन्त्रस्तव" की रचना कर जैन संस्कृत स्तोत्र परम्परा के विकास में अपना योगदान किया है । शोभनमुनि ११६ ग्यारहवीं शताब्दी में शोभनमुनि ने “चतुर्विंशति जिनस्तुति का प्रणयन किया । शोभनमुनि ने इसमें यमकमय स्तुतिपरम्परा को आगे बढ़ाया । इस कृति पर ८ टीकाकृतियों का प्रणयन हुआ । कवि धनपाल ने भी इस पर टीका की है । याकोबी ने जर्मन में तथा प्रो० कपाड़िया ने गुजराती और अंग्रेजी में इस स्तोत्र का अनुवाद किया ।" एकाधिक भाषा में अनुवाद तथा टीकाएं इस स्तोत्र की लोकप्रियता के प्रमाण हैं । कुमुदचन्द्र ग्यारहवीं शती में कुमुदचन्द्र ने "कल्याणमन्दिर"" नामक स्तोत्र की रचना की । इसमें ४४ पद्य हैं तथा भगवान् पार्श्वनाथ की स्तुति की गई है। इसमें आराध्य की २२ तुलसी प्रज्ञा Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उदारता तथा स्तोता की विनयशीलता का वर्णन अत्यन्त सुन्दरता से किया है" । ग्यारहवीं शताब्दी में ही वादिराजसूरि ने "ज्ञानलोचन स्तोत्र" और "एकीभाव स्तोत्र" २१ की रचना की है । विनयहंसगणि का “जिनस्तोत्र कोश" तथा भूपाल कवि कृत " जिनचतुर्विंशतिका १२ के नाम भी उल्लेखनीय हैं । ११२२ इस प्रकार जैन संस्कृत स्तोत्र परम्परा के विकास में ११ वीं शताब्दी विशेष रूप से उल्लेखनीय है । इस शती में जम्बू जैन, शिवनाग, शोभनमुनि कुमुदचन्द्र तथा वादिराजसूरि जैसे उत्कृष्ट स्तोत्रकार हुए जिन्होंने अपनी स्तुतिपरक रचनाओं के द्वारा जैन स्तोत्र परम्परा के विकास में महनीय योगदान किया । २३ आचार्य हेमचन्द्र ने बारहवीं शताब्दी वि० सं० १९४५ - १२२६ ( तदनुसार ईस्वी सन् १०८६-११७३) में अन्ययोग व्यवच्छेदद्वात्रिंशिका और अयोगव्यवच्छेदद्वात्रिंशिका महावीर स्तोत्र, "वीतराग स्तोत्र" तथा महादेव नामक पांच स्तोत्रों का प्रणयन किया । आचार्य हेमचन्द्र ने पूर्वाचार्यों की स्तोत्र रचनापद्धति का अनुवर्तन किया तथा अपने अगाध ज्ञान का आश्रय लेकर अनेक महत्त्वपूर्ण तत्त्वों का समावेश भी किया । आचार्य हेमचन्द्र के शिष्य रामचन्द्र ने बारहवीं शताब्दी (सन् १९०६ - ११७६ ई० ) आदिदेवस्तव, मुनिसुव्रतदेवस्तव, नेभिस्तव और जिनस्तोत्र ४: ' तथा अनेक द्वात्रिंशिकाओं का प्रणयन किया । रामचन्द्रसूरि ने द्वात्रिंशिकाओं का विरोध उपमा, दृष्टान्त, अर्थान्तरन्यास, व्यतिरेक, अपन्हुति आदि अर्थालंकारों से किया । कवि असग मन्त्री आह्लाद, मन्त्री पद्म तथा धर्मघोषसूरि ने इसी धारा को और विकसित किया। बारहवीं शताब्दी में ही जिनवल्लभसूरि" ने भवादिवारणं, अजितशान्तिस्तव, पंचकल्याणस्तव, सर्वजिन पंचकल्याणकस्तव, पार्श्वनाथ स्तोत्र, सरस्वती स्तोत्र, सर्वजिन स्तोत्र, ऋषभजिनस्तुति एवं महावीरस्वामी स्तोत्र आदि का प्रणयन कर संस्कृत स्तोत्र साहित्य को समृद्ध बनाने में अपना महनीय योगदान किया है । तेरहवीं शताब्दी में पं० आशाधर ने सिद्धगुणस्तोत्र का प्रभसूरि ( १२५० - १३२५ ई) ने ४६ पद्यमय सिद्धान्तागमस्तव १७ पद्यमय पार्श्वस्तव ९, २१ पद्यमय गौतमस्तोत्र, २५ पद्यमय वीरस्तव, १६ पद्यमय वीरकल्याणस्तव ९, ११ पद्यमय ऋषभजिनस्तव, २९ पद्यमय अजितजिनस्तवन" तथा २७ पद्यमय वीरस्तवन" आदि का प्रणयन किया । देवी पद्मावती की कृपा से इन्हें प्रखरवंदुष्य प्राप्त था । वे प्रतिदिन नवीन स्तोत्र की रचना कर के ही आहार ग्रहण करते थे । यही कारण है कि जिनप्रभसूरि ने विभिन्न छंदों, यमक, श्लेषादि अलंकार तथा विविध छंदों के विभिन्न प्रयोगों से युक्त ७०० स्तोत्रों का निर्माण किया ।" इस प्रकार जिनप्रभसूरि ने संस्कृत साहित्य में अनेक स्तोत्रों की रचना कर कीर्तिमान स्थापित किया । 1 पद्मनन्दि भट्टारक ने वीतरागस्तोत्र, शान्तिजिनस्तोत्र, रावणपार्श्वनाथ स्तोत्र और जीरापल्ली पार्श्वनाथस्तवन का प्रणयन किया । जयतिलक ने सन् १३४६-१४१३ में हारावली चित्र स्तोत्र " तथा कुलमण्डनसूरि, जयतिलकसूरि, जयकीर्तिसूरि, साधुराजगणि आदि आचार्यों ने चित्रकाव्यमय स्तवों का प्रणयन किया । सहस्त्रावधानी मुनिसुन्दरसूरि खण्ड १५, अंक ४ (मार्च, १० ) प्रणयन किया । २७ जिन | २३ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ने विक्रम संवत् १४८५ में° जिनस्तोत्ररत्नकोश, सोमतिलक के वीरस्तोत्र और चतुर्विंशतिजिनस्तवन, २ वस्तुपाल का अम्बिकास्तवन, ३ एवं धर्मशेखर गणि ने चतुर्विशति जिनस्तव" का प्रणयन किया। सोमसुन्दरसूरि के युष्मच्छब्दनवस्तवी और अस्मच्छब्दनवस्तवी में १८ स्तव निर्मित हैं । रत्नशेखरसूरि ने त्रिसंधान स्तोत्र की रचना की। ईसा की सोलहवीं शताब्दी के अन्त में समयसुन्दरगणि ने तीन स्तवों की रचना की।४५ इसी समय में उपाध्याय श्रीमद्यशोविजय जी ने श्री आदिजिनस्तोत्र, श्री पार्श्वजिनस्तोत्रम्, श्री शङ्खेश्वर पार्श्वजिन स्तोत्रम्, श्री महावीर प्रभु स्तोत्रम्, वीरस्तवः, समाधिसाम्यद्वात्रिंशिका, स्तुतिगीत६ आदि अनेक स्तोत्रों की रचना कर स्तोत्र साहित्य को समृद्ध बनाया। "संस्कृत प्राचीन स्तवन सन्दोह में अनिदिष्ट लेखक नामवाले ऋषभस्तवन, अजित स्तवन, सम्भव स्तवन, अभिनन्दन स्तवन, साधारणजिन स्तवन, श्री विंशतिजिनस्तवन, सप्तति जिनस्तवन, त्रिकालजिनस्तवन, शाश्वताशाश्वतजिनस्तवन, शत्रुजयस्तवन, गिरिनार स्तवन, अष्टापदस्तवन आदि शताधिक स्तोत्र मुद्रित हैं। इसी प्रकार जैन स्तोत्र समुच्चय और जैन स्तोत्र सन्दोह में भी अनेक स्तोत्र संगहित हैं। बीसवीं शताब्दी में भागेन्दु कृत "महावीराष्टक एवं मंगलाष्टक'४९ आदि स्तोत्र उल्लेखनीय हैं। इस प्रकार द्वितीय शताब्दी से लेकर बीसवीं शताब्दी तक जैन कवियों ने संस्कृत में स्तोत्रों का प्रणयन कर स्तोत्र परम्परा को अक्षुण्ण बनाये रखा तथा सहस्त्राधिक स्तोत्रों की रचना कर जैन संस्कृत स्तोत्र परम्परा के विकास में अपना अभिनन्दनीय योगदान दिया। संदर्भ : १. संस्कृत काव्य के विकास में जैन कवियों का योगदान-डा० नेमीचंद शास्त्री, पृ०६८ २. काव्य माला सत्वमगुच्छक, पं० दुर्गाप्रसाद और वासुदेव लक्ष्मण सम्पादित, निर्णय सागर प्रेस, बम्बई सन् १९२६, पृ० १-१०।। ३. "स्तोत्रावली" भूमिका, भू० ले० डा० रूद्रदेव त्रिपाठी, पृ० ५२ । ४. वही ५. काव्यमाला सप्तमगुच्छक, निर्णयसागर प्रेस, बम्बई १९२६, पृ० २२-२६ । ६. संस्कृत काव्य के विकास में जैन कवियों का योगदान-डॉ० नेमिचंद शास्त्री, पृ०६८ ७. स्तोत्ररत्नाकर, प्रथम भाग, यशोविजय संस्कृत पाठशाला, म्हेसाणा, सन्-१९१३ तथा पृ० ६८ आगमोदय समिति, बम्बई १९२६ ई० । ८. आगमोदय समिति, बम्बई, विक्रम संवत् १९८२ । ६. आप्त परीक्षा, वीर सेवा मंदिर, सरसावा, १९४७ ई० प्रस्तावना । १०. श्री पुरपार्श्वनाथ स्तोत्र-वीर सेवा मंदिर, सरसावा १९४६ ई० । ११. शरण्यं नाथाऽर्हन भव भव भवारण्य विगति----- च्युतानामस्माकं निखर-वरकारूण्य-निलयः। २४ तुलसी प्रज्ञा Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यतो गण्यात्पुण्याच्चिरतरमपेक्ष्यं तव पदं। परिप्राप्ता भक्त्यावचमचल-लक्ष्मीगृहमिदम् ।। श्रीपुरपार्श्वनाथस्तोत्र, श्लोक-२६ १२. श्री पुरपार्श्वनाथ स्तोत्र, श्लोक सं०६। १३. जिनसहस्त्रनाम स्तोत्र, पं० हीरालाल कृत हिन्दी अनुवाद, भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, सन-१९५४ १४. "स्तोत्रावली" भूमिका, भू० ले० डॉ० रूद्रदेव त्रिपाठी, पृ० ५२ १५. वही १६. काव्यमाला सप्तम गुच्छक-निर्णयसागर प्रेस, बम्बई, सन्-१९२६, पृ० १३२-१६० । १७ ‘स्तोत्रावली" भूमिका, भू० ले० डा० रूद्रदेव त्रिपाठी, पृ० ५२,५३ । १८. काव्यमाला सप्तम गुच्छक, पृ० १०। १६. कल्याणमंदिरस्तोत्र, श्लोक नं० ३६,४१ । २०. माणिकचन्द दिगम्बर जैन ग्रन्थमाला, संख्या २१, पृ० १२४ २१. काव्यमाला, सप्तमगुच्छक, नि० प्रे० ब० १९२६ ई०, पृ० १७-२२ २२. वही, पृ० २६-३० २३. काव्यमाला सप्तमगुच्छक, नि० प्रे० ब० १९२६ ई०, पृ० १०२-१०७ । २४. संस्कृत काव्य के विकास में जैन कवियों का योगदान-डा० नेमिचंद्र शास्त्री,पु०७०। २५. "स्तोत्रावली'' भूमिका, भू० ले० डा० रुद्रदेव त्रिपाठी, पृ० ५३ । २६. जैन स्तोत्र सन्दोह, भाग-१। २७. संस्कृत काव्य के विकास में जैन कवियों का योगदान-डा० नेमिचन्द शास्त्री,पु० ७० एवं जैन साहित्य का बृहद इतिहास, भाग-६, पृ० ५६८ । २८. काव्यमाला सप्तमगुच्छक, पृ० ८६ २६. वही, पृ० १०७। ३०. वही, पृ० ११० । ३१. वही, पृ० ११२। ३२. वही, पृ० ११६ । ३३. जैन स्तोत्र समुच्चय : मुनि चतुरविजय द्वारा सम्पादित, निर्णयसागर प्रेस, बम्बई, वि० सं० १९८४, पृ० २६ ३४. वही, पृ० २८ ३५. वही, पृ० ६२ ३६. "स्तोत्रावली" भूमिका, लेखक-डा० रुद्रदेव त्रिपाठी, पृ० ५३ । ३७. अनेकान्त, वर्ष-६, किरण-७, सन्-१९४८ में मुद्रित । ३८. अनेकान्त, वर्ष-१, किरण-८-१०, पृ० ५२२ । ३६. "स्तोत्रावली" भूमिका, भूमिका लेखक, डा० रूद्रदेव त्रिपाठी, पृ० ५३ ४०. वही ४१. जैन स्तोत्र समुच्चय, नि० प्र० बम्बई, वि० सं० १९८४, पृ० ७६ ४२. वही, पृ० १६४ । ४३. वही, पृ० १४३ ४४. वही, पृ० १२१ । ४५. "स्तोत्रावली" भूमिका, भू० ले० डा० रूद्रदेव त्रिपाठी, पृ० ५४ । ४६. "स्तोत्रावली", स्तोत्रकार यशोविजयजी महाराज, पृ० १-२४६ । खण्ड १५, अंक ४ (मार्च, १०) २५ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७. संपा० मुनि विशालविजय, प्र० विजय धर्म सूरि जैन ग्रंथमाला, छोटा सराफा, उज्जैन वि० सं० १९६५। __ प्रस्तावना में संपादक ने लिखा है-"एतेषु च स्तवनेषु क्वापि कर्तृनाम्नो निर्देशात् प्रतौ च लेखकसमस्यानुल्लेखात् "केन कदा स्तवनानीमानि विरचितानि" इति सम्यग विनिर्णतुं न शक्येत, तथापि एतानि स्तवनानि विक्रमीयपंचदशाधिक पन्चदशशतकात् (१५१५) प्राचीनानीत्यमुमीयते, प्र० पृ० ८ । ४८. जैन स्तोत्र सन्दोह, भाग-१-२, सम्पादक-मुनि चतुरविजय, प्रकाशक-साराभाई मणिलाल नवाब, प्रथम भाग । ४६. अखिल भारतीय दिगम्बर जैन शास्त्री परिषद्, बड़ौत (मेरठ), सन्-१९८३ । 000 (शेषांश पृष्ठ २० का) १०. प्रवचनसार, अंग्रेजी प्रस्तावना, ए० एन० उपाध्याय, पृ० ६६, पंचाध्यायी, २१५ ११. विशेषावश्यक भाष्य, गाथा-१७७३-८ १२. गीता-४११७, योगसूत्र २।१२ भाष्य सहित द्रष्टव्य १३. जनों के पुनर्जन्म सम्बन्धी विचारों हेतु द्रष्टव्य-श्रीमद्राजचन्द्र ग्रन्थ (राजचन्द्र के विचार) १४. लभ्यमाने फले दृष्टे नादृष्टफलकल्पना ।—सर्वदर्शनसंग्रह (जैमिनी दर्शन) १५. संदिग्धेऽपि परे लोके त्याज्यमेवाशुभं बुधैः । यदि नास्ति ततः किं स्यादस्ति चेन्नास्तिको हतः ॥-आचारांग सूत्र, टीका १६. द्रष्टव्य-पाश्चात्य दर्शनों का इतिहास । 17. We are not so much strangers or intruders as we at first thought.--Mysterious Universe, P. 138 18. A Conclusion which suggests ... 'the possibility of conscious ness after death....the flame is distinct from the log of wood which serves it temporality as fuel. —जैन दर्शन और आधुनिक विज्ञान-नगराज, पृ० १०१ में उद्धृत 19. The soul of man passes between death and rebirth in this world as he passes through dreams in the night between day and day. -Sir Oliver Lodge, वही, पृ० १०१ में उद्धृत 000 २५ तुलसी प्रज्ञा Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ का माहात्म्य - अभय प्रकाश जैन* योग की उपयोगिता जैसे-जैसे बढ़ती जा रही है, वैसे-वैसे इस विषय में जिज्ञासाएं भी बढ़ती जा रही हैं । योग की चर्चा में रहस्य और चमत्कार का सवोपरि महत्त्व है। हम शरीरधारी हैं। हमारे दो शरीर स्थूल और सूक्ष्म हैं। हमारा अस्थि-चर्ममय शरीर स्थूल है । तैजस और कर्म ये दो सूक्ष्म शरीर हैं। हमारी सक्रियता, तेजस्विता और पाचन का मूल तैजस शरीर है। वह स्थूल शरीर के भीतर रहकर दीप्ति या तेज उत्पन्न करता रहता है । साधना के द्वारा उसकी शक्ति विकसित की जाती है । यहां १०८ की संख्या के चमत्कार पर मंथन का प्रयास है । हिन्दू शास्त्रों में १०८ की संख्या का बड़ा महत्त्व है। पूजापाठ व जप के लिए १०८ दानों की माला पवित्र मानी जाती है । भक्त, साधक, तंत्र-साधक, उपासक, पौराणिक, मुनि, उपाध्याय, तेजोलेश्या वाले महात्मा इस संख्या को मंगलमय मानते हैं। विरक्त साधु, मुनि, योगी, ' ब्रह्मचारी, तेजोलेश्या वाले महापुरुष व्यक्तियों का चित्त नम्र और ऋजु हो जाता है, उनके मन में कोई कुतूहल नहीं होता। उनकी इन्द्रियां सहज शांत हो जाती हैं । वे धर्म का अतिक्रमण नहीं करते', इसलिए इनको भी १०८ से विभूषित और संबोधित .. किया जाता है। अन्य स्थानों पर भी इस संख्या को शुभ चिह्न व रहस्य संज्ञा के रूप में काम में लाया जाता है। उपनिषदों की संख्या भी १०८ ही मानी गई है जिसके नाम मुक्तिकोपनिषद् में दिए गए हैं। इस प्रकार १०८ की संख्या में अवश्य कोई गूढ़ संकेत छिपा हुआ है। भारतीय धर्मग्रन्थों का सबसे प्रथम और सबका सारभूत शब्द ब्रह्म है । उपनिषद्कारों ने उसकी महिमा गायी है। यही जानने योग्य तत्त्व है, इसे जान लेने के पश्चात सब कुछ ज्ञात हो जाता है । यह शब्द निराकार परमात्मा का बोधक है। यही उपास्य है, यही उच्चार्य है । १०८ की संख्या उसी की संज्ञा मानकर माला के मनके की संख्या : भी १०८ नियत की गयी है । अतः इस अभिप्रेत संख्या का रहस्य अन्वेषणीय है । सबसे पहले ब्रह्म शब्द को ही लीजिये। इसमें चार वर्ण है ब र ह तथा म । वर्णमाला दो भागों में विभक्त है-स्वर और व्यंजन । स्वर सोलह हैं, अतः प्रत्येक को १,२,३,४ से लेकर सोलह तक संख्या दीजिए । व्यंजन छत्तीस हैं, उन्हें छत्तीस तक संख्या दीजिए। इस प्रकार ब्रह्म का आदि अक्षर 'ब' व्यंजन है-'क' से 'ब' २३वां अक्षर, 'र', * एन १४, चेतकपुरी, ग्वालियर-४७४००६ बण्ड १५, अंक ४ (मार्च, ६०) Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७वा अक्षर, 'ह' ३३वां अक्षर, 'म' २५वां अक्षर है । यों चारों वर्णों की संख्या २३+ २७-३३+२५ १०८ है । ब्रह्म में अष्टोत्तर शतत्व भरा है । इसीलिए १०८ की संख्या परम् पवित्र मानी गई है । इस संसार की उत्पत्ति ब्रह्म से हुई है, एतदर्थ संसार की संख्या देखें तो स + अं स - आ + र = ३२+१५+३२÷२÷२७ १०८ होते हैं । विशिष्टाद्वैत में सीता और राम भिन्न होते हुए भी अभिन्न हैं, इन दोनों शब्दों का प्रयोग होने से 'पूर्ण' बनते हैं । अतः दोनो शब्दों के संयोग से ही १०८ की संख्या पूर्ण होती है। राम में ३ अक्षर हैं -र + आम । र 'क' से २० वां, आ + 'अ' से दूसरा तथा 'म' २५वां अक्षर है अतः इनकी संज्या २७+२+२५ ५४ हुई । सीता में चार अक्षर हैं स स 'क' से ३२वां, ई 'अ' से चौथा, त १३वां तथा आ 'अ' से दूसरा अक्षर है अतः ३२+४+१६+२ ५४ हुई, दोनों मिलाकर १०८ की संख्या पूर्ण हुई 1 त तथा आ । ***** इसी प्रकार हरगौरी, राधिका-कृष्ण की संख्या आधी-आधी ५४ / ५४ मिलकर पूर्ण होती है । वैज्ञानिक दृष्टिकोण से संयुक्त नामोच्चार सीताराम, राधिका - कृष्ण का विशेष महत्त्व है । इस पूर्णत्व के कारण नाम स्मरण से हमारे मन, प्राण में एक अपूर्व शक्ति का संचार होता है । योगशास्त्र के अनुसार योगियों ने रात और दिन में हमारे श्वासों की संख्या २१६०० की मानी है, जिसमें १०८ श्वास सुषुम्ना के हैं जिसे योगी साधकर सिद्धि प्राप्त करता है । = सामान्यतः आठ प्रहर ( २४ घंटे) की श्वासोश्वास की क्रिया में १२ संधिकाल आते हैं । इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना में श्वास की क्रिया सतत होती है । इस क्रिया के बीच संधिकाल के समय १० श्वास सुषुम्ना के माने गए हैं । एतदर्थ १२० श्वासें हुयीं । किन्तु संधिकाल के प्रारम्भ की और अन्त की श्वास आधी-आधी होती है । इसी तरह संधिकाल में से एक श्वास छोड़ दी जाती है । इस प्रकार शेष १०८ पूर्ण श्वास सुषुम्ना नाड़ी में प्रवेश करती हैं । यह १०८ श्वास' ब्रह्मदशा की मानी जाती है । योगीजन इसे सिद्ध करते हैं । जिन्होंने यह सिद्धि प्राप्त की, उनके नाम के आगे १०८ लिखा जाता है । ८ उस योगसूत्र के अनुसार हमारे देहस्थान में ८ चक्र हैं- मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपूर, नाभि, अनाहत, हृदय, आज्ञा और शून्य ( सहजावस्था ) । इसी साधना द्वारा कुण्डलिनीशक्ति जागृत होती है । जैन भगवती सूत्र १४ । ६६ । ७० में भी इसका उल्लेख परम साक्षात्कार- प्राप्ति एवं शिवस्वरूप बनने के लिए मनुष्य को चाहिए कि वह आयुष्य के शतं शरद ( १०० वर्ष ) तक आराधना करके उसी अवस्था को प्राप्त करे । १०० + १०८ – इस तरह यह संख्या आध्यात्मिकता की परिचायक है । २८ जीव इस जगत् पर जब जन्म धारण करता है तो वह जन्मकुण्डली में १२ राशिस्थान के 8 ग्रहों से आवृत रहता है । इस तरह १२ +8 १०८ हुए। इस प्रकार १०८ के सम्मुख फलित करने पर योग ८ होता है । अथवा १० +८ = - १८ हुए । १८ में १+ ६ ही हुए । ६ संख्या बड़ी रहस्यमयी है । इसे पूर्णांक कहा है । इस अंक से बड़ा ८= तुलसी प्रज्ञा Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एवं शाश्वत कोई अंक नहीं है। यह 8 अंक का किसी भी संख्या से गुणन करने पर आयी संख्या का योग ६ ही आएगा। यह अंक अपने में स्वतः परिपूर्ण, पूर्णता की सीमा सूचक पूर्णमिदम् है ।" जैनदर्शन में ८ कर्म माने गए हैं- ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयुष्य, नाम, गोत्र और अन्तराय । इन अष्टकर्मों का जीवात्मा अपनी १०० साल की आयु मर्यादा में क्षय करके "केवलज्ञान" मोक्ष की प्राप्ति करे ।" इसीलिए १०० + ८ १०८ मंत्र परमेष्ठि के गुणों का स्मरण करने का शास्त्र विधान है । मुसलमान जब कोई गलती करता है तो तोबा तोबा कहता है और अपने खुदा से क्षमा मांगता है, तोबा में चार वर्ण हैं त ओ ब आ । इन चारों वर्णों को वर्णमाला के क्रमांक १६+१३+२३+२ - ५४ हुए । इसी तरह तोबा, तोबा की संख्या १०८ १०८ का अपना एक चमत्कार है, यह एक प्राणधारा है । हमारे शरीर में अनेक उप-प्राणधाराएं हैं, इन्द्रियों की अपनी प्राणधारा है, मन, वाणी और शरीर की अपनी प्राणधारा है, श्वास-प्रश्वास की और जीवनशक्ति की भी स्वतंत्र प्राणधाराएं हैं। हमारे चैतन्य का जिस प्रवृत्ति के साथ योग हो जाता है वही प्राणधारा बन जाती है । सन्दर्भ : १. उत्तरज्झयणाणि ३४।२७, २८ नयावत्ती अवचले, अमाई अकुऊहूले । विणीयविणए दन्ते जोगवं उवहाणवं ।। जिधम्भे दम्मे, वज्जभीरू हिएसए । एयजोगसमाउत्तो, तेउलेसं तु परिणमे ॥ २. मुक्तिकोपनिषद्, १२७ ३. भगवई १५६६-७० तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते ममं वंदइ नमसइ, वंदित्ता, नमसिता, एवं वयासी कण्ण भंते । संखित्त विउलतेययलेस्से भवति ? तए णं अहं गोयमा ! गोसालं मंखलिपुत्तं एवं वयासीजेयं गोसाला ! एगाए सणहाए कुम्मासपिडयाए एगेण य वियडासएणं छट्ठणं अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं उड्ढं बाहाओ पगिज्झिय । सूराभिमूहे आयावणभूमिए आयावेमाणे विहरइ । से णं अंतो छण्हं मासाणं संखित्त विजलतेयलेस्से भवइ । ४. अंकज्योतिष, गोपेशकुमार ओझा, पृ० ३४ ५. मोक्षमार्गप्रकाशक, लेखक -- पं. टोडरमल ३२/४४ 100 खण्ड १५, अंक ४, (मार्च, ६० ) २६ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कोहो पीइं पणासेइ. 0 प्रो० कल्याणमल लोढ़ा जैन धम में क्रोध एक कषाय है। चार कषायों में--क्रोध, मान, माया और लोभ में क्रोध की सर्वप्रथम गणना की गयी है। आस्रव के पांच द्वारों में कषाय चतुर्थ है। पांच द्वार हैं-मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग । 'कषति इति कषायः'—जो आत्मा को कसे और उसके गुणों का घात करे वह कषाय है। 'कर्षति इति कषाय' ---जो संसार रूपी कृषि को बढ़ाए-जन्म-मरण, नाना दुःखों का वर्धन करेजो आत्मा को बंधनों में जकड़ कर रखे--- वही कषाय है । कषाय आत्मा का आंतरिक . कालुष्य है। 'कषाय वेदनीयस्योदयादात्मनः कालुष्य क्रोधादिरूपमुत्पद्यमानं' कषाया; मात्मानं हिनस्ति'-- यही कषाय है । कर्म के उदय से होने वाली कलुषता कषाय कहलाती है क्योंकि वह आत्मा के स्व-भावित स्वरूप को कस देती है--क्रोध, मान, माया, लोभ के पंक में धंस कर जीव अपने स्वभाव से विस्मृत होकर वि-भाव (विकृत भाव) में लिप्त हो जाता है, जहां केवल एषणाएं हैं-अनवरत अतृप्ति, स्पर्धा और भोग प्रवृत्ति के साथ अधिकार-लिप्सा और आत्म प्रवंचना है। जीवन एक भुलभुलैया बन जाता है, जिसमें प्रवेश के द्वार तो अनेक हैं पर बाहर आने के अत्यन्त दुष्कर द्वार हैं । जैन धर्म इसी से कषायों की निकृति पर बल देता है-जैन धर्म ही क्यों प्रत्येक धर्म और अध्यात्म भी। जिन जीवों के कषाय नष्ट हो चुके हैं, जो वीतराग हैं उनकी सभी क्रियाएं ईर्यापथिकी हैं और जो क्रियाएं सांसारिक बन्धन को और कसती हैं वे सांपरायिक आस्रव हैं । तत्त्वार्थ सूत्र के अनुसार ‘सकषाया कषाययोः साम्परा-यिकेर्यापधिकोः (६-५) कषाय चारित्रिक मोहनीय कर्म बंध के हेतु हैं--वे आत्मा को उद्वेलित करते हैं। चारित्र मोहनीय कर्म के दो भेद हैं—कषाय और नोकषाय। इसके भी अनेक भेदप्रभेद हैं । उत्तराध्ययन के अनुसार कषाय के प्रत्याख्यान से वीतराग भाव उत्पन्न होता है---और जीव सुख-दुःख में सम हो जाता है (२६-३७)। कषाय से उन्मत्त व्यक्ति पित्त से उन्मत्त व्यक्ति से भी अधिक तीव्र होता है'क्रोध पित्त निज छाती जारा।' जिस प्रकार नाव के छिद्र को रोक देने से नाव डूब नहीं सकती उसी प्रकार कषायों के अवरुद्ध होने से सभी आस्रव अवरुद्ध हो जाते हैं। कषाय पुनर्जन्म वृक्ष की जड़ों को सींचते हैं। ३० तुलसी प्रज्ञा ... Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रोध कषाय में सर्वप्रथम है । शान्तात्मा से पृथग्भूत क्षमा रहित भाव क्रोध है । एक अन्य परिभाषा के अनुसार 'स्वपरोपघात निरनु ग्रहाहिकोर्य परिणामो अमर्षः क्रोधः' अपने या पर के उपघात या अनुपकार आदि करने का क्रूर परिणाम क्रोध है । द्रव्य संग्रह टीका में —— 'अभ्यन्तरे परमोपशम मूर्ति केवल ज्ञानाद्यनन्तगुणस्वभाव पर मात्मस्वरूप क्षोभ कारकाः । बहिविषयेत्मे परेषां संबन्धित्वेन क्रूरत्वाद्यावेश' । अर्थात् अन्तरंग में उपमग मूर्ति केवल ज्ञानादि अनन्त गुण स्वभाव परमात्म रूप में क्षोभ उत्पन्न करने वाले तथा बाह्य विषय में अन्य पदार्थों के संबंध से क्रूरता आवेश रूप क्रोध है | साहित्य दर्पण में इस विश्वनाथ कविराज ने इसे रौद्ररस का स्थायी भाव माना है । 1 प्रसिद्ध आलोचक रामचन्द्र शुक्ल ने इसे शान्ति भंग करने वाला मनोविकार गिनते हुए बैर को क्रोध का अचार या मुरब्बा गिना है। इस प्रकार क्रोध की परिभाषा - पक्वावस्था क्रोध, क्रूरता, बैर का हेतु है । क्रोध के पर्याय हैं- कोप, अमर्ष, रोष, 1 हर प्रतिघरुट, कृत, भीम, रूपा, हेल, हृणि, तपुषी, मृत्यु, चूणि, एह आदि । क्रोध एक वत्सर भी है, जिसके आने पर सकल जगत् आकुल हो जाता है एवं प्राणियों में क्रोध भाव की बहुलता रहती है। यह रजोगुणात्मक और तमोगुणात्मक है। पौराणिक मान्यता के अनुसार इसकी उत्पति ब्रह्मा के भ्रू से हुई है । क्रोध का अनुभव समस्त शरीर में कम्पन, रक्त कमल के सदृश दोनों नेत्रों का आरक्त होना, भूभंग से भी भयंकर आकृति पैदा करता है क्रोधेनेत धून कुन्तल भटः सर्वांग जोवे पशुः किन्चित् कोकनदस्य सदृशे नेत्रे स्वयं रज्यतः ॥ वत्ते कान्तिमिदं च वक्त्रमन्यो मंगेन भिन्नं भ्रुवो: : । चन्द्रस्यद्ट लाञ्छनस्य कमलस्योद्भ्रान्त भृंगस्य च ॥ जैन मान्यता के अनुसार भी क्रोध में हृदय दाह, अंग कम्प, नेत्र रक्तता और इंद्रियों की अपटुता उसके प्रभाव हैं । भौंह चढ़ाने के कारण जिसके ललाट में तीन बली पड़ती है, शरीर में संताप होता है, कांपने लगता है - वह क्रोध सब अनर्थ की जड़ है । आधुनिक मनोविज्ञान में जेम्स लेंज का सिद्धान्त भी क्रोध के इन अनुभावों का समर्थन करता है । भारतीय चिंतन धारा में क्रोध पर विशेष विचार हुआ है। शायद ही कोई ऐसा आप्त ग्रंथ हो, जिसने इस मनोविकार या कषाय की विवेचना नहीं की । अनेक काव्य-ग्रंथों में क्रोध की मीमांसा की गयी है । जैन धर्म व तत्त्व चिंतन में तो कवाय में सर्वप्रथम इसे परिगणित किया है। इस पर विचार करने के पूर्व हम भारतीय वाङ्मय में उपलब्ध क्रोध सम्बन्धी कुछ अभिमत देखें । काम के सदृश ही क्रोध से पराभूत होने पर विवेक और संयम नष्ट हो जाता है। वह भी नरक का एक द्वार है । वाल्मीकि रामायण में स्पष्ट उल्लेख है— क्रोध से भर जाने पर कौन पाप नहीं करता । मनुष्य गुरुजनों की भी हत्या कर खण्ड १५, अंक ४ (मार्च, ६० ) ३१ Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सकता है । क्रोधी साधु पुरुषों पर भी कटुवचनों द्वारा आक्षेप करता है । क्रोध सबसे घातक शत्रु है-क्रोधः शत्रुः शरीरस्ये मनुष्याणां द्विजोत्तम -- क्रोध मुनियों और यतियों के संचित पुण्य व साधना का क्षरण कर लेता है। क्रोधालु व्यक्ति धर्म विहीन होते हैं--उन्हें अभीष्ट गति प्राप्त नहीं होती (महाभारत-आदिपर्व ४२.८) । __ श्रीमद्भगवद् गीता में श्रीकृष्ण का स्पष्ट कथन है--'काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भवः'- रजोगुण क्रियाशील है-इसी से रजोगुण समुद्भव कहा है। काम और क्रोध में अधिक अन्तर नहीं 'यः कामः स क्रोध: य क्रोध: सकामः' । आधुनिक मनोविज्ञान भी इस मत का अनुमोदन करता है । क्रोध को महापापात्मा कहा है क्योंकि क्रोध में ज्ञान आवृत्त होता है और व्यक्ति विवेक और संयमहीन हो जाता है। श्रीगीता में पुनः श्रीकृष्ण कहते हैं--संगात् संजायते काम कामात्क्रोधोऽभिजायते-'काम से क्रोध और क्रोधाद्भवति संमोह-तत्पश्चात् स्मृति विभ्रम और बुद्धि-नाश'। इस प्ररार क्रोध विवेक और स्मृति को नष्ट कर देता है। श्रीगीता में अनेक स्थलों पर श्रीकृष्ण ने काम-क्रोध को वर्जनीय गिना है। वह नरक का द्वार है । महर्षि व्यास के अनुसार क्रोध न करने वाला व्यक्ति सौ वर्षों तक यज्ञ करने वाले से भी श्रेष्ठ है। (महाभारत आदिपर्व, ७६-६) महात्मा विदुर धृतराष्ट्र से कहते हैं--- अव्याधिज कटुकं शीर्षरोगि पापानुबन्धं परुषं तीक्ष्णमुष्णम् । सता पेयं यन्न पिबन्त्यसन्तो मन्यु महाराज पिव प्रशाम्य ॥ महाराज ! जो रोग । उत्पन्न, कटु, सिर-शूल पैदा करने वाला, पाप से सम्बद्ध, कठोर, तीक्ष्ण और गरम है, जिसका सज्जन पान करते हैं और जिसे दुर्जन नहीं पी सकते, उस क्रोध का पान कर आप शांत हो, क्योंकि 'कामश्चराजन् क्रोधश्च तो प्रज्ञानं विलुम्पत:'--काम व क्रोध ज्ञान को नष्ट कर देते हैं। विदुर कहते हैं क्रोध लक्ष्मी और अभिमान--- सर्वस्व का नाश कर देता है । अपना मंगल चाहने वाला व्यक्ति सर्वप्रथम क्रोध रूपी अज्ञान नष्ट करता है। सूर्य रात्रि के अन्धकार को विच्छिन्न किए बिना उदित नहीं होता--लोक-मर्यादा व व्यक्तिहित दोनों दृष्टियों से क्रोध गर्हणीय है। महाभारत में अनेक स्थलों पर महर्षि व्यास ने क्रोध को महाशत्रु गिना है----यथा आदिपर्व-७६-६, ४२-३, वनपर्व २०७-३२। महर्षि व्यास ने तो यहां तक कह दिया कि देवता उसे ही ब्राह्मण समझते हैं जिसने क्रोध और मोह त्याग दिया। (वनपर्व, २०६-२३) ___ संस्कृत के कवियों ने अपने महाकाव्यों में यथा-अवसर क्रोध और क्रोधी की भर्त्सना की है। अबन्ध्य कोपस्य विहन्तुरापदो भवन्ति वश्याः स्वयमेव देहिनः । अमर्षशून्येन जनस्य जन्तुमा न जात हार्देन न विद्विषादरः । (किरातार्जुनीय, २-३३) उत्तररामचरित में भवभूति का भी यही मत है। ३२ तुलसी प्रज्ञा Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्साह वीर पुरुष का भूषण है पर क्रोध के अभिभूत हो कर्तव्यच्युत होकर वह कदाचार करना प्रारम्भ कर देता है । प्रलाप में उसके कथन में न संगति रहती है और न औचित्य । क्रोध रूपी अज्ञान को नष्ट करना सर्वाधिक आवश्यक है। जैन धर्म में क्रोध को प्रथम कषाय गिना है। वीर प्रभु ने सर्वदा क्रोध के शमन पर बल दिया 'लम्हा अति विज्जो नो पडि संजलिज्जा सित्ति बेमि।' विद्वान् पुरुष क्रोध से आत्मा को संज्वलित न करे । भगवान् महावीर का आदेश अक्को सेज परो भिक्खं, न तेसि पडि संजले । सरिसो होइ बालाणं, तम्हा मिक्ल न संजले । यदि कोई भिक्षु को अपशब्द कहे तो भी वह क्रोध न करे । क्रोधालु व्यक्ति अज्ञानी होता है । आक्रोश में भी संज्वलित न हो। 'रखेज्ज कोई'-क्रोध से अपनी रक्षा करेवही धर्म श्रद्धा मार्ग है । देवेन्द्र नमिराजर्षि से कहते हैं-'अहो ते निज्जिओ कोहोआश्चर्य है कि तुमने क्रोध को जीत लिया। प्रवचन में भाषा समिति में भी कहा है : क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, भय, वाचालता व विकथा के प्रति सतत उपयोग युग्म रहे । क्रोध विजय से जीव शांति को प्राप्त होता है। क्रोध वेदनीय कर्म का बन्ध नहीं करता । पूर्वबद्ध कर्मों की निर्जरा प्राप्त होती है । क्रोधादि के परिणाम आत्मा को कुगति में ले जाते हैं। क्रोध चार प्रकार का होता है- अनंतानुबन्धी (अनंत), अप्रत्याख्यान (कषाय विरति से अवरोध के कारण), प्रत्याख्यान (सर्व विरति का अवरोध करने वाला) और संज्वलन (चरित्र का अवरोध करने वाला)। ठाणं में पुनः चार प्रकार का आयोग-निवर्तित (स्थिति को जानने वाला), अनायोग निवर्तित (स्थिति को न जानने वाला), उपशांत (क्रोध की अनुदयावस्था), अनुपशांत (क्रोध की उदयावस्था ४-८८) बताया गया है। क्रोध १८ दोषों में तृतीय दोष है-सांसारिक वासना का अभाव कषाय का क्षय करता है-केशीकुमार के प्रश्न पर गणधर गौतम कहते हैं-'कसाया अग्गिणोवृत्ता सुय-सील-तवो जलं'-क्रोध रूपी कषाय को बुझाने की अग्नि श्रुत, शील, तप रूपी जल है । यही नहीं, प्रभु तो यहां तक कहते हैं कि क्रोधी को शिक्षा प्राप्त नहीं होती। चौदह प्रकार से आचरण करने वाला संयत मुनि भी अविनीत है, यदि वह बार-बार क्रोध करता है और लम्बी अवधि तक उसे बनाए रखता है । महावीर स्वामी कहते हैं कि क्रोध विजय से जीव शांति प्राप्त करता है। क्रोध मनुष्य के पारस्परिक प्रेम और सौमनस्य को समाप्त करता है—'कोहो पीइं पणासेइ' । वह आत्मस्थ दोष है—बैर का मूल, घृणा का उपधान । क्रोध के अनेक कारणों का भी आगमों में उल्लेख है। उसकी उत्पत्ति क्षेत्र, शरीर, वस्तु और उपाधि से होती है-क्षेत्र अर्थात् भूमि की अपवित्रता, शरीर अर्थात् कुरूप, अंग-दोष, वास्तुगृह से और उपाधि का अर्थ है उपकरणों के नष्ट होने से । अन्य प्रकार से उसके दस हेतु हैं---मनोज्ञ का अपहरण, उसके अतीत व खण्ड १५, अंक ४ (मार्च, ६०) Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्तमान और भविष्य की आशंका, एवं अमनोज्ञ का उपहृत, उसके अतीत, वर्तमान व भविष्य की आशंका, आचार्य उपाध्याय के मिथ्यावर्तन का भय आदि । भगवान् बुद्ध ने तीन प्रकार के मनुष्यों का उल्लेख किया है— एक वे है, जिनका क्रोध प्रस्तर पर उत्कीर्ण रेखा की भांति दीर्घकाल तक रहता है । दूसरे वे हैं जिनका क्रोध अल्प पृथ्वी पर खिची रेखा के समान अल्प- कालीन होता है और तृतीय प्रकार के वे हैं जिनका क्रोध जल पर खिश्री रेखा के सदृश होता है-वह अपनी प्रसन्नता नहीं खोता, समभाव रखता है— इस प्रकार 'मद् ध्यायति तद् भवति' (अंगुत्तर निकाय भाग-१) । भगवान् महावीर ने क्रोध कषाय का वर्णन ही नहीं किया वरन् उसके उपशमन की भी विधि बतायी है । हम आगे देखेंगे कि आधुनिक मनोविज्ञान की अवधारणाओं से क्रोध का यह निरूपण और उपचार मिलता-जुलता है । महावीर कहते हैं कोहादि रागभावक्खय पहुदि-भावणाए णिग्गहणं । पायच्चित्तं मणिवं णियगुचिन्ता य णिच्छयदो । क्रोध आदि भावों के उपशम की भावना करना तथा निज गुणों का चिन्तन करना निश्चय से प्रायश्चित्त तप है, इसे ही आधुनिक मनोविज्ञान में अन्तर्निरीक्षण ( इन्ट्रोस्पेक्शन ) कहा है । 'अन्तर्निरीक्षण' व्यक्ति मानसिक उद्वेग व असंतुलन को नष्ट कर देता है । यदि क्रोधित व्यक्ति अन्तर्निरीक्षण करे, तो उसका आवेश उद्वेग शीघ्र ही समाप्त हो जाएगा और वह पुनः स्वस्थ होगा । आत्मचिन्तन के साथ-साथ शील और सत्य भावना भी क्रोध का क्षय करती है । दशवैकालिक (८-३८) के अनुसार 'उवसमेण' हणे कोहं' — क्रोध का हनन शान्ति से होता है । संयम और विनय से शुभ भावनाओं के द्वारा व्यक्ति क्रोध के मनोविकार से मुक्त होता है— (द्रष्टव्यभगवती आराधना - १४०६ - ७ - ८ ) । इस प्रकार तप, ज्ञान, विनय और इन्द्रिय-दमन क्रोध के उपशमन के साधन हैं । भाषा समिति के अन्तर्गत कहा गया है कि क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, भय, बाचालता व विकथा के प्रति सतत उपयोगयुक्त रहना अभीष्ट है । इसी प्रकार वही प्रशान्तचित्त है, जिसने क्रोध को अत्यन्त अल्प किया है। महावीर स्वामी कहते हैं— क्रोध पर ही क्रोध करो, क्रोध के अतिरिक्त और किसी पर क्रोध मत करो । क्रोध के शमन के लिए अध्यात्म और स्वाध्याय आवश्यक है । अपने चित्त को अन्तर्मुखी कर शास्त्र का अवलम्बन ले अन्तःकरण शुद्ध करना क्रोध पर विजय पाना है । आचार्य हरिभद्र कहते हैं जिस प्रकार जल वस्त्र की कलुषता नष्ट कर देता है, उसी प्रकार शास्त्र भी मनुष्य के अन्तःकरण में स्थित काम क्रोधादि कालुष्य का प्रक्षालन करता है । क्रोध का हनन क्षमा होता है । क्षमा ही क्रोध का उपचार है । क्रोध की क्षमा से, मान की मार्दव से, माया की आर्जव से और लोभ की संतोष से विजय होती है । उत्तम क्षमा धर्म के दस लक्षणों में प्रथम है -- ' उत्तमरवममद्द - वज्जव' । भयंकर से भयंकर उपसर्ग पर भी जो क्रोध नहीं करता है, वही 'तस्स खमा ३४ तुलसी प्रज्ञा Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णिम्मला होदि' । जैन धर्मावलम्बियों का यह प्रथम कर्तव्य है कि वे समस्त जीवों से क्षमा याचना करें और उन्हें क्षमा भी करें। सभी प्राणियों के प्रति समभाव का यह प्रथम उपकरण है, जिसमें किसी से भी बैर भाव नहीं। यह संकल्प वस्तुतः क्षमा, मैत्री और अप्रमाद का ही संकल्प है। क्रोध का कारण द्वेष है-'दोसे दुविहे पण्णत्ते तं जहां कोहे य माणेय' । द्वेष समाप्त करो, क्रोध स्वतः नष्ट हो जाएगा। (ठाणं-२-३-२) शान्त सुधारस में भी 'क्रोध क्षान्त्या मार्दवे नाभिमान'-कहा है। क्षमा मनुष्य का भूषण है । क्षमा मानसिक शांति का महत् और अचूक अस्त्र है । सभी तत्त्व-चिन्तकों ने क्षमा को मनुष्य की अप्रतिम शक्ति गिना । 'क्षमते आत्मो परिस्थितिनां जीवानां अपराधय' । पृथ्वी का एक नाम क्षमा है । दुर्गा को भी 'दुर्गा-शिवा क्षमा' कहा गया है, 'क्षमा तु श्रीमुखे कार्यायोग पट्टोतरीयका' । क्षमा केवल वाणी से नहीं वरन् अन्तर्मन से होती है और वही सार्थक है। भगवान महावीर उत्तराध्ययन सूत्र की २६ वीं गाथा में कहते हैं- 'खन्तिएणं' परीसहे जिणइ'-क्षमा से समस्त परीषहों पर विजय प्राप्त होती है। इसी में गाथा २२-४५ में कहा गया है कि क्रोधादि कषायों का पूर्ण निग्रह इन्द्रियों को वश में करने से मात्र के अनाचार से निवृत्त होना ही श्रामण्य है। राजमती का रथनेमि से यह उद्बोधन प्राणि लिए सत्य है। भावपाहुड़ में वीर और धीर पुरुष का यही गुण बताया गया है, जिन्होंने चमकते हुए क्षमा खङ्ग से उद्दण्ड कषाय रूपी योद्धाओं पर विजय प्राप्त करली है। ___पांचों इन्द्रियों का दमन करके क्रोधादि से निवृत्त होने पर यमराज के क्रोध का कोई कारण शेष नहीं रहता। जैन शास्त्रों में उत्तम क्षमा (धर्म के दस लक्षणों में मुख्य) के लिए कहा गया है कि क्रोध के उत्पन्न होने पर भी जो रंच मात्र भी क्रोध न करे-उसे उत्तम क्षमा धर्म होता है। प्रत्येक स्थिति में परम समरसी भाव स्थिति में रहना ही उत्तम क्षमा है । जैन धर्म उत्तम क्षमा को सर्वाधिक महत्त्व देता है क्योंकि एक ओर यह अहिंसा व्रत का अचूक साधन है ---सर्वात्म मैत्री भाव का-दूसरी ओर यह वीतराग भाव उदय का भी । उपवास करके तपस्या करने वाले निस्सन्देह महान् हैं पर उनका स्थान उनके अनन्तर है जो अपनी निन्दा, भर्त्सना और उपकार करने वाले को क्षमा कर देते हैं। क्षमा न तो दौर्बल्य है और न पलायन । वह मनुष्य की मानसिक शुचिता और सदाचारिता का प्रमाण है। 'सत्यपि सामर्थ्य अपकार सहनं क्षमा'-सामर्थ्य रहते हुए भी जो अपकार सहता है, वही क्षमा धर्म का पालन है। विष का पान कर सत्त्वस्थ रहना ही शिवत्व है । शास्त्रों में प्रथम और द्वितीय क्षमा का लक्षण इस प्रकार दिया गया है __ अकारण अप्रिय भाषण करने वाले मिथ्यादृष्टि से अकारण त्रास देने का प्रयास वह मेरे पूण्य से दूर हुआ है-ऐसा विचार कर क्षमा करना प्रथम है। अकारण मझे त्रास देने वाले को ताड़न और बध का परिणाम होता है, वह मेरे सुकृत से दूर हआ खण्ड १५, अंक ४ (मार्च, ६०) ३५ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यह द्वितीय क्षमा है ( नियमसार तात्पर्यं वृत्ति- ११५) । ठाणं में धर्म के चार द्वारों में संतोष, सरलता और विनय में क्षमा ही प्रथम है । साधु को 'क्षमा श्रमण' भी कहा जाता है, जिसके मन में उपशान्त भाव है, वही क्षमाशील है – उवसमं खु सामएणं' । क्षमा ही आत्म विजय का साधन है । वह शुक्ल ध्यान का प्रथम अवलम्बन है । बाल्मीकि कहते हैं— यः समुत्पतितं कोघं, क्षमयैव निरस्यति । यथोरगस्त्वचे जीर्णा, स वै पुरुष उच्यते ' ॥ जो हृदय में उत्पन्न क्रोध को क्षमा के द्वारा निकाल देता है जैसे सांप अपनी पुरानी केंचुल को । वही पुरुष कहलाता है । महात्मा विदुर ने न जाने कितनी बार क्षमा को प्रथम गुण गिनकर उसकी महत्ता प्रतिपादित की है । क्षमया किं न साध्यते, क्षमका शान्तिरुत्तमा । अर्थानर्थी समौ यस्य तेस्य नित्यं क्षमा हिता ॥ "क्षमा हि परमं बलम्' - भगवान् महावीर का जीवन क्षमा का सर्वोत्कृष्ट उदाहरण है । कितने परीषह व उपसर्ग आए, पर उन्होंने क्षमा धर्म ही अपनाया । उनके समस्त साधना - वर्ष चुनौतियों में बीते । ग्वाले ने पीटा, यक्ष ने सताया, चण्डकोशिक ने डसा, अग्नि ताप में अडिग रहे, उन्हें गुप्तचर समझकर बंदी बनाया गया, कटपूतना व्यंतरी के प्रतिशोध की सीमा न रही, संगमदेवी ने कौन-सा विघ्न नहीं डाला पर वे थे महावीर, जिन्होंने क्षमा धर्म नहीं छोड़ा, सबको आत्म-भाव से क्षमा करते हुए केवलज्ञान प्राप्त किया । क्षमा का ऐसा उदाहरण विश्व में अन्यत्र दुर्लभ है । अब हम आधुनिक मनोविज्ञान के संदर्भ में क्रोध का विवेचन करें। क्रोध पर • आधुनिक मनोवैज्ञानिकों ने महत्त्वपूर्ण अनुसंधान किए हैं । मनोशास्त्रियों की सम्मति में क्रोध व हिंसा - भावना की जड़ें मनुष्य के आदिम मस्तिष्क में विद्यमान रहती है डा० एम० आर डेलगाडो ने यह प्रमाणित कर दिया है । उन्होंने मस्तिष्क के विशेष बिन्दु को उत्तेजित कर शान्त मनःस्थिति को भी उग्र बना दिया - ये प्रयोग उन्होंने बन्दरों व सांढ़ों पर किए । डॉ० मार्क ने जानवरों से भिन्न मानवीय मस्तिष्क के उप-आदिम हिस्से पर प्रकाश डाला है, जिसके कारण वह अपनी भावनाओं, संवेदनाओं और स्थितियों पर नियंत्रण खो देता है । इन प्रयोगों के अतिरिक्त अनेक मनोविश्लेषणात्मक पद्धतियों द्वारा क्रोध के मनोविकार का निरूपण किया गया है । कुछेक उल्लेख पर्याप्त होंगे। डॉ० जेम्स रोलेण्ड एनगिल ने शैशवकाल से ही क्रोध की उत्पत्ति के कारणों का संधान किया है— जिनमें चिड़चिड़ाहट, चिढ़ाना, मनोमालिन्य, अपमान आदि मुख्य हैं—ये ही वे हेतु हैं, जो मानवीय मस्तिष्क को असंतुलित करते हैं । वस्तुतः युद्ध लिप्सा भी एक सामूहिक क्रोधाभिव्यक्ति है— व्यक्ति या समाज अथवा राष्ट्र अपनी अस्मिता के खण्डित होने पर युद्ध, धर्मान्धता, स्वार्थ, अधिकार व सत्ता की एषणा में युद्धोन्मत्त हो जाते हैं । प्राचीन काल से ही ये उदाहरण इतिहास में उपलब्ध है ---यूनान के निवासियों ने इब्रानियों को ३६ तुलसी प्रज्ञा Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपना शिकार बनाया, रोम के निवासियों ने ईसाइयों पर अपाशविक अत्याचार किए। मध्ययुग की क्रूसेड धर्मान्धता के प्रमाण थे। भारत में चंगेज खां, मोहम्मद गौरी, तैमूर खां, नादिर शाह आदि आक्रामकों ने धर्म-विरोध व सत्ता के मद में कत्ले आम किया। आधुनिक युग में हिटलर ने लाखों यहूदियों को मौत के घाट उतारा । यहूदियों का देवता भी प्रतिशोध का देवता है । राष्ट्र और समाज की यह उग्रता और आक्रामक प्रवृत्ति सामूहिक होते हुए भी, मूलतः व्यक्ति परक है । डॉ० लियोपेडो ने इस पर विशेष प्रकाश डाला है । डा० मिडोने अपने ग्रंथ 'क्रोध' (एन्ग्र) में यह बताया है कि मनुष्य का इतिहास एक दृष्टि से क्रोध का इतिहास है । इंजील में यह प्रतिपादित किया गया है कि मनुष्य की सृष्टि के उपरान्त ही क्रोध की उत्पत्ति हुई। प्रलय में नोहा की कल्प कथा में ईश्वर ने मनुष्य को ही समाप्त करना चाहा । आदम और इव के दोनों पुत्रों ने क्रोध के कारण एक दूसरे का वध कर दिया। यहीं प्रश्न उठता है कि क्रोध होता क्यों है ? डॉ० मेडो इसका उत्तर इस प्रकार देते हैं । प्रथम कारण है-नैराश्य, विफलता, महत्त्वाकांक्षा, स्वाग्रह, परिवेश के साथ असंतुलन, स्व-पीड़न व पर-पीड़न आकांक्षा । व्यक्ति की विकृत काम वासना भी क्रोध का एक कारण है। क्रोध का परिणाम अत्यन्त घातक होता है। डॉ० मेडो का कथन है कि मनुष्य के लिए यह सर्वाधिक घातक संवेग है। मनुष्य की स्नायविक प्रक्रिया सहानुकम्पी (पेरासिम्पथेटिक) व अनुकम्पी (सिम्पेथेटिक) नाड़ियों पर निर्भर करती है। सहानुकम्पी दैनिक कार्य-कलापों का संचालन करती है-मनुष्य की पाचन क्रिया, स्वास्थ्य लाभ आदि इससे होते हैं। अनुकम्पी नाड़ियों की आवश्यकता आपातकालीन स्थिति में सहायक होती है। सहानुकम्पी शांति का सूचक है और अनुकम्पी उत्तेजक स्थिति का । उत्तेजना की स्थिति में हृदय पर भार पड़ता है, रक्त चाप बढ़ जाता है, शर्करा का अधिक प्रयोग होता है । अधिवृक्क (ऐडरीनल) ग्रंथि से स्राव भी अधिक होने लगता है । क्रोध की अवस्था में यही दैनिक क्रिया है । इसका दु:खद परिणाम है-शिरःशूल, तनाव, अधिक रक्त चाप, गंठिया, हृदयरोग, मानसिक असंतुलन, मधुमेह, श्वास प्रक्रिया की तीव्रता, आमाशय शोथ आदि । कभी-कमी जब आक्रामक प्रवृत्ति अनियंत्रित होकर गहन अवसाद में परिणत हो जाती है, तब व्यक्ति आत्महत्या भी कर लेता है। मनुष्य के भीतर एक सृजनात्मक वृत्ति होती है और दूसरी ध्वंसात्मक । एरिक वन का अभिमत है कि मनुष्य को अपनी ध्वंसात्मक वृत्ति समाप्त कर लेने के लिए कुछ निश्चित उद्देश्य निर्धारित करना चाहिए-इनमें आध्यामिक उन्नति ही मुख्य है। हम आगे चलकर देखेंगे कि 'प्रेक्षा ध्यान' किस प्रकार मानसिक संतुलन के साथ मनुष्य की ध्वंसात्मक प्रवृत्ति को भी समाप्त करने में सहायक होता है । बर्न कहते हैं कि भय व क्रोध का हनन करने के लिए व्यक्ति को अपनी सारी ऊर्जा का आभ्यंतरीकरण करना चाहिए। व्यक्ति चाहे यह न जाने कि वह क्रोधित है, पर उसका हृदय इसे जानता है। क्रोध का घातक परिणाम सारे शरीर पर पड़ता है । डॉ० विलियम्स का मत है कि दिल का दौरा क्रोध के कारण ही अधिक होता है, वैमनस्य और क्रोध ही इसके हेतु हैं। एक अन्य विद्वान् इवो० के० फियराबेंड कहते हैं कि क्रोध व आततायीपन का निषेध कर व्यक्ति को खण्ड १५, अंक ४ (मार्च, ६०) Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपनी अस्मिता की खोज से बृहत् मानवीय मूल्यों का संधान करना चाहिए। इसी प्रकार एक अन्य विद्वान् का मत है कि मनुष्य का शंकालु स्वभाव, अविश्वास, संयम और मानसिक विक्षेप और क्रोध, उसकी व्यावहारिकता नष्ट कर एक ऐसा प्रतिशोध उपस्थित करते हैं, जिससे अन्ततः हतप्रभ होकर वह अपने से ओर समाज से ही टूट जाता है । अब हम प्रसिद्ध मनोशास्त्री डॉ० एलबर्ट ऐलिस का अभिमत देखें। डॉ एलिस ने अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ 'हाड टू लिव विद एण्ड विद आउट एन्गर' में क्रोध पर अत्यन्त वैज्ञानिक व विवेकपूर्ण विचार प्रस्तुत किए हैं। उनका मत है कि क्रोध मानव जीवन में सर्वाधिक अपकारक व निरर्थक है । उन्होंने उन विद्वानों का सतर्क उत्तर दिया है जो यह मानते हैं कि क्रोध अपनी सीमित परिधि में, एक ऐसा कवच है, जो आक्रामक व आततायी समाज से व्यक्ति की रक्षा कर, उसके 'अहं' का बचाव करता है। इस भ्रांत धारणा का विरोध करते हुए डॉ० एलिस ने यह प्रतिपादित किया है कि क्रोध व्यक्ति के व्यक्तित्व का खण्डन कर उसे त्रिपथगामी बनाता है। वे आगे कहते हैं कि क्रोधी स्वभाव वाले व्यक्ति से सभी दूर रहकर उसकी अवहेलना करते हैं। डॉ० एलिस ने क्रोध के उपचारार्थ नवीन और लोकप्रिय पद्धति 'रेशनल इमोटिव थिरेपी' प्रचलित की है। यह पद्धति मनुष्य की बौद्धिकता का परिष्करण कर उसके संवेगों का उदात्तीकरण करती है । क्रोध का सामान्य उपचार और उससे निवृत्ति निम्नलिखित उपायों से संभव है(१) क्रोध की आत्म स्वीकृति, आत्म-संलाप व निरीक्षण, (२) उसके कारणों का विवेकपूर्ण वस्तुनिष्ठ विश्लेषण, (३) रचनात्मक वृत्ति से पारस्परिक संप्रेषणीयता द्वारा यथार्थ बोध (४) अन्तर्दर्शन (५) बाह्य मीति (एग्रोफोबिया) से मुक्ति आदि । प्रेक्षा ध्यान एक ऐसी सिद्ध पद्धति और प्रक्रिया है, जो मनुष्य की आंतरिक शक्ति का विवेकीकरण व उदात्तीकरण कर उसे आत्म-साक्षात्कार व आत्म दर्शन कराती है। प्रज्ञा के जागरण का सर्वाधिक शक्तिशाली साधन है ---समता और अनेकांत दृष्टि, प्रज्ञा का सतत चैतन्य । इन्द्रियातीत चैतन्य का विकास, जिसका सुखद परिणाम है संयम, समता और शांति, अर्थात् सर्वतोभावेन क्षमा भाव । युवाचार्य महाप्रज्ञ कहते हैं कि 'अशेष की अनुभूति ममत्व और तनाव का विसर्जन है'-क्रोध का आवश्यक फल है विकृत अहं और तनाव । आज विज्ञान ने यह प्रमाणित कर दिया है कि मानव जीवन में संस्कारों का बड़ा महत्व है-ये संस्कार कम से कम पांच पीढ़ी तक चलते रहते हैं। हेय संस्कारों का शुद्धिकरण जीवन को उच्च भाव और ऊर्ध्व मार्ग पर अग्रसर करता है। संस्कार की शुद्धि वस्तुतः आत्म-शुद्धि है-'आत्म शुद्धि साधनं धर्मः' । जिस क्षण में रागद्वेष, घृणा, जुगुप्सा-क्रोधादि कषाय उत्पन्न हो----तब अप्रमत्त भाव से उनका निषेध और निराकरण आत्मशुद्धि का हेतु बनता है । प्रसिद्ध विद्वान् अब्राहम ओसलो ने मानव-चेतना के जो ६ स्तरों का विवेचन किया है, उसकी अन्तिम स्थिति आत्म-साक्षात्कार में है। आत्म-साक्षात्कार की यह भूमिका मनुष्य के सामाजिक आचार और मूल्यों पर आधृत है-इन मूल्यों के लिए भी संस्कारों का शुद्धिकरण अनिवार्य है। आज व्यक्ति और समाज भय और चिन्ता से आक्रांत हैं। प्रसिद्ध मनोशास्त्री कर्ट राइजर कहते हैं कि सम्पूर्ण विश्व एक सार्वमौम नियम व व्यवस्था से बंधा है----इस नियम और व्यवस्था का अति तुलसी प्रज्ञा Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रमण करके व्यक्ति और समाज दोनों भय, आतंक व चिन्ता से ग्रस्त होते हैं । यदि व्यक्ति सार्वभौम व्यवस्था का पालन करे तो अभय और निरातंक होकर चिन्ता से मुक्त हो जाएगा । क्रोध रहित जीवन इसका एक हेतु है । वशिष्ठ श्रीराम से कहते हैं - अभयं वै ब्रह्म मा मै षी' - ' - अभय रहो और अभय राखो । जैन साधना पद्धति में आभ्यंतर तप के अन्तर्गत प्रायश्चित, स्वाध्याय, ध्यान और व्युत्सर्ग का विवेचन कपाय - विजय का अमोघ अस्त्र है । आधुनिक मनोरोग चिकित्सा में भी ध्यान को अत्यन्त महत्त्वपूर्ण माना है । बायोएथिक्स और वायोफीड बेक प्रणाली ध्यान की क्षमता को उजागर करती है । मनोविज्ञान की अवधारणा चारित्रिक शुद्धता के साधन हैं - 'कहु एवं अविजाणओ बितिया बालस मंद्या ।' गलती करके उसे स्वीकार न करना दुगुनी मूर्खता है । निशीथ चूर्णि में आत्मालोचन और प्रायश्चित से चरित्र - शुद्धि, आत्म-शुद्धि, संयम, ऋजुता, मृदुता आदि का विकास होता है । उत्तराध्ययन सूत्र के अनुसार प्रायश्चित से व्यक्ति सभी संवेगों से मुक्त होता है । जैन धर्म में कायोत्सर्ग का भी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान है । क्रोध की स्थिति में जो मानसिक और शारीरिक उग्रता व तनाव होता है—उसका उपचार है कायोत्सर्ग, जिससे स्थिरता और जागरूकता के साथ-साथ शुद्ध चैतन्य की अनुभूति होती है । 'भाव विशुद्धि, मानसिक एकाग्रता अन्तदर्शन, व विवेकीकरण की यही आधारभूमि है। विवेक विचार, उचित-अनुचित का ज्ञान सदाचार के लिए अनिवार्य है । आचाराङ्ग में महावीर बार-बार विवेक सहित संयम में रत हो, जीवन पथ पर चलने का उपदेश देते हैं । जो वीर हैं, क्रियाओं में संयत हैं, विवेकी हैं, सदैव यत्नवान है, दृढ़दर्शी व पापकर्म से निवृत्त हैं और लोक को यथार्थ रूप में देखते हैं ऐसे ज्ञान और अनुभवपूर्ण तत्त्वदर्शी की उपाधि नहीं होती । शुक्ल ध्यान के चार लक्षणों में विवेक तीसरा लक्षण है । जैन सिद्धांतों के अनुसार इन्द्रिय विषयों और कषायों का निग्रह कर ध्यान और स्वाध्याय के द्वारा जो आत्म-दर्शन करता है, उसी को तप धर्म होता है । असंयम से निवृत्ति और संयम में प्रवृत्ति क्रोध के परिहार के लिए जैन धर्म ज्ञान, ध्यान और तप पर बल देता है | ज्ञान, ध्यान और तप का विपुल विवेचन जैनागमों में उपलब्ध है । जैन शिक्षा पद्धति जीवन निर्माण का नियामक और धारक तत्त्व है । शिक्षा सूत्र के अनुसार पांच कारणों से शिक्षा प्राप्त नहीं होती । शिक्षा के लिए आवश्यक उपायों में सत्यरत होना, आक्रोधी रहना, अशील न होना, इन्द्रिय और मनोविजय मुख्य हैं । इस सूत्र में भावों के सद्भाव के निरूण में जो श्रद्धा को सम्यक्त्व कहा गया है, जिसके दस भेद उल्लिखित हैं । व्यक्ति के आन्तरिक रूपान्तरण में भिक्षा पद्धति का भी महत्त्वपूर्ण स्थान है । जीवन निर्माण की प्रक्रिया विद्याध्ययन से प्रारम्भ होती है । युवाचार्य महाप्रज्ञ ने जीवन विज्ञान में जिस भिक्षा पद्धति का विवेचन-विश्लेषण किया है वह यही उपक्रम है । जीवन के चतुर्दिक और सम्यक विकास के साथ व्यक्ति के, आन्तरिक रूपान्तरण का, आत्मानुशासन का, जो सर्वोपरि मूल्य है - मानसिक, बौद्धिक व भावात्मक विकास का, समभाव, सहिष्णुता और अन्तर्बाह्य स्वस्थता का - युवाचार्य महाप्रज्ञ के शब्दों में जब तीन विकास हो जाते हैं - प्राण व्यक्ति का विकास, अर्न्तदृष्टि का विकास और अनुशासन तब स्वतंत्र खण्ड १५, अंक ४ (मार्च, ६० ) ३६ Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यक्ति का निर्माण होता है । इसी से जीवन विज्ञान की शिक्षा पद्धति में ध्यान के द्वारा भोजन और पोषण की प्रक्रियाएं साथ-साथ चलती हैं, जो शिक्षा का अनिवार्य अंग है । आत्मानुसंधान की पूर्णता ही जीवन की पूर्णता है । इस पद्धति में समभाव और सहिष्णुता, आत्मानुशासन और आत्मबल, शारीरिक व मानसिक संतुलन के लिए और महत्त्वपूर्ण पक्ष है सामायिक | जैन साधना की परम् उत्कृष्ट पद्धति है सामायिक | सामायिक का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है - 'समय' अर्थात् आत्मा के निकट पहुंचना | बाह्य प्रभावों से मुक्त होकर अतल आंतरिक क्षमता और शक्ति प्राप्त करना । 'जो समो सव्व भूतेषु तस्स सामायिगं ढाई' सामायिक के महत्त्व का अकाट्य प्रमाण है— समभावो सामइयं तण कंचण सत्तु मित्तविसओति' तृण और स्वर्ण में, शत्रु और मित्र में समभाव ही सामायिक है । अर्थात् सर्वभूतो के प्रति समभाव । षडावश्यक में सामायिक का प्रथम स्थान है । एकीभाव द्वारा बाह्य परिणति से आत्माभिमुख होना सामायिक है । सामायिक समत्व है ( अर्थात् रागद्वेष से परे, मानसिक स्थैर्य और अनुकूल-प्रतिकूल में मध्यस्थ भाव रखना) । संयम, नियम, तप में संलग्न रहना ही सामायिक है । जब वैर, घृणा, द्वेष, विरोध आक्रामक वृत्ति ही नहीं रहेगी, तब कहां से आएगा क्रोध कषाय । मनोविज्ञान ने जहां क्रोध का उपचार बताया है वहां जैन-विज्ञान उपचार और परिहार के साथ-साथ उसके रूपान्तरण और आन्तरिक क्रियाशीलता के द्वारा व्यक्तित्व के सम्यक विकास का निरूपण भी किया है । ज्ञान, दर्शन और चारित्र का परमोत्कर्ष ही इस रूपान्तरण और क्रियाशीलता का लक्ष्य है । ज्ञान से पदार्थों का ज्ञान, दर्शन से श्रद्धा और चारित्र से कर्मास्रव का निरोध होता है । तीनों एक दूसरे के पूरक हैं । चारित्र के बिना ज्ञान व दर्शन के बिना चारित्र कुछ भी अर्थ नहीं रखते । बाह्म और आभ्यन्तर परिग्रह से मुक्त होना ही मानव जीवन का परम लक्ष्य है । धर्म, दर्शन और अध्यात्म के साथ में जैन मनोविज्ञान भी अनुपम और अनन्वय है । आज विश्व में चारों ओर नयी नैतिकता की मांग हो रही है । विज्ञान और तकनीकी युग की भौतिक विभीषिका से वैज्ञानिक ही संत्रस्त हैं - एक आवाज गूंज रही - 'भारतीय पथ' (दि इंडियन वे ) को अपनाने की । मनुष्य की आंतरिक शक्ति को उभार कर नए आयाम देने की, मानवीय आचार संहिता को सेवा, त्याग, समता और संयम के साथ व्यक्ति और समाज के व्यापक संतुलन और सामन्जस्य की । विज्ञान पंगु होकर अध्यात्म और दर्शन का संबल खोज रहा है । बौद्धिक ऊहापोह ने हमारी भावनात्मक क्रियाशीलता विकृत कर दी है । विनोबा भावे के शब्दों में स्वार्थ, सत्ता और सम्पत्ति ही जीवन का लक्ष्य है । कुछ ऐसे चिन्तक भी हैं जो की पाशविकता, आक्रामक भावना, प्रतिशोध और सत्ता स्वार्थ को आवश्यक बता रहे हैं। उदाहरणार्थ – 'नेकेड एप', दि टेरिहोरिन इम्पेरेटिक आदि ग्रन्थ । आज प्रत्येक पन्द्रह वर्ष में मनुष्य की बुद्धि ( ज्ञान नहीं ) दुगुनी हो रही है—उसके बोझ से वह स्वयं घबरा उठा है । नियमन ओर नियंत्रण का नितांत अभाव है । अर्थवत्ता और गुणवत्ता ऐषणाओं और कषायों में धूमिल तुलसी प्रज्ञा ४० Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हो गयी है । तब मुक्ति का एक ही पथ है - वह है जैन धर्म की मूलभूत मानवीय नैतिकता का । वरतानिया के एक सर्वेक्षण में बताया गया है कि १८ और २५ वर्ष की आयु के अधिकांश युवा ( विद्यार्थी) अपच, क्रोध, वैफल्य, विभिन्न व्याधियों के साथ-साथ जिजीविषा खो बैठे हैं, उन्हें न घर सुहाता है और न बाहर । वे पूर्णत: निस्संग और एकाकी हैं -- असामान्य व असंतुलित माता-पिता और भाई-बहिन के प्रति उन्हें न प्रेम है और न लगाव | इस ग्लानि का उपचार, इन कषायों का अंत, इस जिजीविषा से मुक्ति और दिशाहीनता में मार्ग प्रशस्त करने के लिए धर्म ही एकमात्र संबल है । बर्नड शा ने अपने संस्मरण में यही कहा है । धर्म ही हमें भय और दुश्चिन्ता से मुक्त करेगा । जैन शासन इसका समर्थ और सबल आलोक है । रवीन्द्रनाथ की एक कविता आराध्य के प्रति है, जो आज के मनुष्य की गूढ़ता व गतिशीलता का ज्वलंत चित्रण है तुमि जोतो मार दिये छो से मार, करिया दिये छो सोझा । मार आमि जोतो तुलेछि, सकलइ होयेछे बोझा । ए बोझा आमार नामाओ बंधु, नामामो, माररे वेगेति ठेलिया चलेछि, एइ यात्रा आभार थामाओ, बंधु थामाओ । जैन विश्व भारती, लाडनूं ( राज० ) आगम- साहित्य धारकों से एक निवेदन अनुभव हुआ है कि संस्था द्वारा प्रकाशित आगम - साहित्य के अध्ययन के प्रति श्रावक समाज की रूचि अपेक्षाकृत कम है या फिर यह विषय सहज ग्राह्य नहीं है । ऐसी स्थिति में पाठकों के लिए रुचिकर योग, कथा एवं जीवन-विज्ञान साहित्य उपलब्ध कराने की एक योजना प्रसारित की गई है । इसके अन्तर्गत आपके पास जो आगम- साहित्य है उसके बदले में आप मूल्यानुसार योग साहित्य या अन्य साहित्य संस्था से प्राप्त कर सकते हैं । खण्ड १५, अंक ४ (मार्च, १० ) श्रीचन्द बैंगानी मन्त्री ४१ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ DOCTRINE OF KARMA IN BUDDHISM AND JAINISM Dr. Nathmal Tatia* 1. There were six great founders of religion in Sākyamuni Buddha's times. There was Pūraņa Kassapa who did not accept any difference between good and bad action. A person can do anything he likes without good or bad result. There was again Makkhali Gosāla who did not believe in any freedom of will. A person has no control over what he does. He is bound up by his nature. The future is fixed, no person can change the future. A person lives worldly life as long as he has to do so. But a time comes when his nature is changed automatically and he gets Nirvāņa. Makkhali Gosāla was a determinist. There was another founder of religion named Ajita Kesakambala. He was a materialist. He did not believe in existence of mind or soul. There were only four material elements, water, fire and air, according to him. When a person dies, earth goes to earth, water goes to water, fire goes to fire, air goes to air, and his sense-organs go to the sky. There was another religious leader named Pakudha Kaccāyana who did not believe in any kind of change. There were seven unchanging elements according to him, viz. earth, water, fiire, air, pleasure, pain and soul. All of them were unchanging, unmade, unproductive. There was no place for moral life in his philosophy. The fifth reputed founder of religion at that time was Nigantha Nātaputta who was the last prophet of Jainism. He upheld fourfold samvara, control of sinful activities. The sixth famous founder of religion in Buddha's time was Sañjaya Belatthaputta. He was a negativist. He did give negative answer to all questions. In modern terminology he can be called an agnostic. 2. Sākyamuni Buddha gave a philosophy that rejected all the philosophies of the above-mentioned six religious leaders. His philosophy was positive. He believed in freedom of the will. A person is responsible for what he does. He has to enjoy the fruits of what he does. The Buddha gave a doctrine of karma which was very important for a good lifestyle. Karma is action of mind, speach and body. If our mind is good, the action is good, if the mind is bad, the action is bad. If there is greed, hatred and ignorance in the • Director, Anekant Shodhpeeth, Jain Vishva Bharti, Ladnun, Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XV, No. 4 mind, the action is bad. But if there is no greed, hatred and ignorance in the mind, the action is good. 3. Sometimes we mistake the bad for the good, and the gaod for the bad. Then we unknowingly do good and bad things. In such case, we need quidance from wise men. But if we do some bad action knowingly, our responsibility is great, and we have to suffer from the bad effect of that action. Similarly if we do a good action knowingly, we earn merit which produces good effect. Bad action produces bad effect, good action produces good effect. This is the Law of Karma. 4 Our conduct can be bad or good. The good conduct is the opposite of bad conduct. The bad conduct is of ten kinds, and so the good conduct is also of ten kinds. Of the ten kinds of bad conduct, there are three of min1, four of speech, and three of body. The three bad conducts of mind are : lust, violence, and wrong view. The four bad conducts of speech are : false statement, back-biting, harsh words, and useless talk. The bad conducts of body are : killing, stealing, and wrong sex. The opposites of these ten are good conducts. The main causes of bad conducts are greed, hatred and igno. rance. Charity, love and wisdom are the main causes of good conduct. 5. We find many varieties in the lifestyles of people. This manifoldness is due to karma. Our different habits and likings and dislikings are also due to karma. Our actions have effect on our own life and also on our society and environment. Good people make the society good, bad people make the society bad. The power of karma is great. The root of all karma is our mind. The mental karma is expressed through our speech and body. If our mind is clean and compassionate, our words and deeds are bound to have good effects on our society and country. Vasubandhu has finely explained this in his Abhidharmakośa, IV. 1: karmajam lokavaicitryaṁ cetană tatkrtaṁ ca tat/ cetanā mānasaṁ karma tajje vāk-kaya-karmaņi || The varieties of men and things in the world are due to karma. The will and its products are karma. The will is mental karma. The actions of the speech and the body are born from the will. 6. Good karma is called kušala, bad karma is called akušala. If we have no greed, no hatred, no ignorance, our karma is kušala. If we have greed, hatred, and ignorance, our karma is akušala. The karma which is neither good nor bad is called avyakrta (neutral). 7. There are some strong karmas which produce effect in this very life. But if the karma is not so strong, it produces the effect in the next life or in any other remote life. There are some weak karmas Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ I. 44 TULSI-PRAJNĀ, March, 1990 which do not produce any effect or only a weak effect. Buddha believed in reincarnation, but he did not accept any substance called soul. 8. Karma is also divided as black, white, black-white and neither-black-nor-white. The last variety of karma does not produce any effect. 9. Vasubandhu says in the Abhidharmakośa, V. la : mūlaṁ bhavasyànuśayāḥ The afflictions or passions are the root cause of worldly life. The afflictions are six : attachment (råga), hatred (pratigha), pride (māna), ignorance (avidyā), wrong view (drsti) and doubt (viclkitsā). These afflictions can be eliminated by the path of vision (darśana.mārga), and the paih of contemplation (bhāvanā-mārga). 10. In Saryāstivāda Buddhism, there is the concept of avijñapti which is the effect of our good and bad karma. It is an unmanifest material element produced by karma. Vasubandhu has elaborately discussed the nature of avijñapti in his Abhidharmakośa, I. 11, and IV. The avijñapti is very much like the adrsta in the Nyāya-Vajśeșika philosophy, and praksti-bandha in Jaina philosophy. It is a very complicated concept, and so we do not discuss it in this small lecture. 11. The jaina doctrine of karma is very much similar to the Buddhist doctrine. When there is activity of thought, word, or deed, material atoms are attracted by our soul. Those atoms settle in the soul. This settling is called karma-bondage. There are four kinds of bondage... ...praksti-bandha (bondage of different varieties of material particles), pradeśa-bandha (bondage of different numbers of material particles), anubhāga-bandha (bondage of different intensities of material particles), sthiti-bandha (bondage of different durations of material particles). The karma has many functions. It covers our powers of knowledge, action, enjoyment, etc. The main causes of karma-bondage are five : wrong view, attachment, remissness, passions (anger, pride, deceit, and greed) and the activities of mind, speech and body, which can be compared with the six afflictions of Buddhist philosophy, mentioned above. . 12. Jainism and Buddhism developed together in the same country. Sākyamuni Buddha and Mahāvīra (the Jaina prop het) were contemporaries. Their philosophies were very similar. Both of them believed in karma. The concepts of ásrava and sumvara were common to the philosophies of both these prophets. It is now very much necessary to make a comparative study of these two philosophies to get a comprehensive and correct idea of Indian thought of ancient times. 000 Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Enigma of the Universe Visva-Prahelikā CONCEPT OF SPACE AND TIME IN WESTERN PHILOSOPHY Muni Mahendra Kumar Space and Time As we have already seen, the universe includes all the realities which exist. Here, we shall confine ourselves only to the discussion of two important constituents of the universe viz. space and time. The problems which arise from the fact that elements (objects) perceived by our senses have position in space and time, are amongst the most perplexing riddles for the philosophers as well as the scientists. First, we shall break down the riddle in a series of question and discuss the answers given by various philosophers and scientists : (a) Are space and time ultimately real or merely phenomenon ? (b) Arc they (i) infinite, (ii) divisible, (iii) continuous, (iv) homogenous ? (c) Are they relative or absolute ? (d) Are they one or many ? (e) Are they simply modifications of matter, or ideas of con sciousness, or some independent entities? As in the case of "Nature of Reality" the answer to this questions given by different philosophers and scientists are radically divergent. The concepts of "space" and "time" are based on such experiences. Series of questions such as "What is space ?"; "What is time?" ; "Do space and time really exist ?" ; or “Are they simply the forms of matter or ideas of consciousness or some independent entities ?'' arise and we find that different philosophers and scientists have given different answers to these questions. Concept of space and time in Western Philosophy Among the ancient Greek philosophers, the atomists like Democritus and Leucippus (B.C. 400), and Epicurus (B.C. 341) considered space as an ultimate reality, while establishing their theory of atoms. In their atomism, real existence of both atoms and space was accepted. In their view, motion was regarded as a natural property of the atoms. This atomic motion was thought to take place through the Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ TULASI-PRAJNA, March, 1990 "empty space" that existed between atoms. According to their atomic theory, matter did not consist only of the “Full”, but also of the "void”, of the empty space in which the atoms moved. Thus they accepted "matter" and "space" as independent objective realities. 1 Earlier, another Greek philosopher Parmenides (B.C. 450) had pointed out that since void or empty space is "not-being”, it cannot exist. But, in the philosophy of the atomists, the logical objection of Parmenides against the void was held invalid to comply with experience. They argued that without accepting the real existence of empty space, motion of the atoms would not be possible, and there. fore, they maintained that space was not nothing bu: that it was of the nature of a receptacle, which might or might not have any given part filled with matter.? The ancient Greek Philosophers have treated time almost at par with space. Epicurus accepted the real existence and thus believed it to be an objective reality.3 Plato and Aristotle After the Greek atomists, Plato has though over the nature of space in his notable work Timeaus. Plato has used the term “Chora" for space. "Chora may be thought of as a substratum which remains when all the attributes of material bodies--weight, colour, etc -are abstracted from them. Moreover, the sensuous objects may be regarded as being actually constituted of Chora.”4 Thus Chora or space is invariably associated with matter and has no existence apart from it. Plato believed that God had created time together with the universe, and that space and time came into existence simultaneously.5 He maintained that God had created time as a reflection of the real He did not believe in the ultimate reality and time. In the confessions of St. Augustine (4th Century), the problem of time is discussed. He, like Plato, considered time as a subjective reality and asserted that except present the division of time into past and future was only imaginary. He also maintained that time did not exist before the universe existed : “There is no time before he created the world."'8 Aristotle's concept of space is slightly different from the concept of “chora”. Being a realist, just as he assumes that material bodies are things that really exist, whether we happen to perceive them or not, so he assuines that the space and time in which they move are real features of the world that does not depend for its existence on our perceiving it. Aristotle conceives space as a sort of immovable Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XV, No. 4 vessel, into which you can pour different liquids. Just as the same pot may hold first wine and then water, so does the space giving substratum to different things. A jug or a pot may be called a place that can be carried about, while "space" or "place” may be called "an immovable vessel”. Hence, defining the place” of a thing, Aristotle says: "Place is the innermost motionless limit of the containing body.It means that spacc (or place) is the common interface of the contained body and the container, or in other words place of a thing is the boundary or inner surface of the body which immediately surrounds the thing. The motion of contained and container can evidently be applied over and over again : this coin is contained in this purse, this purse is contained in this bag, this bag is contained in this room, the room is contained in this house, and so on. But when in the sequence of containers we arrive at the outermost of Aristotle's celestial spheres. We can go no further, since the outermost sphere is not surrounded by anything, it not in any place.”10 It follows from this that there can be no empty space. In the last resort, "absolute space” is the actual surface of the outer most "heaven” which contains everything else in itself but is not contained in any remoter body. Thus all things whatever are "in" this "heaven". But it is not itself “in” anything else. In accordance with the standing Greek identification of determinate character with limitation, Aristotle holds that this outermost heaven must be at a limited distance from us. Actual space is thus finite in the sense that the volume of the universe could be expressed as a finite numbers of cubic miles or yards, though, since it must be "continuous”, it is infinitely divisible. However, often you sub. divide a length, an area, or a volume, you will always be dividing it into lesser lengths, etc., which can once more be divided. You will never by division come to "points" i.e. mere positions without magnitude or divisibility. Thus, in the philosophy of Aristotle, the al space of the universe was finite (though it was infinitely divisible). Space was due to the extension of bodies, it was connected with the bodies, there was no space where there were no bodies. The universe consisted of the earth and the sun and the stars : a finite number of bodies. Beyond the sphere of the stars there was no space ; therefore, the space of the universe was finite. Aristotle's famous definition of time is : “Time is the reckoning of motion as previous" and “subsequent”. 12 Aristotle has also considered time to be a measure of change with respect to before and after. Thus his concept of time is based on change or motion, Whereas Plato believed time to be created by God, Aristotle considered it to be existing for ever. Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ TULASI-PRAJNA, March, 1990 Scholasticism We find an elaborate discussion of space in scholasticism, which is based on the philosophy of Aristotle. Famous exponent of scholasticism, James Mcwilliams proposes the following thesis on space : "Space is abstract extension considered as a receptacle for bodies ; hence space as such is a product of the mind, but with a foundation in external reality. Part 1(a) Space is a abstract extension. "Argument. Expansion in tbree dimensions is a note which is essential to the common concept of space, while other properties such as colour, resistance, temperature, or forces of any kind, do not enter into the concept. But expanse represented without the other common and sensible properties of bodies is abstract extension. Therefore space is abstract extension. Part [(b) This extension is considered as a receptacle for bodies. “Argument. That which is considered as filled with bodies or void of bodies, that in which bodies are said to be contained and move about, is considered as a receptacle for bodies. But we so consider the expanse which we call space. Therefore space is abstract extension considered as a receptacle for bodies. Part II(a) Space is a product of the mind. That is called a product of the mind which is represented as an existing being but which in itself cannot exist. But space as such is represented as if it were an existing being, whereas it cannot as such exist by itself. Therefore space as such is a product of the mind. Part Il(b) This mental product has a foundation in external reality. "A mental representation is said to have a foundation in external reality when there actually exists in the concrete state something which corresponds to the representation, although it does not exist in the abstract condition in which it is represented by the mind. Now there exist bodies with the concrete attribute of extension, and it is this attribute which is represented in an abstract manner in the notion of space as such. “Therefore space as such is a product of the mind with a foundation in external reality."13 In scholasticism, time, like space, is believed to be a product of mind. In the words of Mcwilliams, the thesis on time is as follows: "Time as such is not a moving body but is abstract motion taken as the measure of the duration of things ; hence time as such is a product Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XV, No. 4 of the mind, though with a foundation in objective fact "I4 Thus the scholastics believe space and time to be subjective realities. They have divided space and time into three kinds : (i) real, (ii) possible and (iii) absolute. (i) Real space is that which is occupied by a body or bodies. (ii) Possible space is unoccupied space. (iii) Absolute space is the sum of the two.18 Explaining them, Mcwilliams writes : "Hence absolute space takes in all space. We form this notion by prescinding from whether the space be occupied or not, and consider it only as being capable of occupation; in absolute space we break down the barriers between real and possible space and view it all as one. And, whereas real space is limited by the confines of the bodies in existence, and possible space is excluded from the compass of those bodies, absolute space recognises no limits whatever, and expands indefinitely in all ematics. On the other hand, possible space may be very restricted; for if there are vacua within the universe, little volumes not occupied by any matter whatsoever-not even by the ether***These vacua are as truly possible space as that which begins at the outer rim of the universe and stretches from thereof illimitably. Real space is always coterminous with the body concerned."16 Real time is that which coincides with the actual changes in the material universe; it extends from the beginning of motion up to the actual present, and is constantly being added to. Possible time is that which is not coincident with actual motion; it embraces not only the future but also that imaginary time which preceded the beginning of motion in the universe. Absolute time is both real and possible time considered as one; it is therefore all time, prescinding from whether or not it have the concomitant of existing physical motion."? Descartes, Gassendi and Leibnis Modern western philosophy and also modern science, it can be said, began with French philosopher and mathematician Rene Descartes (1596-1650). His notion of space seems to be based on the doctrine of "chora" propunded by Plato in his Timeaus. Plato's belief that one characteristic possessed in common by all the fleeting objects of sense-experience is chora, appears to be reflected in Descartes's proposition, that the essence of matter is extension. "On this proposition he based first some reasoning of a scholastic kind : the relation of extension to material body is, in scholastig Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 50 TULASI-PRAJNĀ, March, 1990 language, that of "attribute”, to "substance", and since an attribute can have no existence except as the attribute of some substance, it follows that there can be no such thing as extension without matter, or in other words, there cannot be vacuum.”Is Thuş, for Descartes, extension is an adjective, not a substantive; its substantive is matter, and without its substantive it cannot exist. Empty space, to him is as absurd as happiness without a sentiment being who is happy.19 Thus was deduced what for physicist is the most significant feature of the cartesian system, namely, the assertion that space is a plenum.20 Descartes has thus not accepted space as an independent reality Another French philosopher and contemporary of Descartes, Pierje Gassendi (1592-1655), a priest who held a chair in the College de France, opposed the Cartesian doctrine of space. He thought that space is an existing being, unique in its kind, halfway between body and spirit, and neither substance nor accident.21 In opposition to the cartesian doctrine of space as a plenum, he defended the conception of atoms moving in the void; which Epicurus (C. 300 B.C.) had adopted from its originators Democritus and Leucippus, differing in size and shape, but not differing in constitution. The importance of Gassendi's views on space is that his opinions on this subject were adopted by Newton (1642-1727), and consequently came to be assumed as fundamental in all the physical investigations of the succeeding two-and-a-half centuries.22 Philosophy of Leibniz (1643-1716), a German philosopher and mathematician and contemporary of Newton, has an important place in the history of Western philosophy. Leibniz's concepts of space and time are important because of their originality and still more important because the views of Einstein, the renowned scientist of the present century, have a great resemblance with those three hundred years old concepts. Leibniz has vigorously criticized the Newtonian doctrine of space and time.23 Leibniz, in the last year of his life (1716) expressed his own conviction thus : "I hold space, and also time, to be something purely relative. Space is an order of co-existence as time is an order of successions. Space denotes in terms of possibility an order of things which in so far as they exist together exist at the same time, whatever be their seyeral ways of existing. Whenever we see various things together, we are conscious of this order between things themselves."24 Thus, according to Leibniz, space and time are neither things nor Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XV, No. 4 properties of things, but they are an order of things. "Absolute real space and time”, Leibniz maintains, “is an Idolon tribus of English philosophers."26 Leibniz denied the existence of any such thing as an absolute space, as he believed it to be a mere order or relation of things, which in itself is indicative of relativity. Also his space is only ideal--a product of mind, for it is a certain order in which the mind con-ceives the application of relations. Like the space of Descartes, though on somewhat different grounds. Leibnizs, space is also plenum, for it has no existence in the absence of things. To sum up, we can say that Leibniz's space and time are subjective reality and plenum. Kant The most important contribution to the philosophy of space atid time in the century following Newton and Leibniz was that of Kant (1724-1804). Being a supporter of the doctrine of idealism, Kant did not accept space and time as objective realities. In his view, space and time exist in the consciousness, antecedently to all experience-it is an a priori form of our sensibility or intuition. Kant presented space and time as analogous forms of visualisation and treated them in a common chapter in his major epistemological work.28 He has given four metaphysical arguments to prove his theory of space. “1. Space is not a conception which has been derived from outward experiences. For, in order that certain sensations may relate to something without me (that is, to something which occupies a different part of space from that in which I am); in like manner, in order that I may represent them not merely as without of and near to each other, but also in separate places, the representation of space must already exist as a foundation Consequently, the représentation of space cannot be borrowed from the relations of external phenomena through experience; but on the contrary, this external experience is itself only possible through the said antecedent representation. "2. Space then is a nécessary representation a Priori, which serves for the foundation of all external institutions. We never can imagine or make a representation to ourselves of the non-existence of space, though we may easily enough think that no objects are found in it'. It must, therefore be considered as the condition of the possibility of phenomena, and by no means as a determination dependent on them, and is a representation a Priori which necessarily supplies the basis for external phenomena. "3. Space is no discursive, or as we say, general conception of the Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ TULASI-PRAJNĂ, March, 1990 relations of things but a pure intuition. For in the first place, we can only represent to ourselves one space, and when we talk of diverse spaces, we mean only parts of one and the same space. Moreover these parts cannot antecede this one all-embracing space, as the component parts from which the aggregate can be made up, but can be cogitated only as existing in it. Space is essentially one, and multiplicity in it, consequently tbe general notion of spaces, of this or that space, depends solely upon limitations. Hence it follows that an a Priori intuition (which is not empirical) lies at the root of all our conceptions of space. Thus, moreover, the principles of geometryfor example, that "in a triangle, two sides together are greater than the third, "are never deduced from general conceptions of line and triangle, but from intuition, and this is a Priori with apodictic certainty. "4. Space is represented as an infinite given quantity. Now every conception must indeed be considered as a representation which is contained in an infinite multitude of different possible representations, which, therefore, comprises these under itself but no conception, as such, can be so conceived, as if it contained within itself an infinite multitude of representations. Nevertheless, space is so conceived of, for all parts of space are equally capable of being produced to infinity. Consequently, the original representation of space is an intution a priori, and not a conception."27 Thus, Kant asserted that space and time have no existence except as a characteristic of human consciousness. Kant inferred from his theory of space that “all geometrical propositions can be deduced a priori from intuition, with apodeictical certainty". On the strength of this assertion, he believed that Euclidean geometry28 was infallibly true, and indeed was a necessity of thought. We see, thus, that different philosophers have placed forth different views on space and time. It is to be noted that the scientific outlook has been greatly influenced by these philosophical ideas. This should not surprise us, for the concept of space and time are as much related to physics as to philosophy. (To Continue) References : 1. In the words of Democritus : "Only atoms and empty space have a real existence." Cf. W. Heisenberg, Physics and Philosophy, P. 64 2. Cf. B. Russell, History of Western Philosophy, P. 89 3. Cosmology, Mc Millans, P. 113 4. Quoted from Sir Edmund Whittaker, From Euclid to Eddington, P. 5 5. History of Western Philosophy, P. 16 Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XV, No. 4 6. Ibid, P. 166 7. Confessions, 11-14 8. Loc. cit. also, cf. Physics and Philosophy, P. 110 9. Aristotle, Physics, 4-4-212a. 10. Cf. From Euclid to Eddington, P. 10 11. A.E. Taylor, Aristotle, P. 64-5 (Dover Publications, New York, 1955) 12. Aristotle, Physics, 4-2-220A 13. James A Mcwilliams, Cosmology, P. 100-1 (The Macmillan Co., New York, 1956) 14. Cosmology, P. 115 15. Ibid, P. 98 16. Cosmology, P. 98-99 17. Ibid. P. 111 18. See, From Euclid to Eddington, P. 11 19 B. Russell, History of Western Philosophy, P. 90 20. From Eucitd to Eddington, P. 11 21. James M williams, Cosmology, P. 99 22. From Euclid to Eddington, P. 12 23. Dr Clarke, who was a supporter of Newton's theory of space, had a long discus sion with Leibniz For this controvertial discussion, See, “Recollection of Papers which passed between Mr Leibniz and Dr Clarke." 24. Herbart Wildon Karr, Leibniz, P. 162 (Dover Publications, New York, 1960) 25. Sec Ibid, P. 162 26. Cf. Reichenbach, Philosophy of Space und Time. 27. Critique of Pure Reason, Transcendental Aesthetics, Section I (Macmillan, London, 1929) : also see, Prof Margenau, op. cit. pp. 143-44; W. Heisenberg, op. cit. P. 80-81 28 Euclidean and Non-Euclidean geometries are discussed in section B-(7) of this chapter. 000 X JOURNAL OF THE JAIN VISHVA BHARATI TULSI-PRAJNA--the quarterly bilingual research organ of the Jain Vishva Bharati, Ladnun and its year is April to March. It includes research papers on all Subjects of Jainology, Religion, Philosophy, History, Archeology and Arts cum Science. It includes sections also on critical Editions of old Sanskrit, Prakrit Texts, Monographs, Reviews, Summary of articles published in journals etc. Papers on any branch of Indology are acceptable but they must have some bearing on Jain culture. * Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SOME PROBLEMS OF MAGADHI DIALECT Jagat Ram Bhattacharyya* [Magadhi, one of the dialects of Prakrit, belongs to the middle period of Indo-European languages, so it is intimately connected with the Old Indo-Aryan, mainly with the Vedic and partly the classical Sanskrit, and remotely with the Indo-Iranian and still more remotely with the Indo-European languages. Thus most of the characteristic features of Prakrit including dialects and sub-dialects are inter-related with Old Indo-Aryan, Indo-Aryan, and also with Indo-Emopean. The author here treats this problem historically. All the Prakrit grammarians from Vararuci (5th-6th Century A.D.) to Märkandeya (17th Century A.D.) are not unanimous in depicting the characteristic features of Magadhi. They differ in minor as well as major points. The Sanskrit texts where Magadhi passages occur, do not always help in determining the correct features of a language. Standardization of a language is difficult to maintain with regard to the Magadhi passages. Here the author evaluates them historically to remove the discrepancies as found in Prakrit grammatical treatises. -Editor] Magadhi Literature Literature in prakrit language (including its dialects) is vast and varied. Chronologically it started in the 7th/6th century B.C. at a time when Jainism was getting its ground by the propagation of Lord Mahāvīra. Though we do not find any literature as early as 6th/5th century B.C. but that is still regarded as a starting point of prakrit literature, because Mahavira preached his doctrine in a popular language known as Ardha-magadhi at that time (addha-magahie bhāṣāe dhammaṁ āikkhai—samavāyanga). Though the literature composed in AMg. was completed long after the nirvāṇa of Mahāvīra, it is still regarded as the earliest specimens of prakrit literature It is more or less accepted now a days that AMg. literature consisting of forty five books was completed between 4th/5th century AD similar way Sauraseni (=Saur) literature, one of the dialects of In a Lecturer in the Dept. of Prakrit, JVB Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XV, No. 4 55 prakrit, was also composed and completed by the 1st century A.D. It is now-a-days a general convention of the scholars to think that AMg. literature is followed by the Svetāmvara Jains and the canonical literature by the Digamvaras. However, we have AMg and Saur. literature almost from the very beginning of the Christian era. And we have vast amount of literature of these two languages. But literature in Mg, one of the dialects of prakrit. is not as old as that of AMg. and Saur. It is to be noted at the very out set that though Mg. is one of the majar dialects of prakrit, a book entirely written in Mg. is not available. It is difficult for us to guess at the present moment why literature in Mg. is not written. But the fact is that not a single book entirely written in Mg. is available to day or, any reference to a book written entirely in Mg. has yet been traced. In the case of Paišācī, we have, atleast, a reference that Gunādhya's Beharkathā was written in Paišāci. In a similar way no reference to any lost work written entirely in Mg. is found anywhere. So the earliest specimens of Mg. literature, entirely written in Mg. can not be given. But some specimens of Mg. language are available in Sanskrit dramas and in the quotations of some other authors. H in this paper. I can arrange this specimens of Mg. language in four groups : (1) Inscriptional prakrits, (2) Sanskrit dramas, (3) Prakrit grammatical treatises and (4) References to Māgadhi in Sanskrit Rhetoric and Dramatic treatises. (1) INSCRIPTIONAL PRAKRIT Asokan inscriptions of the eastern region are the earliest written documents of the Mg. prakrit. A śokan inscriptions are generally into four clases : (i) North-Western, (ii: Western, (iii) Central, and (iv) Eastern The edicts of Asoka, found in different regions, represent the local language (the then prakrit) of that area. The edicts in the eastern region therefore present the then eastern language which was supposed to be Mg. The Dhauli and Jaugada Rock-edicts of Asoka, therefore, are the earliest specimens of Mg. prakrit. Though we do not find any prakrit grammar before or after Aśoka to determine the language of the Rock-edicts of Dhauli and Jaugada, it is assumed, on the basis of the characteristic features of Mg. as given by later gram Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 56 TULASI-PRAJNA, March, 1990 marians beginning from Vararuci (=Vr., 5th/6th cent, A.D.) down to the time of Mārkaņdeya (=Mk., 17th cent. A.D.) that they are written in Mg. prakrit. It is also noticed that all the characteristic features of later Mg. prakrit are not fully represented in Dhauli and Jaugada edicts of the basic characteristic features of Mg., such as, (a) r>I, (b) $,5>ś and (c) e- in the nominative singular of a. base, the two are available r>l and e. in the nominative singular of a base in Dhauli and Jaugada. With regard to the change of palatal sibilant, the Dhauli and Jaugadı Rock-edicts do not show any feature of palatal ś; whether palatal ś in Mg, was not developed till that time of the decipherment of ś was not fully recognized, is a matter of investigation now. But on the whole, it is assumed that though vital feature is absent, it is to be regarded as Mg. specimens. For our understanding we can give at least, one specimen of Mg. prakrit from Dhauli Rock-edicts.3 Vth ROCK-EDICT : DHAULI 1. (A) [Dev] ānampiye piyadasi lājā h [eva] m āhā (B) Kayāne dukale (C) ******[a) y [ā] n (a) sa s [e] dukalam kal [e] ti (D) se me 65[ah] uke kayāne kate (E) tam ye me p [u] t (ā) va 2. n [a] t [i*va)...... chat [e] na ye apatiye me āva-kapam tathā anuvatisati s [e] sukatam kachh [am] ti (F) e heta d [e] sai pi hāpayisat [i] se dukațaṁ kachhati (G) pā (pl e hi [nāma] 3. supa-dālaye (H) s [e] at [ikaṁ) tam astalam na huta puluvā dhamina-mahāmātā nāma (1) se tedasa-va [sā] bhisitena me dhamma mahāmātā nāma katā (J) te sava-pāsamde (su] 4. v [i] y sāpatā] dhammādhithān (ā] ye dhamma-[va] dhiye hita sukhaye (cha] dhamma-yutas [a] Yona-kaṁbocha-Gaṁdhālesu Lathika-[p] itenikesu e vā pi aṁne apalaṁtā5 (K) bhati (mayesu] 5. bābha [n] ibhi (yes)-u anāthesu ma [hāla) kesu cha h [i] + [a] sukhāye dhamma-yutāye a [pa) li bodhāye viyā (pa[ ţă se [L] baṁdhana-[ba] dhas [a] o [a] ți-[vidhānā] ye apalib [o] dhāye mokhāye cha 6. iya [m] anubamdh [a] p [ajl a? [t] i [va ka] țā bhikā [le] ti va mahālake ti va viyāpațā se (M) hida cha bāhilesu cha nagalesu savesu s [a] vesu olodhanesu [u me) e vā pi bhāt [i] name me bhagininaṁ va 7. aṁnesu vă [nāt] i [su sava] v [i] yāpaļā [N] e iyam dhaṁm [an] isite ti va dhammādhithāne tiva dāna-sayutе va sava-putha viyam dha (mm) ma-yutasi viyāpatā ime dhamima-maham (ā] tā (0) [i] m Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XV, No. 4 [āl ye athāye 8. iyaṁ phaṁma-lip [i] li [kh] i [tā] chila-thitīk [ã ho] tu t [athā] cha me pa [jā anu] vatatu ENGLISH TRANSLATION OF DHAULI ROCK-EDICT (V) AS GIVEN BY R.G. BASAK King Priyadarśī, the Beloved of the Gods says :-A good deed is difficult to perform. He who is the first doer (a pioneer) of good deeds does perform a difficult job. So many good deeds have been done by me. If in the same way will follow my sons and grandsons and my descendants after i hem until the end of the cycle (at existence), they will (Surely) do a good thing (indeed). But he who, in this matter, will cause any neglect or omission even of a part (of one's duty or of this commandment) will do ill. For sin is a thing which should be well weeded out or torn to pieces. A (long) interval has however, elapsed, (during when) high state functionaries for the department of the law of piety (called Dharmamahāmätras) were not appointed, but such Dharma mahāmātras were employed by me when I was consecrated thirteen years. They have been employed for the establishment of the Law of piety among all (religious) sects and for the good and happiness of the dharmayutas (the officers of lower rank in the dharma department, or those who are faithful in religion) through the growth or progress of dharma (the Law of piety). They are employed (specially) for the welfare and happiness of the Yavanas (Ionians or Greeks), the Kambojas and Gandhāras, and also of those other people who are in-habitants of the western border, and of the hired servants masters, of the Brāhmanas and the wealthy people, and of the helpless and of the people, and (they are employed also) to free the dharma-yutas from hard ship (or trouble). They are employed to see to the counteracting of the (judicial) sentence, freedom from hardship and the release of persons imprisoned, on the score of their being found to be attached to their children, of their being thrown over board (hurled into misery) or their being older in age. Here (probably, in the Capital city) and other outside towns, they have been everywhere employed in all the harems (royal female establishments) of my brothers and sisters and (also) over those others who are our relatives (or kins men). Then everywhere in my dominion these Dharmamahämätras are employed to see that the dharmyutas are devoted to the law of piety and are given to charity. For this edict of law of piety has been caused to be written, so that in my endure long and my people may act (or follo:v) accordingly. From the above it is evident that there are features of Mg. in the Dhauli Rock edicts, and these features are given below: Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ so TULASI-PRAJNĀ, March, 1990 (vi) iv) 1st Group no cerebral n, ii) no palatal nasal ñ, iii) initial y is dropped. iv) I forr, e becomes insted of o in place of masculine a-stem, 1st person, singular, locative -ASI 2nd Group difference of ñ and n, conservation of initial y, iii) r remains, nominative masculine o, v) Locative -amhi. The Dhauli Rock edicts of Asokan Inscriptions consist of fourteen in number. But Hultzsch does not record the all. The three of them. eleventh, twelvth and thirteenth have been omitted in his edition. Inspite of them, there are also saperate Rock edicts of Dhauli. Dhauli, a village is situated in the Khurda sub-division of Puri district in Orisa. Lieutenant Kittoe discovered the rock near Dhauli in 1837 and called it 'Aswastama'. It is situated on a rocky eminence forming one of a cluster of hills, three in number, on the south bank of the Dyah river". "The hills before alluded to rise abruptly from the plains and occupy a space of about five furlongs by three; they have a singular rence from their isolated position, no other hills being nearer than eight or ten miles. They are apparently volcanic, and composed of upheaved breccia with quartzose rock intermixed”. "The Aswastama is situated on the northern face of the southern most rock near its summit, the rock has been hewn and polished for a space of fifteen feet long by ten in height, and the inscription deeply cut thereon." "Immidiately above the inscription is a terrece sixteen feet by fourteen, on the right side of which (as you face the inscription) is the four half on an elephant, four feet hight, of superior workman. ship; the whole is hewn out of the solid rock”. 11 Hultzsch says thus, "while princep was examning a lithograph of Kittoe's copies, he found that the greater part of the Dhauli inscrip tion was identical with the Girnar edicis (JASB, 7. 157). He further ascertained that the Dhauli rock omits edicts XI to XIII of the Girnar Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XV, No. 4 59 version, but compensates for them by two seperate edicts (id., p. 219). These two he edited with a tentative translation (id., p. 438 ff.). adding Kittoe's lithograph of the whole Dhauli inscription (id. plate 10). As may be seen on this plate, ihe inscription is arranged in columns. The middle column contains I to VI, and the right column edicts VII to X and XIV, and below them, within a border of straight lines, the second seprate edict, while the first seperate edict, occupies the whole of the left column. Cunningham13 showed that it would be more correct to exchange the two designations, first and second seperate edict, : the seperate edict engraved in continution of edict XIV ought to be called No. I, and the one engraved seperately on the left No. II. This order is confirmed by the Jaugada rock (No. VIP, bellow) where Princep's No. II is actually placed above No I. But as all editors (beside Kern) have followed princep's arrangement, a change of numbers would now lead to much confusion, and it will be sufficient to keep in mind that the seperate edict No. I was engraved after No. VI”. Barnauf4 reedited and translated the two seperate edicts and Kern (JRAS, 1880. 379 ff) did the same of Cunnigham's copies. Senert's edition was almost based on Burgess and the same was done by Bühler in his Dhauli verson. He published it in German (ZDMG, 39.489 ff., and 41. 1 ff) and English (ASSI, 1. 114 ff.) Like Dhauli, there are also fourteen Rock edicts of Jaugada of Asokan Inscription and here also, the eleventh, twelvth and thirteenth have not been recorded in the edition of Hultzsch. Jaugada has two seperate rock edicts, they are First seperate rock edict and Second seperate rock edict by name. Jaugada the duplicate of Dhauli edicts, has been discovered from the ruined fort of Jaugada in the Berhampur tāluka, of the Ganjam District, Orisa, on the northern bank of the Rishikulya river. The inscribed rock "is situated in what appears to have once been an extensive but now deserted town, surrounded by the debris of a lofty wall”. "The rock is part of a large mass of rock or rocks, rising to various heights, and covering a large space of ground, I should say many thousand square yards”:15 “The Jaugaļa inscriptions are written on three different tablets on the vertical face of the rock”. “The first tablet contained the first five edicts, but about one half has been utterly lost by the peeling away of the rock”. Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 60 TULASI-PRAJNÁ, March, 1990 "The second tablet comprised the next five edicts, namely, 6 to 10, to which was added the 14th or closing edict of the other versions About one-third of this tablet has been lost by the peeling away of the rock." "The third tablet contained the two seperate or additional edicts which are found at Dhauli" "These two additional edicts are enclosed in a frame which seperates them from the collected series of Asoka's edicts.” “The seperation of these two edicts is mare distinctly marked by the accompaniment of the svastika simbol at each of the upper corners of the upper inscription, and of the letter m at the upper corners of the lower inscription."16 "Copies of the inscriptions were taken in 1950 by the present Sir walter Elliot, who was perfectly aware that they contained only another version of Asoka's edicts, which had already been found at shābāzgārhi, Girnar and Dhauli”. 17 IlIrd ROCK EDICT : JAUGADA 1. (A) Devā [na] ṁ piye piyadasi lājā hevam āhā (B) duvādosa vasābhisitena me iyam sā] ******cha päd [e] sike cha paṁchasu pamchasu vasesu anusyānam nikhamāvā athā amnāye pi kamma [n] *****[s] ā mita-samthute [s] ****** nātisu ch [a] bambhana-samanehi sādhu dāne jivesu [a] nālambhe sādhu******[y] i **** 4. hetute cha viyamjanate cha. TRANSLATION OF THE IIIrd ROCK ROCK EDICT OF JAUGADA 18 A. King Devānāmpriya Priyadarśin speaks thus. B. (When I had been) anointed twelve years, the following was orderd by me. C. (Every where) in my dominions the Yuktas, the Lajuka and the Pradesika shall setout on a complete tour (through out their charges every fiive years, just as for other business, even so for the following instruction in morality. D. Meritorious is obedience to mother and father, to friends and acquaintances, and to relatives. Liberality to Brāhmaṇas and Sramanas is meritorious. Abstention from killing animals is meritorious. Moderation in expenditure (and) moderation in Possessions are meritorious. E. And the council (of Mahāmātras) also shall order the Yuktas Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XV, No. 4 to register (these rules) both with (the addition of) reasons and according to the letter. After Asokan Inscription, there is an inscription found in the eastern region, commonly known as “Sutanukā inscription" dated 3rd century B.C, which is given below : <Šutanuka nama deyadašikyi19 tam kamayitha balanaśéyé Devadiné nama lupadakhé> (=, in Sanskrit - ) Sutanukā by name, a hand maid of the Gods (=temple-dancer), her loved he of Benaras, Devadinna by name, skilled in forms (=painter or sculptor ? skillled in figures or accunts ?). "The long vowels and double consonants are not shown in the original in the Jogimara cave on Rāmgarh Hill. The inscription is not old Brāhmi characters. The dialect is the old Magadhi. The meaning of lūpadakkhe (rūpadakşo) is doubt-ful : "skilled in painting" cf. (rūpakệt) have been suggested. Bālānaśēyē 'belonging to Benaras'. Kāmayittha. third person singular aorist, as an AMg''. 20 SANSKRIT DRAMAS The real specimens of Mg. prakrit are found in Sanskrit dramas. From the time of Ašvaghoşa (1st century A.D.) down to the time of Kālidāsa (5th/6th century A.D.) or even later than that till 1000 A.D., Mg. specimens are found in the respective Sanskrit dramas. In Aśvaghoșa's 'sāriputra prakaraņa31, though fragmentary, some specimens of Mg. are found. Though the features which the later prakrit grammarians sanction, are not fully available in Ašvaghoşa's drama as in the case of Asokan edicts, the passages of Mg. prakrit in the sāriputra prakarana are the earliest specimen of Mg literature. In the 'sāriputra prakarāņa", three prakrits are used of which one is Mg. which is spoken by the Duşta. It may be said in other way that the utterence of the Duşta is almost analogous to Mg. which is not very much differenf from Mg. described by the prakrit grmmarians. The features of Mg. which it maintains is l in place of r and only palatal ś as the representative of the three sibilants and e occurs in place of nominative singular of a-stem. But the hard letters do not act as soft, such as, bhoti and the intervocalic soft consonants, on the other hand, donot undergo to elisoin, for example : kumudagandha. Frequent use of n rather than ņ (eg. kalaná), presence of the full from Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ TULASI-PRAJNA, March, 1990 of consonants, such as, hāngho (hanho) and bambhano (bamhana) re. main stable ih Aśvaghoşa. Keitha thinks that the development of the laterform of a conjunct was perhaps unknown to Ašvaghoşa. He mentions that Ašvaghoșa uses jj rather than ry in place of rj. cch remains constant for śc. Like the very same way Aśvaghoṣa doesnot follow the original rule of Mg, on the respective issue. In his drama kkh remains, rather becoming sk or hk, in place of ks, th stands for $t or șth against sf, ahakam stands for ahake, hake or hage. Keith23 has further said that the old Mg. is spoken by the Gobań. It has a few similarity with Mg In it, I for r and e becomes in in nominative singular of a stem, but s is used in place of Ś as in Amg. In it dental becomes for cerebral. For example, vanna, the vowel before the suffix-ka becoms lengthened (vannikāhi), pupphâ the occurs in accusative neuter plural, and the example of an infinitive is bhumjitaye (bhuñjittaye). In this drama, hard consonats are not unchanged and there is no loss of intervocalie Consonants, occurs in place of I and the instrumental singular āhi occurs instead of nasal sound. Old Mg. is more similar with Mg. rather than AMg. In the opinion of Keith24 the difference between the old Mg. and its later development with regard to its characteristic features actually points out the variation of period. The same is found in metrical inscription of Asoka in Jogimārā cave on the Rāmgarh hill. After Aśvaghoşa comes Bhāsa (2nd/3rd century A.D.). Chronologically whether Ašvaghoşa is earlier to Bhāsa is a matter of dispute. But generally in the books of Sanskrit literature as written by Keith, Dasgupta and De, and others Bhāsa is placed after Aśvaghoşa. In any case both Bhāsa and Asvaghoşa are the earliest Sanskrit dramatists who have used Mg. prakrit in their respective dramas, the features of Mg. are generally regarded as archaic, because the main important features of Mg. as given by prakrit grammarians are not fully found there. However, the characters who use prakrit in Bhāsa's dramas are numerous Bhāsa25 has used Saur., Mg. and AMg. in his dramas while Aśvaghoșa used their older forms. Ašvaghoṣa in his dramas placed Mg. as the dialect of Duşta, the bad character of Magadha. Even Mg. has another style (i.e. Ardha Māgadhi) among those prakrits. The nature and charcteristic features of the prakrit language of Bhäsa may be compared with Ašvaghoşa and Kālidāsa. t and t in the language of Asvaghośa become d and d respectively in Bhāsa's dramas. Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XV, No. 4 63 In Kālidāsa's drams inter-vocalic k, g, c, j, t, d, p, b, v and y are lost, but this rule in the dramas of Ašvaghoşa is not maintained at all. Besides this, many contrasts in Mg. are prominent in Aśvaghoşa such as, y does not move into j, initia! nand medial n are not systematically used by him and the aspirates kh, gh, th, dh, ph and bh are not reduced into h. So many prakrit rules and its usages are perhaps unknown to Ašvagboşa. In case of conjunct consonants, Ašvaghoșa differs from Bhāsa and Kālidāsa. In Bhāsa's dramas ññ and în stand for jñ. Keith28 considers the latter perhaps wrong. On the other hand, Bhāsa does nn in place of ny and ny, but in those places Ašvaghoşa uses ññ. In case of compensatory lengthening of a vowel, the elision of a consonant is not known to Aśvaghoșa. The similarity in using of a short vowel and a double cosonant which ultimately alter the long vowel and the single consonant do not take place in Ašvagboşa's work. In the same context Bhāsa has used evva, evvam, jovvana, devva, ekka etc. But in place ry, Bhāsa like Aśvaghoșa, has done yy instead of jj as done by Kālidāsa. So many inflexional differences between Asvaghoşa and Bhāsa are not clear to us. Keith” says that the accusative plural of neuter a stems becoming ani and aim are found as well. Like wise in case of accusative masculine plural āni accurs in the Ardha-Māgadhi of Asokan inscriptionāņi. The locative singular of feminine becomes aaṁ and not åe as done in later period. attānań occurs in place of attānaań. To indicate 'we' Ašvaghoșa uses vayam, Kalidāsa amhe, but Bhāsa takes both and vaaṁ also. In genitive singular. Bhāsa uses both amhäaṁ and amhānań, but Asvaghosa does only amhākam in his works. The root v dars becomes dass and dams. 1 grah is represented by ganhadi and not geņhadi as found in later. And this is found in the works of Ašvaghoșa. The older form of karia and gacchia or gamia are changed into kadua and gadua. alam turns into mā with gerund. Keith 29 says that the above mentioned characteristic features are also included in Mg. and this Mg. is somethiag variable in two forms, one is of Pratijñā-Yougandharāyana and the Cārudatta and the other is of Poñcarātra. These two are ș and o inplace of sand e respectively. In most cases Ašvaghoșa does not maintain the proper grammatic rules, such as sț for Sanskrit șth or șt, śc for cch, sk or hk for ks. In place of ahake (later hage), there occurschakam and ny becomes nn rather than ññ in Asvaghoșa. Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ TULSI-PRAJNA, March, 1990 It is in the Mrcchakafikam of Sūdraka (2nd/3rd century A.D.), we have a variety of prakrit dialacts. It is in this drama only that we find not only Mahārāștri (=Mah.), Saur., and Mg., but also śākārī, Āvanti, Dhakki, Prāccyā, Däkşinātyā etc. We do not know yet any prakrit drama in the earliest time where such varieties of prakrit are available. It is surprising also to note that the features of Sākāri. though given by later prakrit grammarians like Purușottama (=pu.), Rāma Tarkavāgisa (=RT) and Mārkaņdeya (=Mk), do not practically tally with the features of Śākāri as given by śūdraka in depicting the character of Sakāra. However, if we rely on the editions as prepared by Godabole, Paranjape, Nerurkar, Karmarkar and others, we do not find really the features of Sākārī as depicted by later Prakrit grammarians like Pu., RT. and Mk It is also strange to note that Vr. being the earliest prakrit grammarian belonging to the 5th/6th century A.D. has not recorded any features of Sākāri dialect, even though Mrcchakațik seems to be earlier than Vr. However, as the editions of Godabole contains different readings in the foot note, we can sometimes trace some of the features of Mg. as recorded by prakrit grammarians. Hence, I have consulted Godabole's edition of the Mrcchakaţik. In the Mrcchakațikam, Mg. is spoken by the shampooer who turns to a monk later, Sthāvaraka, servant of Sakāra, Samsthānaka, Kumbhílaka, servant Vasantasenā, Vardhamānaka, servant of Cārudatta and the little Rohasena. Sakāra speaks sākāri and the two candālas cāņdāli. The chief gambler speak in Dhakki. The manuscripts shows the utterence of Rohasena wbich is described as Mg. is almost put in the other way of Saur. According to Prthvidhara, Sakāra, the brother-in-law of the king speaks sākāsī. This šākārī is suggested by Kramadīśvara (=Ki. 5.96) to be a form of Apabhraíša.30 Mk. has given its characteristic features in the 13th chapter of his prakrit grammar. Bharata (17.53) says : Sabarāņāṁ Śakādināṁ tatsvabhāvaśca yo ganah sakāra bhāṣā yokto vyā pāñcāli pulkasādiņu and in Sāhityadarpan : "Sakārānāṁ Śakādīnāṁ Śākārim Saṁprayojayer" In Godabole's edition, we see that y has been used before palatals. For example, yciştha for tiştha. But the pronunciation of this y is Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 65 Vol. XV, No. 4 weak, Mārkandeya thinks that it should be used in Mg. and Vrāçada Apabhraíśa. After Sūdraka comes Kālidāsa (5th/6th century A.D.). Kālīdāsa has three dramas - Māla vikāgnimitram, Vikramorvašīyam and Abhijñāna-Sakumtalam. Of these three, only the Sakuntalā has some passages of Mg. in the sixth act as spoken by the fisherman and the police officers. The brother-in-law of the king uses a language which is analogous to Säkāri But Keith suggests that his language is neither Sākāri or Māgadhi, nor Dākşinātyā but Saurasens in general. It is indeed true to say that Mg. passages of the Sakuntalā are very corrupt. Since the time of A.L. Chezy (1830 A.D.), several scholars, such as Böhtlink (1842), Monier Williams (1853, 2nd edition 1876) Fr. Bollensen (1880); Iswar Chandra Vidyasagar (1880), Pischel (1886, 2nd edition 1900), and many others have edited that the text consulting many manuscripts and giving variants in the foot notes. It is interesting to note that almost all the editors are not unanimous in selecting the reading of the Mg. passages in Sakuntală. Though basically the texts are the same, there are some passages of verses which are not found in others at all. These differences in reading of the passages of the Sakuntalā have given us impetus to group them into three catagories known as recensions It is guessed that there were three recensions of the Sakuntalā-Northern, Bengal and southern recensions. Northern recension is represented by Monier Williams edition, the Bengal recension is represented by Iswar Chandra Vidyasagar and then by Pischel, and the southern recension is suggested by Bollensen (1880). The prakrit passages of the sixth act of the Sakuntalā in all these recensions also suffer from this type of irregularities. It is at times very difficult to bring out the features of Mg. if different editions are not consulted. Pischel thinks that he has carefully edited the Sakuntalā, but when the reading is not corroborated with the features of Mg. as given by Hemacandra (Hc.), he has corrected the passage according to the grammar of Hc. Though by this method he has represented the text in a faithful manner, one question can be raised linguistically. When the text represents the Bengal recension, it means that the text belongs to the group of the eastern prakrit grammarians. As a result, the Mg. passages of the Bengal recension should be rectified or corrected with the help of the eastern prakrit grammarians. For example in Pischel's edition, we have Peskadi as given by Hc. (4.297), where as according to eastern prakrit grammarians it should be Peskadi. It seems also logical that instead of dental s, it should be palatal $ in Mg., be it conjunct or non-conjunct. However, we Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 66 TULASI-PRĀJÑA, March, 1990 have, atleast, the evidence of conjunct consonant with paltal é as given by the eastern prakrit grammarians, such as Pu , RT., and Mk. The Cowell's edition of Vr.'s prāksta prakāśa containing a chapter on Mg. dialect, though not found in all the manuscripts except a few, doesnot help us much in determining the features of Mg. In fact, in a sense Vr., though belongs to the eastern School, is very much similar to Hc. with regard to the features of Mg. However, have taken into consideration the Mg. passages of the three recensions of the Sakuntalā. In the other two dramas, there are no Mg. passages. After Kālidāsa, the Sanskrit dramas where we find the Mg. Passages are the Venisaṁhära of Bhațţa-Nārāyaṇa (before 800 A.D.) and the Müdrārākṣasa of Višākha datta (9th century A.D). Though the Mg. Passages in these two dramas are not really very remarkable, because of late origin it is consulted inorder to show how far these two authors have followed the features of Mg.as laid down by later prakrit grammarians. Bhatta-Nārāyaṇa (middle of 8th century A.D.) has also used Mg. in the third act of the Denisamhära through Rākşasa and his wife. The folloing rule have been maintained through their speeches-e for nominative singular of both masculine and neuter a-stems, I stands for r, å in place of vocative singular of a stem. Višākhadatta (9th century A.D.) in the Müdrārāksasa arranged Mg, only for a few characters. The Jaina monk, the two Candālas, Siddhārthaka and Samiddharthaka, a servant and an envoy deliver Mg as their dialect. Some peculirities of Mg. may be mentioned in this connection. Here in the Müdrārākşasa, ññ stands for în and sanskrit ny, hk for kş, Śc for cch, sth becomes st, st and sth turn into st and regular use of $, I and e are to be noticed. Likewise in Kțşņamiśra's Prabodha Candrodaya (11-12th century A.D) the disciple of Cārvāka and the messenger from Orisa speak Mg. the bards and the spy in the Lalita Vistara speak sākārī, the subdialect of Mg., the elephant drivers in Mallikāmărutam, the scoundrel, the Caņļālas, in Canda Kausikam have used Mg. as their own dialect. The above survey of Mg. passages in sanskrit dramas are not sufficient enough to form our ideas on the Mg. language. But these are consulted only to show that Mg. language was used in a literature or in a sanskrit drama which is very significant from the linguistic point of view. Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XV, No. 4 67 This survey will give us some ideas about the antiquity of the language. From the 4th/3rd century B.C. till the 10th century A.D., there was a flow of the use of language among the speakers of the then India. They can be grouped in three ways. In the first stage, the earliest specimens are represented by Aśokan Inscriptions in Dhauli and Jaugada edicts. In this stage all the features of Mg. as given by the later prakrit grammarians are not fully developed. In the second stage, still archaic, the Mg. prakrit as represented by Ašvaghoşa and Bhāsa are notfully developed, but there are some more Mg. features in them than Aśokan Inscriptions in the third stage, beginning from Sūdraka down to Bhațța Nārāyaṇa the Mg. passages are more or less of the same type as described by the grammarians. Though the variety of Mg, prakrit as found in the Macchakafik are not available anywhere else in the Sanskrit dramas, the question of their antiquity can not be ascertained owing to any definite proof. It is a fact worth noting here that the features of Mg. as given by all the prakrit grammarians, both eastern and western, are not fully available in the existing Sanskrit dramas even though the grammarians have described the features sometimes at a great length. However, for the present purpose, I have considered these literatures as are available in Sanskrit dramas. (To continue) References : 1. bhūta-bhāṣāmayim prähur adbhutārthām b$hatkathām-Kävyādarśa 1. 2. Ananta Prasad Banerjee Shastri, Evolution of Magadhi, Oxford, 1922. 3. As edited by Hultzsch in his Inscription of Asoka, Vol. I, Oxford, 1922. I also have given here the notes inserted by Hultzsch in the footnotes of his edition. 4. nat (i) Bübler. 5. apalamta Bühler. 6. Here, and at the end of section L, Franke (VOJ, 9.349 f.) joins viyāpatāse into one word, and takes it as an equivalent of the Vedic nominative plural in asaḥ. In the pillar edict VII, Y (twice) and CC, viyāpatase actually occurs. But as pointed out by Michelson (AJP, 32.442 f ), the casc may after all be differenta Dhauli, because the other versions have te in the place of se. 7. pa (ja) Bühler. 8. bhātinam Bühler. 9. R.G. Basak, Asokan Inscriptions, p. 27. 10. Can this name be due to a misreading of the word of gajetame, which is engraved below the figure of an elephant on the north face of the Kalsi rock, and which might have been originally engraved on the Dhauli rock too ? 11. JASB, 7 (1838), 435-7. For a sketch of the elephant see id., plate 25, and for a photogradh of it, the frontispiece of V.A. Smithe's Early History of India. 12. The commence-ment of each fresh edict is marked by a short horizontal dash, 13. Inscriptions of Asoka, pp. 16,20. 14 Hultzsch, Inscription of Asoka, Introduction, 15. W.F, Grahame in IA, I (1872), 219. Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ TULASI-PRAJNĀ, March, 1990 16. Cunningham's Inscriptions of Asoka, P. 19 f. In JPASB, 17. 232 f., Harit Krishna Deb very ingeniously explains svastika symbol as a monogram consisting of two Brāhmi O's, and the m as the final letter of ihe sacred syllablo um. 17. Cunningham, op. cit., p. 18. For further attempts to copy the 'Jaugada inscrip tions I may refer to the same page and to R. Sewell's Lists of Antiquities, Vol. 1, P. 4. 18. Hultzsch, Inscription of Asoka p. 103 19. Text and translation from SK, Chatterji's ODBL, Calcutta University, Calcutta, 1926. p. 59. 20. A.C. Woolner's Introduction to Prakrit, Extract No. 35. 1917. 21. For this drama, See Henrich Lūders, Bruchstüeke buddhistischer Dramen, 1911, SBAW, 1911, pp. 388 ff. 22. Sanskrit Drama p. 36. 23. Sanskrit Drama, p. 87 24. See Keith, Sanskrit Drama, p. 120 f. 25. For Bhāsa's Prakrit, see Wilhelm Printz, Bhāsa's prakrit, Frankfurt, 1921, trans lated into English by P.V. Ramanujaswami, Journal of the Shri Venkatesvara Oriental Institute, IV, 1943 pp. 1-20. 103-22. 26. Sanskrit Drama, P. 121 27. Sanskrit Drama, P. 122 28. ani in Pali, ani in the Ardha-Māgadhi of the Jain Canon Luders, SBAW. 1913 pp. 999 ff. 29. Keith refers in Sanskrit Drama p. 74. 30. Vide S.R. Banerjee's Prākstādhyāya by Kramadīśvara, Prakrit text society, 1980 cf. Lassen's Institutiones Linguae Prakritikao, p. 21. 31: Sanskrit Drama, p. 166. Abbreviations : 52JRA AMg.--Ardha Māgadhi IA-Indian Antiguary JASB-Journal of the Asiatic Society of Bengal JRAS–Journal of the Royal Asiatic Society Mg.--Māgadhi ODBL-Origin and Development of Bengali Language ZDMG-Zeitschrift für Deutschen Morgen Landischen Gesellschaft. DO Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फार्म ४ (नियम ८ देरिवए) १. प्रकाशक-स्थान : लाडनूं (नागौर, राजस्थान) २. प्रकाशन अवधि : त्रैमासिक ३. मुद्रक का नाम : जैन विश्व भारती प्रेस, जैन विश्व भारती, लाडनूं-३४१३०६ ४. प्रकाशक का नाम : श्री रामस्वरूप गर्ग, पत्रकार, भारतीय संयोजक, प्रेस-पत्र-प्रचार-प्रकाशन जैन विश्व भारती, प्रेस लाडन-३४१३०६ (राज.) ५. सम्पादक का नाम : डॉ० नथमल टाटिया श्री रामस्वरूप सोनी, एम० ए० डॉ० मंगल प्रकाश मेहता पता : सभी भारतीय शिक्षा व शोध विभाग, जैन विश्व भारती, लाडनं-३४१३०६ (राज.) ६. उन व्यक्तियों के नाम व पते । जैन विश्व भारती, जो समाचार पत्र के स्वामो (पंजीकृत संस्था) हों तथा जो समस्त पूंजी के लाडनं-३४१ ३०६ (राज.) एक प्रतिशत से अधिक के साझेदार या हिस्सा हों। __ मैं रामस्वरूप गग, पत्रकार, एतद् द्वारा घोषित करता हूं कि मेरो अधिकतम जानकारी एवं विश्वास के अनुसार ऊपर दिए गए विवरण सत्य दिनांक १-३-१९६० रामस्वरूप गर्ग, पत्रकार (प्रकाशक के हस्ताक्षर) Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 80.00 Registration Nos Postal Department : NUR--08 L Registrar of Newspapers for India : 28340/75 Vol.XV, No.4 TULASI-PRAJNA March, 1990 जैन विश्व भारतो, लाडनं महत्त्वपूर्ण प्रकाशन वाचना प्रमुख : प्राचार्यश्री तुलसी, विवेचक तथा सम्पादक : युवाचार्यश्री महाप्रज्ञ प्रागम ग्रंथ 1. अंगसुत्ताणि 1 (आयारो, सूयगडो, ठाणं, समवायो) 85.00 2. अंगसुत्ताणि 2 (भगवई : विवाहपण्णत्ती) 60.00 3. अंगसुत्ताणि 3 (णायाधम्मकहानो, उवासगदसानो, अंतगडदसायो, अणुत्तरोववाइयदसानो, पण्हावागरणाइ, विवागसूर्य) 4. नवसुत्ताणि (आवस्सयं, दसवेआलियं, उत्तरज्झयणाणि, नंदी, अणुओगदाराई, दसाओ, कप्पो, ववहारो, निसीहज्झयणं) पृ० 1300 250.00 5. उवंगसुत्ताणि, खण्ड 1 (ओवाइयं, रायपसेणियं, जीवाजीवाभिगमे) 200.00 6. उवंगसुत्ताणि, खण्ड 2 7. भगवती-जोड़, भाग-१ 130.00 8. भगवती-जोड़, भाग-२ 170.00 6. दसवेआलियं (द्वितीय संस्करण) पृष्ठ 612 साइज डिमाई 1/4 125.00 10. ठाणं पृष्ठ 1200 , 170.00 11. पायारो-मूलपाठ, हिन्दी अनुवाद तथा टिप्पण 50.00 12. समवाओ (द्वादशांगी का चतुर्थ अग) पृष्ठ 468 साइज डिमाई 1/4 15.. 13. सूयगडो-१ (द्वादशांगी का द्वितीय अंग) पृष्ठ 700, साइज डिमाई 1/4 200.00 14. सूयगडो-२ 150.00 15. आगम शब्दकोश (अंगसुत्ताणि शब्दसूची) खण्ड 1, भाग 1 (नेट) 20.00 16. देशी शब्दकोश, (लगभग 14000 देशी शब्द सहित), पृ० 638 100-00 17. निरुक्त कोश, सम्पादक : साध्वी सिद्धप्रज्ञा एव साध्वी निर्वाणश्री 60-00 18. एकार्थक कोश, सम्पादक : समणी कुसुमप्रज्ञा प्रागमेतर ग्रंथ 1. Illuminator of Jaina Tenets - Acharya Tulsi 150.00 Eng. Trans.-Dr. N.M. Tatia and Muni Mahendra Kumar 2. भगवान् महावीर-प्राचार्य तुलसी 5.00 3. श्रमण महावीर—युवाचार्य महाप्रज्ञ 3000 8.50 Years of Selfless Dedication 15.00 5. जैन धर्म के प्रभावक आचार्य-साध्वी संघमित्रा 50.00 6. पाइअ संगहो, संकलनकर्ता : मुनि विमलकुमार 20-00 7. तुलसी मञ्जरी (प्राकृत व्याकरण), : युवाचार्य महाप्रज्ञ, - -: प्राप्ति-स्थान : Jain Vishva Bharati, Ladnun (Raj.) 341306 प्रकाशक-मद्रक : रामस्वरूप गर्ग, संयोजक, प्रेस-पत्र-प्रचार-प्रकाशन, जैन विश्व भारती. लाडनूं, द्वारा जैन विश्व भारती प्रेस, लाडनूं में मुद्रित। Jain Education Internationa 7-00 50.00