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उदारता तथा स्तोता की विनयशीलता का वर्णन अत्यन्त सुन्दरता से किया है" ।
ग्यारहवीं शताब्दी में ही वादिराजसूरि ने "ज्ञानलोचन स्तोत्र" और "एकीभाव स्तोत्र" २१ की रचना की है । विनयहंसगणि का “जिनस्तोत्र कोश" तथा भूपाल कवि कृत " जिनचतुर्विंशतिका १२ के नाम भी उल्लेखनीय हैं ।
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इस प्रकार जैन संस्कृत स्तोत्र परम्परा के विकास में ११ वीं शताब्दी विशेष रूप से उल्लेखनीय है । इस शती में जम्बू जैन, शिवनाग, शोभनमुनि कुमुदचन्द्र तथा वादिराजसूरि जैसे उत्कृष्ट स्तोत्रकार हुए जिन्होंने अपनी स्तुतिपरक रचनाओं के द्वारा जैन स्तोत्र परम्परा के विकास में महनीय योगदान किया ।
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आचार्य हेमचन्द्र ने बारहवीं शताब्दी वि० सं० १९४५ - १२२६ ( तदनुसार ईस्वी सन् १०८६-११७३) में अन्ययोग व्यवच्छेदद्वात्रिंशिका और अयोगव्यवच्छेदद्वात्रिंशिका महावीर स्तोत्र, "वीतराग स्तोत्र" तथा महादेव नामक पांच स्तोत्रों का प्रणयन किया । आचार्य हेमचन्द्र ने पूर्वाचार्यों की स्तोत्र रचनापद्धति का अनुवर्तन किया तथा अपने अगाध ज्ञान का आश्रय लेकर अनेक महत्त्वपूर्ण तत्त्वों का समावेश भी किया ।
आचार्य हेमचन्द्र के शिष्य रामचन्द्र ने बारहवीं शताब्दी (सन् १९०६ - ११७६ ई० ) आदिदेवस्तव, मुनिसुव्रतदेवस्तव, नेभिस्तव और जिनस्तोत्र ४: ' तथा अनेक द्वात्रिंशिकाओं का प्रणयन किया । रामचन्द्रसूरि ने द्वात्रिंशिकाओं का विरोध उपमा, दृष्टान्त, अर्थान्तरन्यास, व्यतिरेक, अपन्हुति आदि अर्थालंकारों से किया । कवि असग मन्त्री आह्लाद, मन्त्री पद्म तथा धर्मघोषसूरि ने इसी धारा को और विकसित किया। बारहवीं शताब्दी में ही जिनवल्लभसूरि" ने भवादिवारणं, अजितशान्तिस्तव, पंचकल्याणस्तव, सर्वजिन पंचकल्याणकस्तव, पार्श्वनाथ स्तोत्र, सरस्वती स्तोत्र, सर्वजिन स्तोत्र, ऋषभजिनस्तुति एवं महावीरस्वामी स्तोत्र आदि का प्रणयन कर संस्कृत स्तोत्र साहित्य को समृद्ध बनाने में अपना महनीय योगदान किया है ।
तेरहवीं शताब्दी में पं० आशाधर ने सिद्धगुणस्तोत्र का प्रभसूरि ( १२५० - १३२५ ई) ने ४६ पद्यमय सिद्धान्तागमस्तव १७ पद्यमय पार्श्वस्तव ९, २१ पद्यमय गौतमस्तोत्र, २५ पद्यमय वीरस्तव, १६ पद्यमय वीरकल्याणस्तव ९, ११ पद्यमय ऋषभजिनस्तव, २९ पद्यमय अजितजिनस्तवन" तथा २७ पद्यमय वीरस्तवन" आदि का प्रणयन किया । देवी पद्मावती की कृपा से इन्हें प्रखरवंदुष्य प्राप्त था । वे प्रतिदिन नवीन स्तोत्र की रचना कर के ही आहार ग्रहण करते थे । यही कारण है कि जिनप्रभसूरि ने विभिन्न छंदों, यमक, श्लेषादि अलंकार तथा विविध छंदों के विभिन्न प्रयोगों से युक्त ७०० स्तोत्रों का निर्माण किया ।" इस प्रकार जिनप्रभसूरि ने संस्कृत साहित्य में अनेक स्तोत्रों की रचना कर कीर्तिमान स्थापित किया ।
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पद्मनन्दि भट्टारक ने वीतरागस्तोत्र, शान्तिजिनस्तोत्र, रावणपार्श्वनाथ स्तोत्र और जीरापल्ली पार्श्वनाथस्तवन का प्रणयन किया । जयतिलक ने सन् १३४६-१४१३ में हारावली चित्र स्तोत्र " तथा कुलमण्डनसूरि, जयतिलकसूरि, जयकीर्तिसूरि, साधुराजगणि आदि आचार्यों ने चित्रकाव्यमय स्तवों का प्रणयन किया । सहस्त्रावधानी मुनिसुन्दरसूरि
खण्ड १५, अंक ४ (मार्च, १० )
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प्रणयन किया । २७ जिन
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