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________________ में स्तोत्र का गुम्फन किया है। दो चरणों की समान आवृत्ति वाले यमक का प्रयोग यहां सर्वप्रथम हुआ है । इनके पिता का नाम बप्प तथा माता का नाम भट्टि था । मातापिता के संयुक्त नाम के आधार पर इनका नाम बप्पभट्टि रखा गया । जैन संस्कृत स्तोत्र परम्परा को विकसित करने में बप्पभट्टि की भूमिका प्रेरणादायक रही है । विद्यानन्द ईसा की नवम शती ( सन् ७८३-८४ ) * १० विद्यानन्द "श्रीपुरपार्श्वनाथस्तोत्र' का प्रणयन किया । इसमें ३० पद्य हैं । स्रग्धरा, शार्दूलविक्रीडित्, शिखरिणी और मन्दाक्रान्ता छन्दों का प्रयोग किया गया है । दार्शनिक स्तोत्र होते हुए भी इसमें काव्यतत्त्व की प्रधानता विद्यमान है । कवि ने आराध्य की प्रशंसा में रूपक अलंकार की सफल योजना की है । " कवि ने भक्ति-निष्ठा के साथ दार्शनिकों द्वारा अभिमत आप्त का निरसन किया है । प्रवाहपूर्ण भाषा एवं उदात्त शैली का प्रयोग आचार्य विद्यानन्द की अन्यतम विशेषता है । जिनसेन द्वितीय नवम शताब्दी में जिनसेन द्वितीय ने जिनसहस्त्रनाम स्तोत्र का प्रणयन किया । इस स्तोत्र के आरम्भ में ३४ श्लोकों में नाना विशेषणों द्वारा तीर्थंकर का स्तवन किया गया है । तत्पश्चात् दश शतकों में सब मिलाकर जिनेन्द्र के १००८ नाम गिनाये हैं । इन नामों में ब्रह्मा, शिव, विष्णु, बुद्ध, इन्द्र, बृहस्पति आदि नाम भी आये हैं । सुदीर्घस्तोत्र - कार के रूप में जिनसेन द्वितीय अविस्मरणीय आचार्य हैं । जम्बूमुनि ग्यारहवीं शती" में जम्बूमुनि ने "जिनशतक" नामक स्तोत्र की रचना की । कवि ने इसमें स्रग्धरा छंद का प्रयोग तथा शब्दालंकारों का सुन्दर समावेश किया है । शिवनाग ग्यारहवीं शती" में ही शिवनाग ने “पार्श्वनाथमहास्तव", "धरणेन्द्रोरगस्तव " अथवा "मन्त्रस्तव" की रचना कर जैन संस्कृत स्तोत्र परम्परा के विकास में अपना योगदान किया है । शोभनमुनि ११६ ग्यारहवीं शताब्दी में शोभनमुनि ने “चतुर्विंशति जिनस्तुति का प्रणयन किया । शोभनमुनि ने इसमें यमकमय स्तुतिपरम्परा को आगे बढ़ाया । इस कृति पर ८ टीकाकृतियों का प्रणयन हुआ । कवि धनपाल ने भी इस पर टीका की है । याकोबी ने जर्मन में तथा प्रो० कपाड़िया ने गुजराती और अंग्रेजी में इस स्तोत्र का अनुवाद किया ।" एकाधिक भाषा में अनुवाद तथा टीकाएं इस स्तोत्र की लोकप्रियता के प्रमाण हैं । कुमुदचन्द्र ग्यारहवीं शती में कुमुदचन्द्र ने "कल्याणमन्दिर"" नामक स्तोत्र की रचना की । इसमें ४४ पद्य हैं तथा भगवान् पार्श्वनाथ की स्तुति की गई है। इसमें आराध्य की २२ तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524561
Book TitleTulsi Prajna 1990 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages74
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size4 MB
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