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________________ के आधिक्य से दिव्य लोकों की, रजोगुण की वृद्धि से आसक्तियुक्त मनुष्ययोनि एवं तमोगुण की अधिकता से कीड़े, पशु, वृक्ष, लता एवं तामसी (मूढ़) योनियां प्राप्त होती हैं ।' कर्मानुसार स्वभाव, स्वभावानुरूप संकल्, कषाय, कार्मण, तेजसादि शरीर बनते हैं । ये शरीर विनाशी एवं परिवर्तनशील हैं। गीता के ये कथन पुनर्जन्म में आस्था के प्रतीक हैं । प्रायः सभी आस्तिक दर्शन पुनर्जन्म में विश्वास करते हैं। बौद्ध एवं जैन (भारतीय नास्तिक दर्शन) भी पुनर्जन्म के समर्थक हैं। क्षणिकवाद को मानते हुए भी बुद्ध कर्मफल एवं पुनर्जन्म में पूर्ण विश्वास रखते थे। एक बार पर में कांटा चूभा तो इसका कारण बताते हुए वे अपने शिष्यों से बोले-इस जन्म से इक्यानवें (६१) जन्म पूर्व मेरी शक्ति (शस्त्र विशेष) से एक पुरुष की हत्या हुई थी, उसी कर्म के प.लवश मेरा पैर बिंधा है। यह उदाहरण बौद्धों की पुनर्जन्म में दृढ़ निष्ठा व्यक्त करता है । क्षणवाद एवं पुनर्जन्म के सिद्धांत में प्रतीत होने वाले विरोध को दूर करने के लिए बौद्ध दीपशिखा का उदाहरण देते हैं कि एक दीप रात भर जलता है किन्तु प्रथम पहर की लौ और दूसरे पहर की लो अलग-अलग होती है। यही नहीं, प्रथम क्षण और दूसरे क्षण की लौ भी भिन्न है। तेलरूप प्रवाह के कारण जलने वाली लौ प्रतिक्षण नई पैदा हो रही है किन्तु बाहर से एक ही वर्तिका प्रतीत होती है। अलग-अलग लो नहीं दिखायी देती। इसी तरह प्रत्येक वस्तु के अस्तित्व के विषय में एक अवस्था उत्पन्न होती है, एक लय होती है । एक के लय होते ही दूसरी के उठ जाने से प्रवाह की दो अवस्थाओं में एक क्षण का भी अन्तर नहीं रहता है । इसीलिए पुनर्जन्म के समय न वही जीव रहता है न दूसरा ही हो जाता है । एक जन्म के अन्त में विज्ञान के लय होते ही दूसरे जन्म का प्रथम विज्ञान उठ खड़ा होता है। भवचक्र से बौद्धों ने क्षणिकवाद को स्वीकार करते हुए भी जीव का (अस्तित्व की इच्छापर्यन्त) पुनर्जन्म माना है।' जैन दार्शनिकों के अनुसार कर्मवश आत्मा पुनर्जन्म के चक्कर में पड़ा रहता है। जीवन जैसा इस भव में है वैसा ही परभव में होना आवश्यक नहीं है। भगवान् महावीर का दृढ़ विचार है कि कार्य का कारणानुरूप होना एकान्तिक नियम नहीं । वैसे भी कारणानुरूप कार्य के होने पर भी भवान्तर में कर्मवैचित्र्यवश विचित्रता आ जाती है । गीता एवं योगादि में भी कर्म वैचित्र्य स्वीकृत है ।१२ जैनाचार्यों के अनुसार कुछ महात्मा पूर्वभव को जातिस्मरणज्ञान से जान सकते हैं । १३ कुछ नास्तिक पुनर्जन्म की सत्ता में विश्वास नहीं करते। उनका कहना है कि पुनर्जन्म में विश्वास करके अदृष्ट की कल्पना में दृष्ट फल का परिहार करना मूर्खता है। अप्रत्यक्ष के संदिग्ध होने से दिवेकी को प्रत्यक्ष सुख की प्राप्ति हेतु ही प्रयत्न करना चाहिए। ऐसे विचारों को दार्शनिक दृष्टि से न देखकर जीवन-व्यवहर की दृष्टि से ही देखें तो भी ये उचित नहीं लगते । पाप-भय के अभाव में व्यक्ति हिंसा, असत्य, शोषणादि कुकृत्यों से एक दूसरे को पीड़ित कर सुखार्जन करने लगेंगे । क्योंकि डर किस बात का ? अगला जन्म तो है नहीं जो कर्मफल भोगने पड़ेंगे। इससे (परस्पर शोषण, नैतिक मूल्यों एवं मानसिक गिरावट से) संसार में कोई सुखी नहीं रह सकता। परलोक के संदिग्ध होने पर भी सज्जनों के लिए असत् आचरण त्याज्य ही है । इसलिए परलोक तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524561
Book TitleTulsi Prajna 1990 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages74
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size4 MB
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