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महावीर की परम्परा का प्रारम्भ आर्य सुधर्मा स्वामी से होता है । आर्य सुधर्मा जम्बू, प्रभव और शायम्भव आदि प्रमुख आचार्यों से लेकर आर्यव्रज और फाल्गुनमित्र तक का विवेचन किया गया है । इस व्याख्या क्रम में उनके प्रमुख प्रमुख पट्टधर शिष्यों तथा उनसे निःसृत कुल, गण शाखाओं, प्रशाखाओं की भी विस्तृत सूची प्रस्तुत की गयी है ।
सूत्र में भी एक स्थविरावली नामक प्रकरण है जिसमें इन्द्रभूति से लेकर नागार्जुन आचार्य तक का वर्णन किया गया है ।"
समाचारी : - इसमें साधुओं की आचार परम्परा तथा चातुर्मासिक विशेष विद्याओं का आकलन किया गया है । जैसे -- स्थान, आसन, संस्तारक, भोजन, लुञ्चन, पात्र तथा उत्सर्ग विधि, अपवाद विधि की व्याख्या प्रस्तुत की गई है ।
परिषद् में परिवाचना :-- -छेद सूत्रों की परिवाचना पहले परिषद में नहीं होती थी । इस शोध प्रधान युग कोई भी तथ्य गुप्त नहीं रह सकता । आज जैन आगम साहित्य के विभिन्न ग्रंथों पर शोध का उपक्रम चल रहा है। हाल ही में डा० श्रीमती मधुसेन का 'निशीथ चूर्णि' पर शोध निबन्ध प्रकाशित हुआ है । जिसमें उसने धर्म और दर्शन के आधार पर नये तथ्य भी उजागर किये हैं । प्रस्तुत कल्पसूत्र की वाचना तो कई वर्षों से चली आ रही है । सर्वप्रथम इसकी वाचना राजा ध्रुवसेन के पुत्र की मृत्यु होने पर आश्वासन के रूप में हुई थी । तब से अब तक पर्युषण में यह क्रम वाचना का चलता रहा है और वर्तमान में भी यही क्रम चल रहा है ।
संदर्भ :
१. पज्जोसमणाए अक्खराई होति उ इमाहं गोण्णाई, परियाय ववत्थणा पज्जोसमणा य पागइया । परिवसणा पज्जुसणा, पज्जोसमणा य वासावासो थ, पढ़म समोसरणं तियं, ठवणा जेट्ठोग्गेहगट्ठा ॥ -श्री दशाश्रुत स्कन्ध निर्युक्ति गा० ५३-५३, पृष्ठ ५२
२. कल्पसूत्र - सूत्र - ११
३. ललित विस्तरा -पृष्ठ- २२
४. दीर्घनिकाय -- ३१४ पृष्ठ- २४५
५. बृहदारण्यकोपनिषद् --- १०४१११ पृष्ठ- २६६
६. ठाणां --- ५। सूत्र - ७
७. पञ्चाशक शास्त्र -पृष्ठ-६
८. नन्दी सूत्र संख्या - ४-५ तथा श्लोक २० से ४२ तक गणधर सम्पादक - पुण्यविजयजी
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बुलसी प्रज्ञा
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