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के भण्डार में उपलब्ध हुई है। यह भी ताड़पत्रीय प्रति है। द्वितीय प्रति में पुष्पिका छ: पद्यों में गुम्फित है। एक प्रति सारा भाई नवाब के संग्रहालय में उपलब्ध हुई है। कागज में लिखित प्रतियों में से एक भी प्रति ऐसी नहीं है जो कि तेरहवीं सदी से पहले की हो । ताड़पत्रीय प्रतियों में एक प्रति अवश्य है जो कि संवत् १२४७ की है और जो खंभात से प्राप्त है। अतिरिक्त सारी प्रतियां चौदहवीं एवं पन्द्रहवीं शताब्दी की हैं । इन सभी प्रतियों में भाषा और मूल पाठ में बहुत विषमता है। तथा कहीं-कहीं अति संक्षेप भी है । इसलिए यह निर्णय नहीं लिया जा सकता कि कौनसी प्रति बिल्कुल शुद्ध एवं मूल रूप में है। प्राचीनतम प्रति में चौदह स्वप्नों का आलंकारिक वर्णन बिल्कुल नहीं है। लेकिन प्राचीन प्रतियों में यह वर्णन कुछ अवश्य मिलता है तथा पुरातन प्रतियों में अंक संख्या भी उपलब्ध नहीं होती। १६वीं तथा १७वीं शताब्दी की प्रतियों की संख्या अवश्य मिलती है । इससे सिद्ध होता है कि संकात्मक पद्धति बाद में विकसित हुई हो। डा० जेल माल्स फोर्ड ने जैसलमेर में इन प्रतियों का निरीक्षण किया और उन्होंने कहा कि अभी इस विषय में और अन्वेषण अपेक्षित है। टिप्पण लेखक श्रीमद्पृथ्वीचन्द्र ने भी मूलपाठ में कहीं-कहीं विसंगति होने से चूणि का सहारा लिया है।
विद्वानों का अभिमत सत्य प्रतीत होता है कि चूर्णिकारों एवं टीकाकारों ने भी मूलपाठ में कहीं-कहीं परिवर्तन कर दिया है। जहां भी अर्थ बोध नहीं हुआ वहीं उन्होंने अपनी मति के अनुसार शब्दों में काट-छांट कर दी। व्याकरण भी परिवर्तित
प्राचीन और अर्वाचीन व्याकरण में भी बहुत अंतर है । हेम व्याकरण में 'य श्रुति' का विधान है। प्राचीन व्याकरण में इकार का प्रयोग मिलता है। जैसे–चई, चइत्ता आदि । अर्वाचीन में 'ह्रस्व संयोगे' सूत्र को काम में लिया जाता है। जैसे—गुत्त, जुत्त, पुण्णिमा प्रभृति । प्राचीन में ह्रस्व नहीं होता, वहां गोत्त, थोत्त शब्द प्रयुक्त
"क ग च ज त द प य वां प्रायो लुक्" "ख च य थ भां ह" इन सूत्रों का प्रयोग भी नहीं के बराबर है। 'असण पाण खामस' इन शब्दों का संक्षिप्तिकरण भी मिलता है। जैसे-अ-पा-खा-सा। चार संख्या के प्रतीक शब्दों की संघटना भी उस युग में प्रचलित थी । जैसे असण ठक् असण टक् और असष । छः संख्या के सूचक शब्द फ, फा, फ, फ्रा का भी प्रयोग मिलता है । अतः व्याकरण भेद बहुत स्थानों पर मिलता है । इन सारे तथ्यों से इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि इसमें प्रक्षिप्तांश तो अवश्य है लेकिन कहां कितना है यह अब तक भी अन्वेषणीय है। इसलिए इसकी प्रामाणिकता अब तक भी संदेहास्पद है। ... ग्रंथ परिचय :-यह गद्यात्मक है। इसकी सूत्र संख्या (२८८) है। इसमें ३ विभाग हैं। (१) जिन चरित्र (२) स्थिरावली (३) समाचारी। जिन चरितावली के १८१ सूत्र हैं। स्थिरावली के ४१ और समाचारी के ६६ सूत्र हैं। सूत्रों की कुल संख्या २८८ है।
तुलसी प्रज्ञा
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