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का जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति से, स्थिरावली का नंदी सूत्र से और समाचारी विभाग भी आगम सम्मत प्रतीत होता है लेकिन यह नितान्त यथार्थ है, ऐसा नहीं कहा जा सकता, क्योंकि इसका मूलस्वरूप ही संदेहास्पद है।
पाश्चात्य विद्वानों ने इस संदर्भ को अभिव्यक्त करते हुए कहा है कि चौदह सपनों का आलंकारिक वर्णन इसमें बाद में जोडा गया है। समाचारी और स्थिरावली का भी कुछ अंश बाद में प्रक्षिप्त किया गया है। इस प्रक्षिप्तांश को भाषा भेद से भी सिद्ध किया जाता है। जबकि चौदह सपनों का आलंकारिक काव्यात्मक भाषा में वर्णन किया गया है और इसमें समास की भी बहुलता है तथा अन्य सारा वर्णन साधारण भाषा में किया गया है । यह एक प्रामाणिक सत्य है कि रचयिता का भाषा प्रवाह प्रायः समान गति से प्रवाहित होता है। जिस प्रवाह में ग्रंथ प्रारंभ होता है उसी प्रवाह में प्रायः समाप्त हो जाता है। काव्यों में छंद भेद तो होता है लेकिन भाषा का प्रवाह समान ही होता है। इस प्रक्षिप्तांश के आधार पर ही बेबर की यह एक अवधारणा बन गई कि यह देवद्धिगणि की रचना है। उनके अभिमतानुसार इस कल्पसूत्र के तीन खण्ड हैंप्रथम खण्ड में भगवान महावीर का जीवन दर्शन, दूसरे खण्ड में पूर्ववर्ती तेईस तीर्थंकर
और तीसरे में स्थिरावली का वर्णन है। बेबर की धारणा तो प्रमाणिक प्रतीत नहीं होती क्योंकि देवद्धि गणी की अपेक्षा हमें भद्रबाहु के प्रमाण प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होते हैं। ज० विन्टर निटस के अनुसार प्रथम में जिन चरित्र, दूसरे में स्थिरावली और तीसरे में समाचारी का निरुपण है। इन तीनों के संयुक्त भाग को ही कल्पसूत्र की संज्ञा दी गई है । वर्तमान में ग्रंथ का स्वरूप यही उपलब्ध होता है। प्राचीन प्रतियां
कल्पसूत्र की प्राचीनतम छः प्रतियां मिलती हैं। जिसमें कई प्राचीन हैं, कई प्राचीनतम हैं। अहमदाबाद के उजमभाई की धर्मशाला में मुक्तिविजयजी के ज्ञान भण्डार में ताड़पत्र की एक प्रति प्राप्त हुई है। तीन प्रतियां खंभात के शांतिनाथ नामक ज्ञान भण्डार में प्राप्त हुई हैं। जिनकी पत्र संख्या क्रमशः १७४८७ और १५४ है। खंभात से प्राप्त दो प्रतियों में पुष्पिका भी लिखी हुई है। एक पुष्पिका यहाँ उद्धत की जा रही है
"संवत् १२४७ वर्षे सुदि ६ बुधे अधेह श्री भृगु कच्छे समस्त राजावलि विराजित महाराजाधिराज उमापति वरलब्ध प्रसाद जंगन जनार्दन प्रताप चतुर्भुज श्रीमद्भीमदेव कल्याण विजय राज्ये एतद् प्रसादावाप्त श्री लाटदेशे निरूपित दण्ड श्री शोभन देवे अस्य निरुपणया मुद्रा व्यापारे रत्नसिंह प्रतिपत्तौ इह श्री भृगुकच्छे श्रीमदाचार्य विजयसिंह सूरि पट्टोद्धरण श्रीमज्जिनशासन समुच्चय आदेशनामृत पय प्रजापालक अबोध जनपथिक ज्ञान श्रम पीलित कर्ण पटु पेय परममोक्षास्पद विश्राम श्रीमदाचार्य श्री पद्मदेव सूरि।"
_ 'मंगल महाश्री "छ" ग्रंथ २२०० "४" नामक एक प्रति साराभाई मणीलाल नवाब के संग्रहालय की है। लेकिन यह प्रति कागज पर लिखी हुई है। एक प्रति पुण्य विजयजी खण्ड १५७ अंक ४, (मार्च, ६०)
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