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________________ ७. प्रथम समवसरण____ चातुर्मास के योग्य क्षेत्र में होने वाले प्रथम प्रवेश को प्रथम समवसरण कहा जाता है। ८. स्थापना ऋतुबद्ध की अपेक्षा वर्षावास की आचार परम्परा कुछ विलक्षण होती है इसलिए इसकी एक संज्ञा स्थापना है। ९. ज्येष्ठावग्रह ऋतुबद्ध काल में श्रमण एक स्थान में एक मास तक रह सकता है, किन्तु वर्षावास में चार मास एक स्थान पर रहता है इसलिए इसे ज्येष्ठावग्रह कहा जाता है। कल्प कल्प शब्द का अर्थ-आचार, मर्यादा, व्यवहार, नीति, विधि और समाचारी है। आचार्य उमास्वाति के अनुसार जो अनुष्ठान ज्ञान, शील और तप का उद्वर्तन और दोष परम्परा का अपवर्तन करता है वह कल्प है। वर्तमान में यह पर्युषण कल्प 'कल्पसूत्र' के नाम से विख्यात हो गया। इसकी सबसे प्राचीनतम टीका 'संदेहविषोषधि" है, जिसके रचयिता जिनप्रभसूरि हैं और इसकी रचना ई० सन् १३०७ में हुई थी। जिनप्रभसूरि ने अपनी टीका में सर्वप्रथम इस लघु नामका प्रयोग किया। तत्पश्चात् दशाश्रुत स्कन्ध से मुक्त होकर यह स्वतंत्र ग्रंथ के रूप में प्रकाशित हुआ । स्वतंत्र संज्ञाकरण होने के पश्चात् इसकी संरचना के विषय में नाना अभिमत और नाना कल्पनाएं उभरने लगीं। कई मनीषियों का यह चिन्तन है कि नन्दी सूत्र में एक कल्प का नाम आया है जो वर्तमान में बृहत् कल्प के नाम से प्रसिद्ध है। उत्कालिक सूत्र की तालिका में चुल्लकल्प और महाकल्प-ये दो नाम भी उल्लिखित हैं। महाकल्प को विलुप्त हुए तो हजार वर्ष हो गये, अतः संभावना की जाती है कि चुल्लकल्प सूत्र ही कल्पसूत्र की संज्ञा से अभिहित हुआ हो। लेकिन यह चिन्तन यथार्थ प्रतीत नहीं होता क्योंकि इसे प्रमाणित करने के लिए अब तक कोई भी पुष्ट आधार उपलब्ध नहीं है। यह ग्रंथ स्वतंत्र संरचना नहीं है। इसे सिद्ध करने के लिए तो महत्वपूर्ण प्रमाण इसकी नियुक्ति और चूणि है । यदि यह ग्रंथ स्वतंत्र होता तो दशाश्रुत स्कन्ध की नियुक्ति और चणि में इसकी विवेचना नहीं मिलती । लेकिन नियुक्ति और चूणि में इन्द्र आगमन गर्म चक्रमण अट्टणशाला, जन्म, प्रीतिदान, दीक्षा, केवलज्ञान, वर्षावास, निर्वाण आदि समस्त विषयों का संक्षिप्त प्रस्तुतीकरण हुआ है जो कि कल्पसूत्र में उपलब्ध होता है। अतः यह कल्पसूत्र दशाश्रुत स्कन्ध की आठवीं दशा है न कि कोई स्वतंत्र ग्रंथ। इसके नियुक्ति कर्ता कौन थे—यह तो एक स्वतंत्र विषय है । प्रामाण्य का धरातल संदेहास्पंद कल्पसत्र को कई आचार्यों ने प्रामाणिक सिद्ध करने के लिए प्रयत्न किया है। उनके चिन्तनानुसार श्रमण भगवान महावीर का जीवन आचारांग से, भगवान ऋषभ तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524561
Book TitleTulsi Prajna 1990 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages74
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size4 MB
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