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________________ क्रमण करके व्यक्ति और समाज दोनों भय, आतंक व चिन्ता से ग्रस्त होते हैं । यदि व्यक्ति सार्वभौम व्यवस्था का पालन करे तो अभय और निरातंक होकर चिन्ता से मुक्त हो जाएगा । क्रोध रहित जीवन इसका एक हेतु है । वशिष्ठ श्रीराम से कहते हैं - अभयं वै ब्रह्म मा मै षी' - ' - अभय रहो और अभय राखो । जैन साधना पद्धति में आभ्यंतर तप के अन्तर्गत प्रायश्चित, स्वाध्याय, ध्यान और व्युत्सर्ग का विवेचन कपाय - विजय का अमोघ अस्त्र है । आधुनिक मनोरोग चिकित्सा में भी ध्यान को अत्यन्त महत्त्वपूर्ण माना है । बायोएथिक्स और वायोफीड बेक प्रणाली ध्यान की क्षमता को उजागर करती है । मनोविज्ञान की अवधारणा चारित्रिक शुद्धता के साधन हैं - 'कहु एवं अविजाणओ बितिया बालस मंद्या ।' गलती करके उसे स्वीकार न करना दुगुनी मूर्खता है । निशीथ चूर्णि में आत्मालोचन और प्रायश्चित से चरित्र - शुद्धि, आत्म-शुद्धि, संयम, ऋजुता, मृदुता आदि का विकास होता है । उत्तराध्ययन सूत्र के अनुसार प्रायश्चित से व्यक्ति सभी संवेगों से मुक्त होता है । जैन धर्म में कायोत्सर्ग का भी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान है । क्रोध की स्थिति में जो मानसिक और शारीरिक उग्रता व तनाव होता है—उसका उपचार है कायोत्सर्ग, जिससे स्थिरता और जागरूकता के साथ-साथ शुद्ध चैतन्य की अनुभूति होती है । 'भाव विशुद्धि, मानसिक एकाग्रता अन्तदर्शन, व विवेकीकरण की यही आधारभूमि है। विवेक विचार, उचित-अनुचित का ज्ञान सदाचार के लिए अनिवार्य है । आचाराङ्ग में महावीर बार-बार विवेक सहित संयम में रत हो, जीवन पथ पर चलने का उपदेश देते हैं । जो वीर हैं, क्रियाओं में संयत हैं, विवेकी हैं, सदैव यत्नवान है, दृढ़दर्शी व पापकर्म से निवृत्त हैं और लोक को यथार्थ रूप में देखते हैं ऐसे ज्ञान और अनुभवपूर्ण तत्त्वदर्शी की उपाधि नहीं होती । शुक्ल ध्यान के चार लक्षणों में विवेक तीसरा लक्षण है । जैन सिद्धांतों के अनुसार इन्द्रिय विषयों और कषायों का निग्रह कर ध्यान और स्वाध्याय के द्वारा जो आत्म-दर्शन करता है, उसी को तप धर्म होता है । असंयम से निवृत्ति और संयम में प्रवृत्ति क्रोध के परिहार के लिए जैन धर्म ज्ञान, ध्यान और तप पर बल देता है | ज्ञान, ध्यान और तप का विपुल विवेचन जैनागमों में उपलब्ध है । जैन शिक्षा पद्धति जीवन निर्माण का नियामक और धारक तत्त्व है । शिक्षा सूत्र के अनुसार पांच कारणों से शिक्षा प्राप्त नहीं होती । शिक्षा के लिए आवश्यक उपायों में सत्यरत होना, आक्रोधी रहना, अशील न होना, इन्द्रिय और मनोविजय मुख्य हैं । इस सूत्र में भावों के सद्भाव के निरूण में जो श्रद्धा को सम्यक्त्व कहा गया है, जिसके दस भेद उल्लिखित हैं । व्यक्ति के आन्तरिक रूपान्तरण में भिक्षा पद्धति का भी महत्त्वपूर्ण स्थान है । जीवन निर्माण की प्रक्रिया विद्याध्ययन से प्रारम्भ होती है । युवाचार्य महाप्रज्ञ ने जीवन विज्ञान में जिस भिक्षा पद्धति का विवेचन-विश्लेषण किया है वह यही उपक्रम है । जीवन के चतुर्दिक और सम्यक विकास के साथ व्यक्ति के, आन्तरिक रूपान्तरण का, आत्मानुशासन का, जो सर्वोपरि मूल्य है - मानसिक, बौद्धिक व भावात्मक विकास का, समभाव, सहिष्णुता और अन्तर्बाह्य स्वस्थता का - युवाचार्य महाप्रज्ञ के शब्दों में जब तीन विकास हो जाते हैं - प्राण व्यक्ति का विकास, अर्न्तदृष्टि का विकास और अनुशासन तब स्वतंत्र खण्ड १५, अंक ४ (मार्च, ६० ) ३६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524561
Book TitleTulsi Prajna 1990 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages74
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size4 MB
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