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________________ वर्तमान और भविष्य की आशंका, एवं अमनोज्ञ का उपहृत, उसके अतीत, वर्तमान व भविष्य की आशंका, आचार्य उपाध्याय के मिथ्यावर्तन का भय आदि । भगवान् बुद्ध ने तीन प्रकार के मनुष्यों का उल्लेख किया है— एक वे है, जिनका क्रोध प्रस्तर पर उत्कीर्ण रेखा की भांति दीर्घकाल तक रहता है । दूसरे वे हैं जिनका क्रोध अल्प पृथ्वी पर खिची रेखा के समान अल्प- कालीन होता है और तृतीय प्रकार के वे हैं जिनका क्रोध जल पर खिश्री रेखा के सदृश होता है-वह अपनी प्रसन्नता नहीं खोता, समभाव रखता है— इस प्रकार 'मद् ध्यायति तद् भवति' (अंगुत्तर निकाय भाग-१) । भगवान् महावीर ने क्रोध कषाय का वर्णन ही नहीं किया वरन् उसके उपशमन की भी विधि बतायी है । हम आगे देखेंगे कि आधुनिक मनोविज्ञान की अवधारणाओं से क्रोध का यह निरूपण और उपचार मिलता-जुलता है । महावीर कहते हैं कोहादि रागभावक्खय पहुदि-भावणाए णिग्गहणं । पायच्चित्तं मणिवं णियगुचिन्ता य णिच्छयदो । क्रोध आदि भावों के उपशम की भावना करना तथा निज गुणों का चिन्तन करना निश्चय से प्रायश्चित्त तप है, इसे ही आधुनिक मनोविज्ञान में अन्तर्निरीक्षण ( इन्ट्रोस्पेक्शन ) कहा है । 'अन्तर्निरीक्षण' व्यक्ति मानसिक उद्वेग व असंतुलन को नष्ट कर देता है । यदि क्रोधित व्यक्ति अन्तर्निरीक्षण करे, तो उसका आवेश उद्वेग शीघ्र ही समाप्त हो जाएगा और वह पुनः स्वस्थ होगा । आत्मचिन्तन के साथ-साथ शील और सत्य भावना भी क्रोध का क्षय करती है । दशवैकालिक (८-३८) के अनुसार 'उवसमेण' हणे कोहं' — क्रोध का हनन शान्ति से होता है । संयम और विनय से शुभ भावनाओं के द्वारा व्यक्ति क्रोध के मनोविकार से मुक्त होता है— (द्रष्टव्यभगवती आराधना - १४०६ - ७ - ८ ) । इस प्रकार तप, ज्ञान, विनय और इन्द्रिय-दमन क्रोध के उपशमन के साधन हैं । भाषा समिति के अन्तर्गत कहा गया है कि क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, भय, बाचालता व विकथा के प्रति सतत उपयोगयुक्त रहना अभीष्ट है । इसी प्रकार वही प्रशान्तचित्त है, जिसने क्रोध को अत्यन्त अल्प किया है। महावीर स्वामी कहते हैं— क्रोध पर ही क्रोध करो, क्रोध के अतिरिक्त और किसी पर क्रोध मत करो । क्रोध के शमन के लिए अध्यात्म और स्वाध्याय आवश्यक है । अपने चित्त को अन्तर्मुखी कर शास्त्र का अवलम्बन ले अन्तःकरण शुद्ध करना क्रोध पर विजय पाना है । आचार्य हरिभद्र कहते हैं जिस प्रकार जल वस्त्र की कलुषता नष्ट कर देता है, उसी प्रकार शास्त्र भी मनुष्य के अन्तःकरण में स्थित काम क्रोधादि कालुष्य का प्रक्षालन करता है । क्रोध का हनन क्षमा होता है । क्षमा ही क्रोध का उपचार है । क्रोध की क्षमा से, मान की मार्दव से, माया की आर्जव से और लोभ की संतोष से विजय होती है । उत्तम क्षमा धर्म के दस लक्षणों में प्रथम है -- ' उत्तमरवममद्द - वज्जव' । भयंकर से भयंकर उपसर्ग पर भी जो क्रोध नहीं करता है, वही 'तस्स खमा ३४ तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524561
Book TitleTulsi Prajna 1990 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages74
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size4 MB
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