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________________ उत्साह वीर पुरुष का भूषण है पर क्रोध के अभिभूत हो कर्तव्यच्युत होकर वह कदाचार करना प्रारम्भ कर देता है । प्रलाप में उसके कथन में न संगति रहती है और न औचित्य । क्रोध रूपी अज्ञान को नष्ट करना सर्वाधिक आवश्यक है। जैन धर्म में क्रोध को प्रथम कषाय गिना है। वीर प्रभु ने सर्वदा क्रोध के शमन पर बल दिया 'लम्हा अति विज्जो नो पडि संजलिज्जा सित्ति बेमि।' विद्वान् पुरुष क्रोध से आत्मा को संज्वलित न करे । भगवान् महावीर का आदेश अक्को सेज परो भिक्खं, न तेसि पडि संजले । सरिसो होइ बालाणं, तम्हा मिक्ल न संजले । यदि कोई भिक्षु को अपशब्द कहे तो भी वह क्रोध न करे । क्रोधालु व्यक्ति अज्ञानी होता है । आक्रोश में भी संज्वलित न हो। 'रखेज्ज कोई'-क्रोध से अपनी रक्षा करेवही धर्म श्रद्धा मार्ग है । देवेन्द्र नमिराजर्षि से कहते हैं-'अहो ते निज्जिओ कोहोआश्चर्य है कि तुमने क्रोध को जीत लिया। प्रवचन में भाषा समिति में भी कहा है : क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, भय, वाचालता व विकथा के प्रति सतत उपयोग युग्म रहे । क्रोध विजय से जीव शांति को प्राप्त होता है। क्रोध वेदनीय कर्म का बन्ध नहीं करता । पूर्वबद्ध कर्मों की निर्जरा प्राप्त होती है । क्रोधादि के परिणाम आत्मा को कुगति में ले जाते हैं। क्रोध चार प्रकार का होता है- अनंतानुबन्धी (अनंत), अप्रत्याख्यान (कषाय विरति से अवरोध के कारण), प्रत्याख्यान (सर्व विरति का अवरोध करने वाला) और संज्वलन (चरित्र का अवरोध करने वाला)। ठाणं में पुनः चार प्रकार का आयोग-निवर्तित (स्थिति को जानने वाला), अनायोग निवर्तित (स्थिति को न जानने वाला), उपशांत (क्रोध की अनुदयावस्था), अनुपशांत (क्रोध की उदयावस्था ४-८८) बताया गया है। क्रोध १८ दोषों में तृतीय दोष है-सांसारिक वासना का अभाव कषाय का क्षय करता है-केशीकुमार के प्रश्न पर गणधर गौतम कहते हैं-'कसाया अग्गिणोवृत्ता सुय-सील-तवो जलं'-क्रोध रूपी कषाय को बुझाने की अग्नि श्रुत, शील, तप रूपी जल है । यही नहीं, प्रभु तो यहां तक कहते हैं कि क्रोधी को शिक्षा प्राप्त नहीं होती। चौदह प्रकार से आचरण करने वाला संयत मुनि भी अविनीत है, यदि वह बार-बार क्रोध करता है और लम्बी अवधि तक उसे बनाए रखता है । महावीर स्वामी कहते हैं कि क्रोध विजय से जीव शांति प्राप्त करता है। क्रोध मनुष्य के पारस्परिक प्रेम और सौमनस्य को समाप्त करता है—'कोहो पीइं पणासेइ' । वह आत्मस्थ दोष है—बैर का मूल, घृणा का उपधान । क्रोध के अनेक कारणों का भी आगमों में उल्लेख है। उसकी उत्पत्ति क्षेत्र, शरीर, वस्तु और उपाधि से होती है-क्षेत्र अर्थात् भूमि की अपवित्रता, शरीर अर्थात् कुरूप, अंग-दोष, वास्तुगृह से और उपाधि का अर्थ है उपकरणों के नष्ट होने से । अन्य प्रकार से उसके दस हेतु हैं---मनोज्ञ का अपहरण, उसके अतीत व खण्ड १५, अंक ४ (मार्च, ६०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524561
Book TitleTulsi Prajna 1990 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages74
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size4 MB
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