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________________ कारों ने भिन्न-भिन्न प्रकार से अनेकान्त की व्याख्या की है, जो अपने-अपने दृष्टिकोण से उपयुक्त है । सर्वप्रथम आचार्य चक्रपाणि दत्त द्वारा विहित व्याख्या का अनुशीलन .करते हैं जो निम्न प्रकार है : , “अनेकान्तो नाम अन्यतरपक्षानवधारणं यथा--ये ह्यातुराः केवलाद भेषजावृते, . म्रियन्ते न च ते सर्व एव भेषजापपन्ना, समुत्तिष्टेरन् ।" -"चरक संहिता सिद्धिस्थान १२/४३ पर चक्रपाणि टीका अर्थात् दूसरे पक्षों का अनवधारण करना अनेकान्त कहलाता है । जैसे जो रोगी केवल भेषज के बिना मर जाते हैं, वे सभी रोगी भेषज से युक्त होने पर ठीक नहीं होते। यहां पर केवल एक का ही कथन महर्षि द्वारा नहीं किया गया है, अपितु अन्य पक्ष का समर्थन भी किया गया है । जो रोगी पूर्ण चिकित्सा नहीं मिल पाने के कारण मर जाते हैं, वे सभी रोगी पूर्ण चिकित्सा मिलने पर ठीक हो ही जाते हैं, यह आवश्यक नहीं है । अर्थात् उसमें से भी कुछ रोगी पूर्ण चिकित्सा मिलने पर भी मर जाते हैंयह आशय है । यहां पर महर्षि ने अपनी बात कहने के लिए अनेकान्त का आश्रय लिया है। इसी को और अधिक स्पष्ट करते हुए आगे कहा गया है कि सभी व्याधियां उपाय साध्य नहीं होती हैं। जो रोग उपाय (चिकित्सा) से साध्य हैं, वे बिना उपाय (चिकित्सा) के अच्छे नहीं होते। असाध्य व्याधियों के लिए षोडश्कल भेषज (चिकित्सा) का विधान भी नहीं है, क्योंकि विद्वान् और ज्ञान सम्पन्न वैद्य भी मरणोन्मुख रोगियों को अच्छा करने में समर्थ नहीं होते हैं । अनेकान्त को महर्षि सुश्रुत ने कुछ दूसरे ढंग से प्रस्तुत किया है, किन्तु आशय . वही है । जैसे "क्वचित्तथा क्वचिदन्यथेति यः सोऽनेकान्तः । द्रव्यं प्रधान, केचिद्रसं, केचिद्वीय, केचि विपाकमिति।" -सुश्रुत संहिता, उत्तरातन्त्र ६५/२४ अर्थात् कहीं ऐसा और कहीं अन्यथा-इस प्रकार जो कथन किया जाता है वह अनेकान्त है । जैसे-कुछ आचार्य द्रव्य को प्रधान बतलाते हैं, कुछ रस को, कोई वीर्य को प्रधान मानते हैं, तो कोई विपाक को। यहां जो उदाहरण दिया गया है वह समन्वय एवं व्यापक दृष्टिकोण का प्रतिपादक है । आयुर्वेद शास्त्र में सामान्यतः द्रव्य, रस, गुण, वीर्य, विपाक और प्रभाव में द्रव्य को प्रधान माना गया है, किन्तु भिन्न-भिन्न स्थिति में पृथक्-पृथक् रूप से रस, गुण, वीर्य, विपाक और प्रभाव को प्रधान मानने वाले आचार्यों के मतों को भी समादत किया गया है जो अनेकान्त की भावना पर आधारित हैं । इसमें यद्यपि कुछ विरोधाभास प्रतीत होता है, किन्तु वस्तुत: वह विरोध या विरोधाभास न होकर दृष्टिकोण की उदारता और व्यापकता है जो समन्वय मूलक है । खण्ड १५, अंक ४ (मार्च, ६०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524561
Book TitleTulsi Prajna 1990 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages74
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size4 MB
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