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(जानने योग्य) विषय में ज्ञान वहीं होता है ।
अनेकान्त प्रतिपादन की दृष्टि से पुनर्वसु का उपर्युक्त कथन विशेष महत्त्वपूर्ण है ! एकान्तवादियों के द्वारा स्वरूप प्रतिपादन हेतु किए गए प्रयास की तुलना उन्होंने तेल पेरने वाले मनुष्य से की है, जो निरन्तर एक निश्चित दायरे में घूमता हुआ एक ही बिन्दु पर पुनः आ जाता है और अन्य बातें उसके लिए महत्त्वहीन एवं निःसार होती हैं। पुनर्वसु ने अपने दृष्टिकोण को व्यापक बनाते हुए इस तथ्य का प्रतिपादन किया है कि जब किसी वस्तु या विषय विशेष के अन्वेषण एवं लक्ष्य प्राप्ति हेतु प्रवृत्ति की जाती है तो आग्रहपूर्वक स्वपक्ष या अपनी बात दूसरों पर नहीं लादी जानी चाहिये। यदि ऐसा किया जाता है तो इससे न तो वस्तु स्वरूप की मर्यादा की प्रतीति होना सम्भव है और न ही लक्ष्य प्राप्ति की जा सकती है। एकान्त सदैव मतभेदों को बढ़ाता है, जबकि अनेकान्त उन्हें दूर कर सार्वभौम सत्य का प्रतिपादन करता है । एकान्त एकांगी होता है, अतः इससे वस्तु का एक पक्ष ही उद्भासित होता है और सत्य की पूर्णता उसे आवृत्त नहीं कर पाती है । सत्य की अपूर्णता वस्तु के यथार्थ स्वरूप के प्रतिपादन में बाधक होती है और कई बार उससे भ्रामक बातें ही प्रचारित की जाती है, किन्तु अनेकान्त के द्वारा ऐसा नहीं होता है।
यह तिविवाद और असंदिग्ध रूप से कहा जा सकता है कि महत्त्वपूर्ण विषयों के प्रतिपादन में आयुर्वेद-शास्त्र में स्थान-स्थान पर अनेकान्त का आश्रय लिया गया है। जैसे वस्तु स्थिति से अनभिज्ञ कतिपय दुराग्रही एवं एकान्तवादी लोगों का यह दढ़मत है कि विष का प्रयोग सर्वथा जीवन का हरण करता है । तीक्ष्ण विष के प्रयोग से तो मनुष्य का प्राणान्त अवश्यम्भावी है । किन्तु वस्तुस्थिति इससे भिन्न है। इसी तथ्य को जब अनेकान्त के परिप्रेक्ष्य में देखा गया तो महर्षि अग्निवेश को कुछ और ही अनुभव हुआ। उन्होंने तीक्ष्ण विष के विषय में स्वानुभूत पदार्थ का विवेचन इस प्रकार से किया
योगावपि विषं तीक्ष्णमुत्तमं भेषजं भवेत् । भेषजं चापि दुर्युक्तं तीक्ष्णं सम्पद्यते विषम् ॥ तस्मान्न भिषजा युक्तं युक्तिबाह येन भेषजम् । धीमता किंचिदादेयं जीवितरोग्यकाक्षिणा॥
-चरक संहिता, सूत्रस्थान १११२६-१२८ अर्थात् विधिपूर्वक सेवन (प्रयोग) करने से तीक्ष्ण विष भी उत्तम औषधि हो जाता है और अविधि पूर्वक प्रयोग की गई श्रेष्ठ औषधि भी तीक्ष्ण विष बन जाती है। इसलिए जीवन और आरोग्य की इच्छा रखने वाले बुद्धिमान् मनुष्य के द्वारा युक्ति बाह्य (युक्ति पूर्वक प्रयोग नहीं करने वाले) वैद्य से कोई भी औषधि नहीं लेनी चाहिये।
यहां पर अपेक्षा पूर्वक विष का विषत्व और भेषजत्व प्रतिपादित किया गया है। साथ ही युक्तिपूर्वक प्रयोग की अपेक्षा से औषधि का भेषजत्व और विषत्व बतलाया गया बण्ड १५, अंक ४ (मार्च, ६०)
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