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अपना शिकार बनाया, रोम के निवासियों ने ईसाइयों पर अपाशविक अत्याचार किए। मध्ययुग की क्रूसेड धर्मान्धता के प्रमाण थे। भारत में चंगेज खां, मोहम्मद गौरी, तैमूर खां, नादिर शाह आदि आक्रामकों ने धर्म-विरोध व सत्ता के मद में कत्ले आम किया। आधुनिक युग में हिटलर ने लाखों यहूदियों को मौत के घाट उतारा । यहूदियों का देवता भी प्रतिशोध का देवता है । राष्ट्र और समाज की यह उग्रता और आक्रामक प्रवृत्ति सामूहिक होते हुए भी, मूलतः व्यक्ति परक है । डॉ० लियोपेडो ने इस पर विशेष प्रकाश डाला है । डा० मिडोने अपने ग्रंथ 'क्रोध' (एन्ग्र) में यह बताया है कि मनुष्य का इतिहास एक दृष्टि से क्रोध का इतिहास है । इंजील में यह प्रतिपादित किया गया है कि मनुष्य की सृष्टि के उपरान्त ही क्रोध की उत्पत्ति हुई। प्रलय में नोहा की कल्प कथा में ईश्वर ने मनुष्य को ही समाप्त करना चाहा । आदम और इव के दोनों पुत्रों ने क्रोध के कारण एक दूसरे का वध कर दिया। यहीं प्रश्न उठता है कि क्रोध होता क्यों है ? डॉ० मेडो इसका उत्तर इस प्रकार देते हैं । प्रथम कारण है-नैराश्य, विफलता, महत्त्वाकांक्षा, स्वाग्रह, परिवेश के साथ असंतुलन, स्व-पीड़न व पर-पीड़न आकांक्षा । व्यक्ति की विकृत काम वासना भी क्रोध का एक कारण है।
क्रोध का परिणाम अत्यन्त घातक होता है। डॉ० मेडो का कथन है कि मनुष्य के लिए यह सर्वाधिक घातक संवेग है। मनुष्य की स्नायविक प्रक्रिया सहानुकम्पी (पेरासिम्पथेटिक) व अनुकम्पी (सिम्पेथेटिक) नाड़ियों पर निर्भर करती है। सहानुकम्पी दैनिक कार्य-कलापों का संचालन करती है-मनुष्य की पाचन क्रिया, स्वास्थ्य लाभ आदि इससे होते हैं। अनुकम्पी नाड़ियों की आवश्यकता आपातकालीन स्थिति में सहायक होती है। सहानुकम्पी शांति का सूचक है और अनुकम्पी उत्तेजक स्थिति का । उत्तेजना की स्थिति में हृदय पर भार पड़ता है, रक्त चाप बढ़ जाता है, शर्करा का अधिक प्रयोग होता है । अधिवृक्क (ऐडरीनल) ग्रंथि से स्राव भी अधिक होने लगता है । क्रोध की अवस्था में यही दैनिक क्रिया है । इसका दु:खद परिणाम है-शिरःशूल, तनाव, अधिक रक्त चाप, गंठिया, हृदयरोग, मानसिक असंतुलन, मधुमेह, श्वास प्रक्रिया की तीव्रता, आमाशय शोथ आदि । कभी-कमी जब आक्रामक प्रवृत्ति अनियंत्रित होकर गहन अवसाद में परिणत हो जाती है, तब व्यक्ति आत्महत्या भी कर लेता है। मनुष्य के भीतर एक सृजनात्मक वृत्ति होती है और दूसरी ध्वंसात्मक । एरिक वन का अभिमत है कि मनुष्य को अपनी ध्वंसात्मक वृत्ति समाप्त कर लेने के लिए कुछ निश्चित उद्देश्य निर्धारित करना चाहिए-इनमें आध्यामिक उन्नति ही मुख्य है। हम आगे चलकर देखेंगे कि 'प्रेक्षा ध्यान' किस प्रकार मानसिक संतुलन के साथ मनुष्य की ध्वंसात्मक प्रवृत्ति को भी समाप्त करने में सहायक होता है । बर्न कहते हैं कि भय व क्रोध का हनन करने के लिए व्यक्ति को अपनी सारी ऊर्जा का आभ्यंतरीकरण करना चाहिए। व्यक्ति चाहे यह न जाने कि वह क्रोधित है, पर उसका हृदय इसे जानता है। क्रोध का घातक परिणाम सारे शरीर पर पड़ता है । डॉ० विलियम्स का मत है कि दिल का दौरा क्रोध के कारण ही अधिक होता है, वैमनस्य और क्रोध ही इसके हेतु हैं। एक अन्य विद्वान् इवो० के० फियराबेंड कहते हैं कि क्रोध व आततायीपन का निषेध कर व्यक्ति को खण्ड १५, अंक ४ (मार्च, ६०)
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