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________________ २७वा अक्षर, 'ह' ३३वां अक्षर, 'म' २५वां अक्षर है । यों चारों वर्णों की संख्या २३+ २७-३३+२५ १०८ है । ब्रह्म में अष्टोत्तर शतत्व भरा है । इसीलिए १०८ की संख्या परम् पवित्र मानी गई है । इस संसार की उत्पत्ति ब्रह्म से हुई है, एतदर्थ संसार की संख्या देखें तो स + अं स - आ + र = ३२+१५+३२÷२÷२७ १०८ होते हैं । विशिष्टाद्वैत में सीता और राम भिन्न होते हुए भी अभिन्न हैं, इन दोनों शब्दों का प्रयोग होने से 'पूर्ण' बनते हैं । अतः दोनो शब्दों के संयोग से ही १०८ की संख्या पूर्ण होती है। राम में ३ अक्षर हैं -र + आम । र 'क' से २० वां, आ + 'अ' से दूसरा तथा 'म' २५वां अक्षर है अतः इनकी संज्या २७+२+२५ ५४ हुई । सीता में चार अक्षर हैं स स 'क' से ३२वां, ई 'अ' से चौथा, त १३वां तथा आ 'अ' से दूसरा अक्षर है अतः ३२+४+१६+२ ५४ हुई, दोनों मिलाकर १०८ की संख्या पूर्ण हुई 1 त तथा आ । ***** इसी प्रकार हरगौरी, राधिका-कृष्ण की संख्या आधी-आधी ५४ / ५४ मिलकर पूर्ण होती है । वैज्ञानिक दृष्टिकोण से संयुक्त नामोच्चार सीताराम, राधिका - कृष्ण का विशेष महत्त्व है । इस पूर्णत्व के कारण नाम स्मरण से हमारे मन, प्राण में एक अपूर्व शक्ति का संचार होता है । योगशास्त्र के अनुसार योगियों ने रात और दिन में हमारे श्वासों की संख्या २१६०० की मानी है, जिसमें १०८ श्वास सुषुम्ना के हैं जिसे योगी साधकर सिद्धि प्राप्त करता है । = सामान्यतः आठ प्रहर ( २४ घंटे) की श्वासोश्वास की क्रिया में १२ संधिकाल आते हैं । इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना में श्वास की क्रिया सतत होती है । इस क्रिया के बीच संधिकाल के समय १० श्वास सुषुम्ना के माने गए हैं । एतदर्थ १२० श्वासें हुयीं । किन्तु संधिकाल के प्रारम्भ की और अन्त की श्वास आधी-आधी होती है । इसी तरह संधिकाल में से एक श्वास छोड़ दी जाती है । इस प्रकार शेष १०८ पूर्ण श्वास सुषुम्ना नाड़ी में प्रवेश करती हैं । यह १०८ श्वास' ब्रह्मदशा की मानी जाती है । योगीजन इसे सिद्ध करते हैं । जिन्होंने यह सिद्धि प्राप्त की, उनके नाम के आगे १०८ लिखा जाता है । ८ उस योगसूत्र के अनुसार हमारे देहस्थान में ८ चक्र हैं- मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपूर, नाभि, अनाहत, हृदय, आज्ञा और शून्य ( सहजावस्था ) । इसी साधना द्वारा कुण्डलिनीशक्ति जागृत होती है । जैन भगवती सूत्र १४ । ६६ । ७० में भी इसका उल्लेख परम साक्षात्कार- प्राप्ति एवं शिवस्वरूप बनने के लिए मनुष्य को चाहिए कि वह आयुष्य के शतं शरद ( १०० वर्ष ) तक आराधना करके उसी अवस्था को प्राप्त करे । १०० + १०८ – इस तरह यह संख्या आध्यात्मिकता की परिचायक है । २८ जीव इस जगत् पर जब जन्म धारण करता है तो वह जन्मकुण्डली में १२ राशिस्थान के 8 ग्रहों से आवृत रहता है । इस तरह १२ +8 १०८ हुए। इस प्रकार १०८ के सम्मुख फलित करने पर योग ८ होता है । अथवा १० +८ = - १८ हुए । १८ में १+ ६ ही हुए । ६ संख्या बड़ी रहस्यमयी है । इसे पूर्णांक कहा है । इस अंक से बड़ा ८= तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524561
Book TitleTulsi Prajna 1990 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages74
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size4 MB
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