Book Title: Sramana 1993 04
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अप्रैल-जून १६६३ वर्ष 88 अंक8-६ Rampat . Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादक डा० प्रशोक कुमार सिंह वर्ष ४४ प्रधान सम्पादक प्रो० सागरमल जैन प्रस्तुत प्रङ्क में १. आचार्य हरिभद्र और उनका साहित्य अप्रैल-जून, १९९३ - डॉ० कमल जैन २. षट्जीवनिकाय में त्रस एवं स्थावर के वर्गीकरण की समस्या - ५. शोक समाचार ६. जैन जगत वार्षिक शुल्क चालीस रुपये - प्रो० ३. पूर्णिमापक्ष भीमपल्लीयाशाखा का इतिहास - शिवप्रसाद सह-सम्पादक डा० शिव प्रसाद ४. वसन्तविलास महाकाव्य का काव्य-सौन्दर्य ० सागरमल जैन - डॉ केशव प्रसाद गुप्त अंक ४-६ एक प्रति दस रुपये १ १३ २२ ३६ ६० ६१ यह आवश्यक नहीं कि लेखक के विचारों से सम्पादक अथवा संस्थान सहमत हों । Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य हरिभद्र और उनका साहित्य - डॉ. कमल जैन महत्तरा याकिनीसूनु के नाम से प्रसिद्ध आचार्य हरिभद्र जैन परम्परा के एक विशिष्ट विद्वान हुये हैं। वे प्रखर प्रतिभा से सम्पन्न एवं बहुश्रुत थे । दर्शन, साहित्य, न्याय, ज्योतिष और योग जैसे गंभीर विषयों पर लेखनी चलाकर उन्होंने अपनी प्रतिभा का परिचय दिया । जन्म से वैदिक धर्मानुयायी ब्राह्मण होने के कारण वैदिक साहित्य का उनका गहन अध्ययन था । जैन योग के वे आदिप्रणेता थे। उन्होंने अपनी समकालीन विकसित दार्शनिक विचारधाराओं का गहन अध्ययन किया था । आगमिक क्षेत्र में वे प्रथम टीकाकार हुए। उन्होंने लोक प्रचलित कथाओं के माध्यम से धर्म- प्रसार को एक नया रूप दिया । धार्मिक तत्त्वज्ञान के साथ-साथ तत्कालीन सामाजिक और व्यावहारिक ज्ञान का भी महत्त्वपूर्ण प्रदर्शन किया और जैन धर्म सम्बन्धी विविध विषयों का प्रतिपादन करने के लिये अनेक प्रकरण लिखे । आचार्य हरिभद्र का जीवनन - वृत्त लोक कल्याण से प्रेरित उदारमना आचार्य ने समाज को विपुल साहित्य तो दिया किन्तु कीर्ति की लालसा से दूर अपने परिचय के सम्बन्ध में वे अनुदार बन गये । आचार्य ने अपने ग्रन्थों में कहीं भी अपने जीवन का कोई विशेष परिचय नहीं दिया है, किन्तु कहीं-कहीं अपने ग्रन्थों की प्रशस्तियों में थोड़ा बहुत संकेत किया है। उनके समकालीन और परवर्ती आचार्यों ने अपनी कृतियों में उनका जो उल्लेख किया है, उन्हीं के आधार पर उनके जीवनवृत्त की रूपरेखा यहाँ प्रस्तुत की गई है। जैन परम्परा में वे याकिनी महत्तरासूनु के नाम से जाने जाते हैं। आवश्यक सूत्र - बृहद्वृत्ति में उन्होंने अपना परिचय देते हुये लिखा है कि वे विद्याधर गच्छ से सम्बन्धित थे। इनके ही गच्छ के आचार्य जिनभद्र भी थे। उनके दीक्षा गुरु जिनदत्त सूरि थे । महत्तरा याकिनी नामक साध्वी की प्रेरणा से उन्हें धर्मतत्त्व प्राप्त हुआ था । उपदेशपद की प्रशस्ति में उन्होंने अपने आपको याकिनी महत्तरा के धर्मपुत्र के रूप में प्रस्तुत किया है। 2 यही बात उन्होंने दशवैकालिक बृहद्वृत्ति और पंचसूत्र विवरण की प्रशस्ति में भी कही है। नन्दी हारिभद्रीयवृत्ति के अन्त में आचार्य ने अपने आपको आचार्य जिनभट्ट का पादसेवक कहा है। 3 उद्योतनसूरि ने कुवलयमाला कहा में कहा है कि भवविरह से मुक्ति चाहने वाला ऐसा साधक कौन होगा जो आचार्य हरिभद्र को वंदन नहीं करता । वे सैकड़ों मतवादों और शास्त्रों को जानने वाले हैं, समराइच्चकहा जिनकी कथाकृति है । 4 प्रभावक चरित कहावली, गणधर सार्धशतक और प्रबन्ध कोश में उनके जीवन के बारे में उल्लेख हुआ है। प्रभावक चरित के अनुसार हरिभद्र Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य हरिभद्र और उनका साहित्य चित्तउड ) में जितारि राजा के पुरोहित थे। उनके पिता का नाम शंकर और माता का नाम गंगा था। गणधरसार्ध शतक में उनको पांडित्य का गर्व करने वाला हरिभद्र नामक ब्राह्मण कहा गया है। अपनी विद्वत्ता के अभिमान में आकर उन्होंने प्रतिज्ञा की थी जिसका कहा हुआ समझ नहीं पाऊँगा उसका शिष्य बन जाऊँगा। एक बार एक बन्धन- मुक्त हाथी से बचने के लिये उन्होंने जैन मन्दिर का आश्रय लिया। वहाँ तीर्थंकर की प्रतिमा को देखकर उसका उपहास किया। दूसरे दिन मध्य रात्रि में जब वे अपने घर जा रहे थे उन्होंने एक वृद्धा साध्वी के मुख से उच्चरित एक सांकेतिक गाथा सुनी जिसका अर्थ वे समझ नहीं सके। जिज्ञासु प्रकृति के होने के कारण वे साध्वी के पास गाथा का अर्थ जानने के लिये गये। साध्वी ने गुरु जिनभट्ट के पास जाने के लिये कहा। हरिभद्र ने जब गुरु से इस गाथा का अर्थ पूछा तो गुरु ने कहा जैन परम्परा का पूरा और प्रामाणिक अभ्यास करने के लिये जैन धर्म की दीक्षा लेना अनिवार्य है। जैन सूत्रों का अर्थ तो जैन प्रव्रज्या लेकर विधिपूर्वक पढ़ने वाले को ही बताये जाते हैं। अपनी प्रतिज्ञा का पालन करने के लिये हरिभद्र ने जैन दीक्षा स्वीकार कर ली और याकिनी महत्तरा को धर्म माता के रूप में स्वीकार किया। कालान्तर में वह आचार्य जिनभट्ट के पट्टधर आचार्य बन गये। हरिभद्र भवविरहसूरि अथवा 'विरहांक- कवि के रूप में भी जाने जाते थे जिसका उल्लेख कुवलयमाला कहा तथा हरिभद्र की स्वयं की रचनाओं में आया है। उनके ग्रन्थों की अंतिम गाथा में कभी 'भवविरह और कभी 'विरहांक का प्रयोग हआ है। पंडित कल्याणविजयजी ने धर्मसंग्रहणी की प्रस्तावना में हरिभद्र रचित उन ग्रन्थों की प्रशस्तियों को उद्धृत किया है जिनमें 'भव विरह शब्द का प्रयोग किया गया है। ये ग्रन्थ हैं -- अष्टक, धर्मबिन्दु, ललितविस्तरा, पंचवस्तुटीका, शास्त्रवार्तासमुच्चय, षोडशक, अनेकान्तजयपताका, योगबिन्दु, संसारदावानलस्तुति, धर्मसंग्रहणी, उपदेशपद, पंचाशक और सम्बोधप्रकरण । आचार्य हरिभद्र के गुरु जिनभट्ट ने आचार्य को धर्म के दो भेद बतलाये थे, सस्पह (सकाम) और निस्पृह (निष्काम )। सस्पृह धर्म का आचरण करने वाला स्वर्ग सुख का भागी बनता है और निस्पृह का पालन करने वाला भवविरह' अर्थात् मोक्षपद का अनुगामी बनता है। हरिभद्र ने भवविरह को ही श्रेष्ठ समझ कर ग्रहण किया। आचार्य किसी के द्वारा नमस्कार या वंदना किये जाने पर 'भवविरह करने में उद्यमशील होवो कह कर आशीर्वाद देते थे, आशीर्वाद पाने वाला व्यक्ति उन्हें 'भवविरहसूरि', आप दीर्घायु हों, ऐसा कहता, इस प्रकार वे 'भवविरह के नाम से लोकप्रिय हो गये। हरिभद्र के ग्रन्थों के टीकाकार जिनेश्वर सूरि ने अष्टक प्रकरण की टीका में 'विरहांक' का उल्लेख किया है। ___ ऐसा माना जाता है कि उनके दो शिष्य हंस और परमहंस प्रमाण शास्त्र में प्रवीण थे, वे गुरु की आज्ञा लेकर वेष बदलकर प्रमाण शास्त्रों के अध्ययन के लिये बौद्ध विहार में गये। कुछ काल के अध्ययन के बाद उनका भेद खुल गया। बौद्धों ने हंस को मार डाला और परमहंस किसी प्रकार बच कर गुरु के पास पहुंच गये और उन्हें वृत्तान्त सुनाते हुये कालगत हो गये। अपने दो उत्तम शिष्यों के विरह से उनकी क्रोधाग्नि भड़क उठी उन्होंने बौद्ध भिक्षुओं की हत्या की प्रतिज्ञा की। बाद में अपने गुरु से बोध पाने के बाद उनका क्रोध शान्त हो गया, उन्होंने अपना मन ग्रन्थों की रचना में लगाया।10 प्रभावक चरित में कहा गया है कि इन दो शिष्यों के For Private & Pedonal Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डॉ. कमल जैन विरह से दुःखित होकर आचार्य ने अपने प्रत्येक ग्रन्थ को विरह शब्द से अंकित किया है।11 हरिभद्र ने विद्याभ्यास कहाँ किया इसका स्पष्ट निर्देश कहीं नहीं मिलता। उपदेशपद की टीका से ज्ञात होता है कि आचार्य हरिभद्र गृहस्थावस्था में आठ व्याकरणों के विशिष्ट अध्येता थे तथा तर्कशास्त्र के ज्ञाताओं में अग्रगण्य थे। ऐसा प्रतीत होता है कि राजपुरोहित के घर जन्म लेने के कारण उन्होंने संस्कृत व्याकरण, साहित्य, न्याय- दर्शन, वेद, पुराण, धर्मशास्त्र, ज्योतिष शास्त्र आदि अनेक ग्रन्थों का अध्ययन किया था। जैन परम्परा में बौद्ध या ब्राह्मण परम्परा की भांति विद्यापीठ नहीं थे। अतः जैन दीक्षा स्वीकार करने के बाद आचार्य का अध्ययन-अध्यापन गुरु के सानिध्य में ही हुआ होगा, उन्हें जैन आगमग्रन्थों का भी पूर्ण ज्ञान था, जिसकी पुष्टि उनके द्वारा लिखी गई आगमग्रन्थों की टीकाओं से होता है। हरिभद्र का काल हरिभद्र के जीवन और मृत्यु काल के विषय में अनेक भ्रान्तियाँ हैं। डॉ. जैकोबी ने 'उपमितिभवप्रपंचा' में हरिभद्र का समय विक्रम की नवीं शती माना था। 2 अचलगच्छीय आचार्य मेरुतुंग ने प्रबन्धचिन्तामणि में एक पुरानी गाथा का उल्लेख करते हुये कहा है कि विक्रम संवत् 585 में हरिभद्र का स्वर्गवास हुआ।13 पं. कल्याण विजय जी ने धर्मसंग्रहणी की अपनी संस्कृत प्रस्तावना में हरिभद्र का समय विक्रम की छठीं शताब्दी स्थापित करने का प्रयत्न किया था।4 हरिभद्र के समय निर्णय में उद्योतनसूरि की कुवलयमालाकहा का विशेष महत्त्व है, यह ग्रन्थ 779 ई. में पूर्ण हुआ था। इस ग्रन्थ की प्रशस्ति में उद्योतनसूरि ने हरिभद्र को अपना गुरु माना है तथा अनेक ग्रन्थों के रचयिता के रूप में उनका उल्लेख किया है। इस प्रकरण के आधार पर मुनि श्री जिनविजय जी इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि महान् तत्त्वज्ञ आचार्य हरिभद्र और कुवलयमालाकहा के कर्ता उद्योतनसूरि कुछ समय तक तो अवश्य समकालीन थे। आचार्य हरिभद्र के समय की उत्तरी सीमा का निर्धारण कुवलयमाला के रचयिता की उस उक्ति द्वारा होता है जिसमें उन्होंने अपने ग्रन्थ की समाप्ति 78 शक संवत् बताई है और हरिभद्र को अपना गुरु कहा है। इससे स्पष्ट होता है कि 700 ई.। संवत के बाद का तो समय हो ही नहीं सकता। इतनी विशाल ग्रन्थ राशि लिखने वाले आचार्य की आयु 60-70 वर्ष तो अवश्य ही रही होगी। अतः इस प्रमाण के आधार पर श्री जिनविजय जी ने अनेक बाह्य तथा आन्तरिक प्रमाणों की समालोचना करके उनका समय ई. 700 से 770 के बीच निश्चित किया है और यही अब सर्वमान्य भी है17 हरिभद्र की रचनायें आचार्य हरिभद्र के ग्रंथों की संख्या बहुत बड़ी मानी जाती है। पूर्व परम्परा के अनुसार वे 1400, 1440, 1444 प्रकरणों के कर्ता माने जाते हैं। अभयदेव सूरि ने पंचाशक की टीका में आचार्य हरिभद्र को 1400 प्रकरणों का रचयिता कहा है। राजशेखर सूरि ने अपने प्रबन्धकोश में इनको 1440 प्रकरणों का रचयिता कहा है। For Private & Persopal Use Only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य हरिभद्र और उनका साहित्य आचार्य हरिभद्र की रचनाओं को 3 भागों में विभक्त किया जा सकता है-- 1. आगमग्रन्थों एवं पूर्वाचार्यों की कृतियों पर टीकायें -- आचार्य ने यद्यपि आगमों की परम्परा के अनुसार ही इस साहित्य का सृजन किया है पर यह आगमकाल से अधिक व्यवस्थित और तार्किकता लिये हुये है। भाषा की प्रांजलता और आगमगत विशिष्टताओं का सरलता से विशदीकरण करके आचार्य ने इन टीकाओं को अधिक महत्त्वपूर्ण और मार्मिक बना दिया है। 2. स्वरचित ग्रन्थ एवं स्वोपज्ञ टीका -- आचार्य ने जैन दर्शन और समकालीन अन्य दर्शनों का गहन अध्ययन करके उन्हें अत्यन्त सूक्ष्म निरूपण शैली में प्रस्तुत किया है। इन ग्रन्थों में सांख्य, योग, न्याय- वैशेषिक, अद्वैत, चार्वाक, बौद्ध, जैन आदि दर्शनों की अनेक तरह से आलोचना और प्रत्यालोचना की है। जैन योग के तो वे आदि प्रणेता थे उनका योग विषयक ज्ञान मात्र सैद्धान्तिक नहीं था बल्कि वे योग साधना के प्रखर पंडित थे। उन्होंने अनेकान्तजयपताका नामक क्लिष्ट न्याय ग्रन्थ की भी रचना की। 3. कथा साहित्य आचार्य ने लोक प्रचलित कथाओं के माध्यम से धर्म प्रचार को एक नया रूप दिया है, उन्होंने व्यक्ति और समाज की विकृतियों पर प्रहार कर उनमें सुधार लाने का प्रयास किया है। उनकी कथाओं में जहाँ त्याग, साधना और वैराग्य की प्रचुरता है, वहां जीवन के व्यावहारिक पहलुओं को छूने वाले भी अनेक प्रकरण हैं, जिनमें आध्यात्मिकता और भौतिकता के समवेत स्वर हैं। उन्होंने समराइच्चकहा, धूर्ताख्यान और अन्य लघु कथाओं के माध्यम से अपने युग की संस्कृति का स्पष्ट एवं सजीव चित्रांकन किया है। ____ आचार्य हरिभद्र विरचित ग्रन्थ-सूची में निम्न ग्रन्थ समाविष्ट हैं -- 1. अनुयोगदार वृत्ति 15. चैत्यवन्दनवृत्ति 2. अनेकान्तजयपताका 16. जीवाभिगमलघुवृत्ति 3. अनेकान्तघट्ट 17. ज्ञानपंचकविवरण 4. अनेकान्तवादप्रवेश 18. ज्ञानदिव्यप्रकरण 5. अष्टक 19. दशवैकालिक-अवचूरि 6. आवश्यकनियुक्तिलघुटीका 20. दशवैकालिकबहुटीका 7. आवश्यकनियुक्तिबहुटीका 21. देवेन्द्रनरकेन्द्रप्रकरण 8. उपदेशपद 2. द्विजवदनचपेटा 9. कथाकोश 23. धर्मबिन्दु 10. कर्मस्तववृत्ति 24. धर्मलाभसिद्धि 11. कुलक 25. धर्मसंग्रहणी. 12. क्षेत्रसमासवृत्ति 26. धर्मसारमूलटीका 13. चतुर्विंशतिस्तुति 27. धूर्ताख्यान 14. चैत्यवंदनभाष्य 28. नंदीवृत्ति Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डॉ. कमल जैन 29. न्यायप्रदेशसूत्रवृत्ति 30. न्यायविनिश्चय 31. न्यायामृततरंगिणी 32. न्यायावतारवृत्ति 33. पंचनिर्गन्थी 34. पंचलिंगी 35. पंचवस्तुसटीक 36. पंचसंग्रह 37. पंचसूत्रवृत्ति 38. पंचस्थानक 30. पंचाशक 40. परलोकसिद्धि 41. पिंडनियुक्तिवृत्ति 42. प्रज्ञापनाप्रदेशव्याख्या 43. प्रतिष्ठाकल्प 44. वृहन्मिथ्यात्वमंथन 45. मुनिपतिचरित्र 46. यतिदिनकृत्य 47. यशोधरचरित 48. योगदृष्टिसमुच्चय 49. योगबिन्दु 50. योगशतक 51. लग्नशुद्धि 52. लोकतत्त्वनिर्णय 53. लोकबिन्दु 54. विंशति 55. वीरस्तव 56. वीरांगदकथा 57. वेदबाह्यतानिराकरण 58. व्यवहारकल्प 59. शास्त्रवार्तासमुच्चयसटीक 60. श्रावकप्रज्ञप्तिवृत्ति 61. श्रावकधर्मतंत्र 62. षड्दर्शनसमुच्चय 63. षोडशक 64. समकित पचासी 65. संग्रहणीवृत्ति 66. संमत्तसित्तिरी 67. संबोधसित्तरी 68. समराइच्चकहा 72. सर्वज्ञसिद्धिप्रकरणसटीक 73. स्याद्वादकुचोद्यपरिहार19 दशवैकालिक वृत्ति -- इस वृत्ति का नाम शिष्यबोधिनी वृत्ति है, यह भद्रबाहु विरचित नियुक्ति पर लिखी गई है। इसमें विविध कथानक लिखे गये हैं जो प्राकृत में हैं। मंगल की आवश्यकता बतायी गयी है। अभ्यन्तर और बाह्यतप, ध्यान, श्रमण, आचार्य, पंचमहाव्रत, रात्रिभोजन-विरमण, 14 गुण स्थान, विनय, आचार प्रणिधि की प्रक्रिया एवं फल की चर्चा की गयी है। आवश्यकवृत्ति -- यह टीका आवश्यक नियुक्ति पर है, कहीं-कहीं भाष्य की गाथाओं का भी प्रयोग किया गया है। अनेक प्रान्तीय, प्राकृत और संस्कृत गाथाओं का समावेश है। इसमें 22,000 श्लोक प्रमाण हैं। इसमें 5 प्रकार के ज्ञान मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्याय और केवलज्ञान का भेद-प्रभेद पूर्वक व्याख्यान किया गया है। सामायिक, चतुर्विंशतिस्तव, वंदन, ध्यान, कायोत्सर्ग, प्रत्याख्यान आदि का विस्तृत विवेचन किया गया है। प्रशस्ति में आचार्य ने अपना संक्षिप्त परिचय भी दिया है। अनुयोगद्वार वृत्ति -- मूलग्रन्थ, चूर्णि-अंश के साथ तत्त्व- प्ररूपण, प्रमाण प्ररूपण, निक्षेप प्ररूपण For Private & qersonal Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य हरिभद्र और उनका साहित्य और नय प्ररूपण के आधार से दार्शनिक पक्ष को स्पष्ट किया गया है। नन्दीवृत्ति -- यह वृत्ति नन्दीचूर्णि की ही रूपान्तर है। नन्दी ज्ञान के अध्ययन की योगयता-अयोग्यता का विचार करते हुये अयोग्य को ज्ञानदान देना अकल्याणकर कहा है। ज्ञान के भेद-प्रभेद स्वरूप विषय आदि का विस्तृत विवेचन किया है।20 प्रज्ञापना प्रदेश व्याख्या -- इसमें मंगल की विशेष विवेचना की गई है। प्रज्ञापना के विषय, कर्तृत्व आदि का वर्णन किया गया है। जीव प्रज्ञापना और अजीव प्रज्ञापना का वर्णन करते हुये एकेन्द्रियादि जीवों का विस्तारपूर्वक व्याख्यान किया गया है। वेद, लेश्या, इन्द्रियादि दृष्टियों से जीव विचार लोक सम्बन्धी, आयुर्बन्ध, पुद्गल, द्रव्य, अवगाढ सम्बन्धी अल्प-बहुत्व आदि का विचार किया गया है। नरक सम्बन्धी नारकपर्याय, अवगाह सतस्थानक, कर्मस्थिति और जीवपर्याय का विश्लेषण किया गया है। औदारिक शरीर, जीव-अजीव- स्त्री, कषाय, इन्द्रिय, प्रयोग लेश्या, ज्ञान, दर्शन, चारित्र आदि की विस्तृत चर्चा की है।21 योगविंशिका -- प्राकृत में निबद्ध योग विषयक ग्रन्थ है। 20 गाथाओं में योग शुद्धि का विवेचन करते हुये स्थान, ऊर्ण, अर्थ आलम्बन, अनालम्बन के भेद से 5 प्रकार का योग बताया गया है। योग की विकसित अवस्थाओं का वर्णन किया गया है। विशिका -- इसमें आचार्य हरिभद्र ने श्रावक की 11 प्रतिमाओं के बारे में चिंतन किया है। अनेकान्तजयपताका -- यह जैन सिद्धान्त पर लिखा गया एक क्लिष्ट ग्रन्थ है। इसमें 6 अधिकार हैं। जिनमें क्रमशः सदसदरूपवस्तु नित्यानित्यवस्तु, सामान्य-विशेष, अभिलाप्यनभिलाप्य, योगाचार, मुक्ति आदि विषयों का गम्भीर विवेचन किया गया है। संस्कृत में रचित 3500 श्लोक प्रमाण ग्रन्थ है। संभवतः यह ग्रंथ जैन दार्शनिक सिद्धान्त अनेकान्तवाद के विजयध्वज के रूप में प्रतिपादित किया गया है। अनेकान्तवाद प्रवेश -- संस्कृत में लिखा गया है, विषयवस्तु अनेकान्तजयपताका वाला ही है। सावयधम्मविहि -- 120 गाथाओं में सम्यक्त्व और मिथ्यात्व का वर्णन करते हुये श्रावकों के विधि-विधानों का प्रतिपादन किया गया है। यह प्राकृत भाषा में निबद्ध है, मानदेवसूरि ने इस पर टीका लिखी है। धर्मबिन्दुप्रकरण -- इसमें 542 सूत्र हैं, जो 4 अध्यायों में विभक्त हैं। श्रमण और श्रावक धर्म की विवेचना की गई है, श्रावक बनने के पूर्व जीवन को पवित्र और निर्मल बनाने वाले पूर्व मार्गानुसारी के 35 गुणों की विवेचना की गई है। इस पर मुनि चन्द्रसूरि ने टीका लिखी है।22 सम्यक्त्व सप्तति -- इसमें 12 अधिकारों में द्वारा 70 गाथाओं सम्यक्त्व का स्वरूप बताया है। अष्ट प्रभावकों में वज्रस्वामी, भद्रबाहु मल्लवादी, विष्णुकुमार, आर्यखपुट, पादलिप्त और सिद्धसेन का चरित प्रतिपादित किया गया है। इसमें सम्यक्त्व के 67 बोलों पर प्रकाश डाला गया है संघतिलक सूरि ने इस पर टीका लिखी है। For Private Personal Use Only Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य हरिभद्र और उनका साहित्य षोडशक -- यह 257 गाथाओं में निबद्ध है। इसमें धर्म के आन्तरिक स्वरूप, धर्म परीक्षा, देशना प्रतिष्ठाविधि, पूजाफल, धर्म-लक्षण, मन्दिर निर्माण आदि विषयों का विवेचन किया गया है। इसमें प्रत्येक विषय पर 16-16 गाथायें हैं, इस पर यशोप्रभसूरि और यशोविजय जी की टीकायें उपलब्ध हैं।23 ललित विस्तरा -- 'चैत्यवंदन क्रिया' के सूत्रों पर यह वृत्ति है। इसमें अन्य दार्शनिक मान्यताओं का सूक्ष्म तर्कों से निराकरण किया गया है। तीर्थंकरों के चारित्र, मोक्ष इत्यादि के बारे में भी उल्लेख किया गया है। सर्वज्ञसिद्धि -- इसकी रचना गद्य और पद्य दोनों में हुई है। इसमें सर्वज्ञ की सत्ता सिद्ध करने का प्रयास किया गया है और सर्वज्ञ को न मानने वाले मीमांसा-दर्शन की आलोचना की गई है। अष्टक प्रकरण -- इस ग्रन्थ में आठ-आठ पद्यों के 32 प्रकरण हैं, जिनमें आत्मवाद, नित्यवाद, क्षणिकवाद आदि विषयों का निरूपण किया गया है और धर्म, दर्शन, आचार, ज्ञान-मीमांसा का विवेचन किया गया है, जिसमें अनेकान्त मुखर है। चारित्र धर्म की व्याख्या करते हुये अहिंसा के विभिन्न आयाम स्पष्ट किये गये हैं। अन्त में तत्कालीन दार्शनिक चर्चाओं का उल्लेख किया गया है।24 न्यायप्रवेश पर टीका -- हरिभद्र ने बौद्धाचार्य दिङ्नाग के 'न्यायप्रवेश पर टीका लिखी है। इसमें मूलग्रन्थ के विषय को स्पष्ट किया है और इस प्रकार जैन सम्प्रदाय में बौद्ध न्याय के अध्ययन की परम्परा का शुभारम्भ किया है। विंशतिविंशिका -- इसके 20 प्रकरणों में 20 गाथायें हैं, उनमें लोक, अनादित्व, कूटनीति, चरमपरिवत, बीज, सन्दर्भ, दान, पूजाविधि, श्रावकप्रतिमा, श्रावकधर्म, यतिधर्म, शिक्षा, भिक्षा, आलोचना, प्रायश्चित्त, तदंतराय, लिंग, योग, केवल ज्ञान, सिद्ध- भक्ति, सिद्ध सुख आदि का वर्णन है। इनमें भी श्रावक तथा मुनिधर्म के सामान्य नियमों तथा नाना विधि-विधानों तथा साधनाओं का निरूपण है। आनन्दसूरि ने इस पर टीका लिखी है। पंचवस्तुक -- इसमें 1714 गाथायें हैं। इसमें पाँच अधिकारों में प्रव्रज्याविधि, दैनिक अनुष्ठान, गच्छाचार, अनुयोग, गणानुज्ञा और संलेखना की प्ररूपणा की गई है। इसमें मुनि धर्म सम्बन्धी साधनाओं का विस्तार से वर्णन किया गया है। श्रावक प्रज्ञप्ति -- यह गाथाबद्ध ग्रन्थ प्राकृत भाषा में रचा गया है। गाथाओं की संख्या 401 है। 12 प्रकार के श्रावक धर्म की प्ररूपणा की गई है। शंकाओं का समाधान करके करणीय पक्षों को उजागर किया गया है। श्रावक का लक्षण बताते हुये कहा गया है कि जो सम्यग्दर्शन प्राप्त करके प्रतिदिन यतिजनों के पास सदाचार के उपदेश सुनता है, वह श्रावक है।25 इस पर स्वयं हरिभद्रसूरि ने संस्कृत टीका लिखी है जिसमें जीव की नित्यता, अनित्यता, संसार, मोक्ष आदि विषयों का निरूपण है। पंचाशक -- यह 19 पंचाशकों में विभक्त है इसमें 950 गाथायें हैं। इसमें श्रावक धर्म, दीक्षा, For Private Dersonal Use Only Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य हरिभद्र और उनका साहित्य चैत्यवन्दन, पूजा, प्रत्याख्यान, स्तवन, जिन-भवन, प्रतिष्ठा, यात्रा, साधुधर्म, यति समाचारी, पिंडविधि शीलांग, अलोचना विधि, प्रायश्चित्त कल्प, साधु प्रतिमा, तपोविधि का 50-50 गाथाओं में वर्णन है।26 सम्बोधप्रकरण -- 1590 पद्यों की प्राकृत रचना है 12 अधिकारों में विभक्त है। इसमें गुरु, कुगुरु, सम्यक्त्व, देवों का स्वरूप, श्रावक धर्म और उसकी प्रतिमायें, व्रत, आलोचना, लेश्या, ध्यान, मिथ्यात्व आदि का वर्णन है। योगदृष्टिसमुच्चय -- 226 पद्यों में रची गई है। आध्यात्मिक विकास की भूमिकाओं का 3 प्रकार से वर्णन किया गया है : पहला दृष्टि-योग, दूसरा इच्छायोग, तीसरा सामर्थ्य योग। इसके अनन्तर मित्रा, तारा, बला, दीप्रा, स्वरा, कान्ता, प्रभा और परा इन आठ दृष्टियों का विस्तृत वर्णन है। संसारी जीव की अचरमार्वतकालीन अवस्था को 'आघदृष्टि' और चरमावर्त कालीन अवस्था को योगदृष्टि कहा गया है। यशोविजयगणि और आचार्य की स्वयंकृत टीका भी उपलब्ध है, जो 1175 श्लोक परिमाण की है। इसमें आचार्य ने मूल विषयों का विशद् स्पष्टीकरण किया है। योग की आठ दृष्टियों की पातंजल योगदर्शन में आये यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार धारणा, ध्यान और समाधि -- इन आठ योगांगों के साथ तुलना की गई है।28 योगशतक -- इसमें 101 गाथायें हैं। इसमें योग का निश्चय एवं व्यवहार दोनों दृष्टियों से विश्लेषण किया गया है। सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन, सम्यक्चारित्र इन तीनों के लक्षण, योगी का स्वरूप, आत्मा और कर्म का सम्बन्ध, योग के अधिकारी के लक्षण, लौकिक धर्म, गृहस्थ का योग, साधु की समाचारी का स्वरूप, मैत्री आदि चार भावनायें, योग जन्य उपलब्धियाँ उनका फल आदि विषयों का निरूपण किया गया है।29 धम्मसंगहणी -- हरिभद्र का यह दार्शनिक ग्रंथ है। 1296 गाथाओं द्वारा धर्म के स्वरूप का निक्षेपों द्वारा प्ररूपण किया गया है। मलयगिरि द्वारा इसकी संस्कृत टीका लिखी गई हैं। इसमें आत्मा के अनादि-निधनत्व, अमूर्तत्व, परिणामित्व, ज्ञायकत्व, कर्तृत्व-भोक्तृत्व और सर्वज्ञसिद्धि का प्ररूपण है।30 ब्रह्मसिद्धान्तसार -- 423 पद्यों में रचित संस्कृत रचना है, इसमें सब दर्शनों का समन्वय किया गया है। इसमें मृत्यु सूचक चिन्हों का उल्लेख है। इसकी बहुत सी गाथायें हरिभद्र के अन्य ग्रन्थों में भी पाई जाती हैं।31 षड्दर्शन समुच्चय -- यह दर्शन पर लिखी गई संस्कृत पद्यमय रचना है। आचार्य ने 87 कारिकाओं में इस ग्रन्थ को समाप्त किया है। गणरत्न ने इस पर टीका लिखी है। इसे विषयविभाग की दृष्टि से इसे छः विभागों में विभक्त किया है। इसमें आचार्य ने छ: भारतीय दर्शनों बौद्ध, नैयायिक, सांख्य, जैन, वैशेषिक, जैमनीय और चार्वाक का तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया है। छः दर्शनों को आस्तिकवाद आर चार्वाक को नास्तिकवाद की संज्ञा दी है। प्रत्येक दर्शन के निरूपण के समय वे उस दर्शन के मान्य देवता का भी सूचन करते हैं। For Private e Personal Use Only Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डॉ. कमल जैन उपदेशपद -- इसमें 1040 गाथायें हैं, इस पर मुनि चन्द्रसूरि ने सुखबोधिनी टीका लिखी है। आचार्य ने धर्मकथानुयोग के माध्यम से इस कृति में मन्दबुद्धि वालों के प्रबोध के लिये जैन धर्म के उपदेशों को सरल लौकिक कथाओं के रूप में संग्रहीत किया है। मानव पर्याय की दुर्लभता एवं बुद्धि चमत्कार को प्रकट करने के लिये कई कथानकों का ग्रन्थन किया है। मनुष्य जन्म की दुर्लभता को चोल्लक, पाशक, धान्य, द्यूत, रत्न, स्वपन, चक्रयूप आदि दृष्टांतों के द्वारा प्रतिपादन किया गया है। बुद्धि के चार भेद औत्पत्तिकी, वैनयिकी, कर्मजा और परिणामिका का विस्तृत विश्लेषण किया गया है।32 योगबिन्दु -- संस्कृत में रचित 527 पद्यों की रचना है। इसमें जैनयोग के विस्तृत प्ररूपण के साथ-साथ अन्य परम्परा सम्मत योग की भी चर्चा है और जैनयोग की समालोचना की गई है। योग के अधिकारी अनाधिकारी का निर्देश करते समय अचरमावर्त में वर्तमान संसारी जीवों को 'भवाभिनन्दी' कहा है, जबकी चरमावर्त में वर्तमान शुक्लपाक्षिक, भिन्न- ग्रन्थि और चारित्री जीवों को योग का अधिकारी कहा है। इस अधिकार के लिये पूर्व सेवा के रूप में गुरुप्रतिपत्ति (गुरु, देव आदि का पूजन ) सदाचार, तप, मुक्ति के प्रति अद्वेष आदि गुणों का निर्देश किया है। विभिन्न प्रकार के चारित्रों के भेद के अन्तर्गत अपुनर्बन्धक, सम्यादृष्टि, देशविरति तथा सर्वविरति की चर्चा की गई है। आध्यात्मिक विकास में क्रमशः अध्यात्म, भावना, ध्यान, समता, वृत्ति-संक्षेप आदि भेदों का उल्लेख किया है। योगाधिकारी के अनुष्ठानों में विष, गरल सद्-असद अनुष्ठान, तदेत् और अमतानुष्ठान का प्रतिपादन किया है। इसके स्पष्टीकरण के लिये सद्योग चिन्तामणि वृत्ति लिखी गई है, कई लोग इसे स्वोपज्ञ मानते हैं।33 शास्त्रवार्तासमुच्चय -- इसमें 700 श्लोक हैं जो 11 स्तबकों में विभक्त है। इसमें प्रमुख दार्शनिक मान्यताओं की समीक्षा की गई है। जिसमें भौतिकवाद, कालवाद, स्वभाववाद, नियतिवाद, कर्मवाद, ईश्वरवाद, प्रकृतिपुरुषवाद, क्षणिकवाद, विज्ञानवाद, शून्यवाद, बह्माद्वैतवाद, सर्वज्ञता-प्रतिषेधवाद का निरूपण किया गया है। हरिभद्र ने इस ग्रन्थ की व्याख्या भी स्वयं लिखी है, पर बहुत संक्षिप्त है। लोकतत्त्व निर्णय -- लोक तत्त्व निर्णय में हरिभद्र ने अपनी उदार दृष्टि का परिचय दिया है। अन्य दर्शनों के प्रस्थापकों को समन्वय दृष्टि से प्रस्तुत किया है। धर्म के मार्ग पर चलने वाले पात्र एवं अपात्र का विचार प्रस्तुत किया है। सुपात्र को ही उपदेश देने का विधान किया है। लग्नशुद्धि -- लग्नशुद्धि 133 गाथाओं में निबद्ध ज्योतिष ग्रन्थ है इसमें गोचरशुद्धि, प्रतिद्वार दशक, मास, वार, तिथि, नक्षत्र, योगशुद्धि, सुगणदिन, रजछन्नद्वार, संक्राति, कर्कयोग, हीरा, नवांश, द्वादशांश, षड्वर्गशुद्धि, उदयास्तशुद्धि इत्यादि विषयों पर चर्चा की गई है। द्विजवदनचपेटा -- धूर्ताख्यान की तरह यह भी एक व्यंगात्मक रचना है इसमें ब्राह्मण परम्परा में पल रही मिथ्या धारणा एवं वर्णव्यवस्था का खंडन किया गया है। धूर्ताख्यान -- यह व्यंग प्रधान रचना है। इसमें वैदिक पुराणों में वर्णित असंभव और For Private & Eersonal Use Only Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य हरिभद्र और उनका साहित्य अविश्वसनीय बातों का प्रत्याख्यान पाँच धूर्तों की कथाओं के द्वारा किया गया है। लाक्षणिक शैली की यह अद्वितीय रचना है। रामायण, महाभारत और पुराणों में पाई जाने वाली कथाओं की अप्राकृतिक, अवैज्ञानिक, अबौद्धिक मान्यताओं तथा प्रवृत्तियों का कथा के माध्यम से निराकरण किया गया है। व्यंग और सुझावों के माध्यम से असंभव और मनगढन्त बातों को त्याग करने का संकेत दिया गया है। खंड्डपना के चरित्र और बौद्धिक विकास द्वारा नारी की विजय दिखलाकर मध्यकालीन नारी के चरित्र को उद्घाटित किया है। समराइच्चकहा -- हरिभद्र ने इसे धर्मकथा के नाम से उल्लिखित किया है, यह जैन महाराष्ट्री प्राकृत में लिखी गई है। कथा के माध्यम से प्राणी की राग-द्वेष और मोहात्मक प्रवृत्तियों के जन्म-जन्म व्यापी संस्कारों का अनूठा चित्रण किया गया है। इसमें निदान की मुख्यता बताई गई है। अग्निशर्मा पुरोहित, राजा गुणसेन द्वारा अपमानित किये जाने पर निदान बांधता है कि यदि उसके तप में कोई शक्ति है तो वह अगामी भव में बदला ले परिणाम स्वरूप अग्निशर्मा नौ भवों में अपने वैर का बदला लेता है। मूलकथा के अन्तर्गत अनेक उपकथायें हैं, जिनमें निर्वेद, वैराग्य, संसार की असारता, कर्मों की विचित्र परिणति, लोभ के दुष्परिणाम, माया, मोह, श्रमणत्व आदि विषय प्रतिपादित किये गये हैं। कर्म परिणति मुख्य उद्देश्य है। बताया गया है कि कुत्सित वृत्तियों से जीवन पतित हो जाता है। कलुषित और हीन कर्मों से मनुष्य अधोगति को प्राप्त करता है। आचार्य हरिभद्र प्रतिभाशाली लेखक थे। योग, दर्शन, न्याय जैसे गढ़ विषयों का निरूपण करने के साथ-साथ कथा जैसे सरस साहित्य का प्रणयन करके उन्होंने अपनी विद्वत्ता का परिचय दिया है तथा भारतीय जन-जीवन के विभिन्न रूपों को प्रस्तुत किया है। पं. दलसुख मालवणिया ने षड्दर्शन समुच्चय की प्रस्तावना में कहा है कि आचार्य हरिभद्र ने अपने जैन वाङ्मय के विविध क्षेत्रों के साथ-साथ तत्कालीन जो भारतीय जैनेतर विद्यासमृद्धि थी, उसमें से भी भ्रमर की तरह मधु संचय करके जैन साहित्य की श्री वृद्धि की। आचार और दर्शन के जो मन्तव्य जैन धर्म के अनुकूल दिखाई पड़े, उन्हें अपने ग्रन्थों में निबद्ध कर लिया।33 For Private & Osonal Use Only Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्दर्भ -कलं - - - - हरिभद्रसूरि का समय निर्णय, पृ.6 उपदेशपद प्रशस्ति हरिभद्रीयनन्दीवृत्ति, हरिभद्रीयदशवैकालिकवृत्ति, पंचसूत्रविवरण की प्रशस्ति कुवलयमालाकहा अनुच्छेद 6, पृ.4 समराइच्चकहा प्रस्तावना, पृ.4 (हिन्दी अनुवाद, छगन लाल शास्त्री) गणधरसार्धशतक की बृहद् व्याख्या आवश्यकनियुक्ति, गा. 42 आवश्यक हरिभद्रीय वृत्ति, पृ.111 कहावली, उद्धृत हरिभद्रसूरि के प्राकृत साहित्य का आलोचनात्मक अध्ययन, पृ. 45 वही, जैन साहित्य का बृहद इतिहास, भाग 3, पृ. 363। पंचशती प्रबोधसम्बन्ध, पृ.263 प्रभावक चरित, उद्धृत हरिभद्रसूरि के प्राकृत साहित्य का आलोचनात्मक परिशीलन, पृ. 45 हरिभद्र का समय निर्णय, पृ:11 श्री हरिभद्र प्रबन्ध, उद्धृत, 206 जैन साहित्य का बृहद् इतिहास, भाग 3, पृ. 363 योगशतक की हिन्दी प्रस्तावना, पृ.4, हरिभद्र सूरि का समय निर्णय, पृ. 11 कुवलयमालाकहा, पृ. 4 वही, पृ. 242 हरिभद्र सूरि का समय निर्णय, पृ. 62 हरिभद्रसूरि का समय निर्णय, पृ. 62 जैन साहित्य का बृहद् इतिहास, भाग 3, पृ. 362 जैन साहित्य का बृहद इतिहास, भाग 4, पृ. 204 प्राकृत साहित्य का इतिहास, पृ. 295 वही, पृ. 302 .. देखिये -- भारतीय संस्कृति में जैन धर्म का योगदान - डॉ. हीरालाल जैन का लेख जैन साहित्य का बृहद् इतिहास, भाग 4, पृ. 270 जैन साहित्य का बृहद् इतिहास, भाग 4, पृ. 271 जगदीश चन्द्र जैन, प्राकृत साहित्य का इतिहास, पृ. 302 जैन साहित्य का बृहद इतिहास, भाग 4, पृ. 234 - - 17. 1 . 22. 23 25 21. Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डॉ. कमल जैन 29. 30. 31. 3 जैन साहित्य का बृहद इतिहास, भाग 4, पृ. 234 जगदीशचन्द्र जैन, प्राकृत साहित्य का इतिहास, पृ. 287 जैन साहित्य का बृहद इतिहास, भाग 4, पृ. 237 नेमिचन्द्रशास्त्री, प्राकृत साहित्य का इतिहास, पृ. 425 जैन साहित्य का बृहद् इतिहास, भाग 4, पृ.232 वही, भाग 5, पृ. 168 हरिभद्र का अवदान, पृ.15 नेमिचन्द्र शास्त्री, प्राकृत साहित्य का इतिहास, प्र.425। षड्दर्शन समुच्चय, प्रस्तावना, पृ. 16 34. 35. 36. For Priva . Personal Use Only Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षटजीवनिकाय में त्रस एवं स्थावर के वर्गीकरण की समस्या - प्रो. सागरमल जैन षट्जीवनिकाय की अवधारणा जैनधर्म-दर्शन की प्राचीनतम अवधारणा है। इसके उल्लेख हमें प्राचीनतम जैन आगमिक ग्रन्थों यथा -- आचारांग', ऋषिभाषित, उत्तराध्ययन, दशवैकालिकी आदि में उपलब्ध होते हैं। यह सुस्पष्ट तथ्य है कि निर्गन्थ परम्परा में प्राचीनकाल से पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति आदि को जीवन युक्त माना जाता रहा है। यद्यपि वनस्पति और दीन्द्रिय आदि प्राणियों में जीवन की सत्ता तो सभी मानते हैं, किन्तु पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु भी सजीव हैं -- यह अवधारणा जैनों की अपनी विशिष्ट अवधारणा है। यहाँ हमें यह भी स्मरण रखना चाहिए कि पृथ्वी, जल, वायु आदि में सूक्ष्म जीवों की उपस्थिति को स्वीकार करना एक अलग तथ्य है और पृथ्वी, जल आदि को स्वतः सजीव मानना एक अन्य अवधारणा है। जैन परम्परा केवल इतना ही नहीं मानती है कि पृथ्वी, जल आदि में जीव होते हैं अपितु वह यह भी मानती है कि ये स्वयं भी जीवन-युक्त या सजीव हैं। इस सन्दर्भ में आचारांग में स्पष्ट रूप से उल्लेख मिलता है कि पृथ्वी, जल, वायु आदि के आश्रित होकर जो जीव रहते हैं, वे पृथ्वीकायिक, अपकायिक आदि जीवों से भिन्न हैं। यद्यपि पृथ्वीकायिक, अपकायिक जीवों की हिंसा होने पर इनकी हिंसा भी अपरिहार्य रूप से होती है। आचारांग के प्रथम अध्ययन के द्वितीय से सप्तम उद्देशक तक प्रत्येक उद्देशक में पृथ्वी आदि षट्जीवनिकायों की हिंसा के स्वरूप, कारण और साधन अर्थात् शस्त्र की चर्चा हमें उपलब्ध होती है। आचारांग ऋषिभासित, उत्तराध्ययन, दशवैकालिक आदि में षट्जीवनिकाय के अन्तर्गत पृथ्वी, अप, अग्नि, वायु, वनस्पति और त्रस -- ये जीवों के छ: प्रकार माने गये हैं, किन्तु इन षट्जीवनिकायों में कौन स है और कौन स्थावर है ? इस प्रश्न को लेकर प्राचीनकाल से ही विभिन्न अवधारणाएँ जैन परम्परा में उपलब्ध होती हैं। यद्यपि वर्तमान में श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों ही परम्पराओं में पृथ्वी, अप, अग्नि, वायु और वनस्पति इन पाँच को सामान्यतया स्थावर माना जाता है। पंचस्थावरों की यह अवधारणा अब सर्व स्वीकृत है। दिगम्बर परम्परा में तत्त्वार्थ का जो पाठ प्रचलित है उसमें तो पृथ्वी, अप, अग्नि, वायु और वनस्पति-- इन पाँचों को स्पष्ट रूप से स्थावर कहा गया है। किन्तु प्राचीन श्वेताम्बर मान्य आगम आचारांग, उत्तराध्ययन आदि की तथा तत्त्वार्थसूत्र के श्वेताम्बर सम्मत पाठ और तत्त्वार्थभाष्य की स्थिति कुछ भिन्न है। इसी प्रकार दिगम्बर परम्परा में भी कुन्दकुन्द के ग्रन्थ पंचास्तिकाय की स्थिति भी पंचस्थावरों की प्रचलित सामान्य अवधारणा से कुछ भिन्न ही प्रतीत होती है। यापनीय ग्रन्थ षट्खण्डागम की धवला टीका में इन दोनों के समन्वय का प्रयत्न हुआ है। बस और स्थावर के वर्गीकरण को लेकर जैन परम्परा के इन प्राचीन स्तर के आगमिक For Private & Persal Use Only Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षद्जीवनिकाय में त्रस एवं स्थावर के वर्गीकरण की समस्या ग्रन्थों में किस प्रकार का मतभेद रहा हुआ है, इसका स्पष्टीकरण करना ही प्रस्तुत निबन्ध का मुख्य उद्देश्य है। 1. आधारांग ___ आचारांग में षटजीवनिकाय में कौन स है और कौन स्थावर है ? इसका कोई स्पष्टतः वर्गीकरण उल्लेखित नहीं है। उसके प्रथम श्रुत स्कन्ध के प्रथम अध्ययन में जिस क्रम से षट्जीवनिकाय का विवरण प्रस्तुत किया गया है, उसे देखकर लगता है कि जहाँ ग्रन्थकार पृथ्वी, अप, अग्नि और वनस्पति इन चार को स्पष्ट रूप से स्थावर के अन्तर्गत वर्गीकृत करता होगा, जबकि त्रस और वायुकायिक जीवों को वह स्थावर के अन्तर्गत नहीं मानता होगा, क्योंकि उसके प्रथम अध्ययन के द्वितीय, तृतीय, चतुर्थ और पंचम इन चार उद्देशको में क्रमशः पृथ्वी, अप, अग्नि और वनस्पति -- इन चार जीवनिकायों की हिंसा का विवरण प्रस्तुत किया गया है। उसके पश्चात् षष्ठ अध्ययन में त्रसकाय की और सप्तम अध्ययन में वायुकायिक जीवों की हिंसा का उल्लेख किया है। इसका फलितार्थ यही है कि आचारांग के अनुसार वायुकायिक जीव स्थावर न होकर वस है। यदि आचारांगकार को वायुकायिक जीवों को स्थावर मानना होता तो वह उनका उल्लेख त्रसकाय के पूर्व करता। इस प्रकार आचारांग में पृथ्वी, अप, अग्नि और वनस्पति में चार स्थावर और वायु तथा उसकाय में दो स जीव माने गये हैं -- ऐसा अनुमान किया जा सकता है। यद्यपि आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध में ही एक सन्दर्भ ऐसा भी है, जिसके आधार पर उसकाय को छोड़कर शेष पाँचों को स्थावर माना जा सकता है, क्योंकि वहाँ पर पृथ्वी, वायु, अप, अग्नि और वनस्पति का उल्लेख करके उसके पश्चात् स का उल्लेख किया गया है। 2. ऋषिभाषित जहाँ तक ऋपिभापित का प्रश्न है, उसमें मात्र एक स्थल पर पट्जीवनिकाय का उल्लेख है। त्रस शब्द का उल्लेख भी है, किन्तु षट्जीवनिकाय में कौन स है और स्थावर है ऐसी चर्चा उसमें नहीं है। 3. उत्तराध्ययन आचारांग से जब हम उत्तराध्ययन की ओर आते हैं तो यह पाते हैं कि उसके 26वें एवं 36वें अध्यायों में षट्जीवनिकाय का उल्लेख उपलब्ध होता है। 26वें अध्याय में यद्यपि स्पष्ट रूप से त्रस और स्थावर के वर्गीकरण की चर्चा तो नहीं की गई है, किन्तु उसमें जिस क्रम से षट्जीवनिकायों के नामों का निरूपण हुआ है उससे यही फलित होता है कि पृथ्वी, अप (उदक ), अग्नि, वायु और वनस्पति ये पाँच स्थावर हैं और छठा त्रसकाय ही त्रस है', किन्तु उत्तराध्ययन के 36वें अध्याय की स्थिति इससे भिन्न है, एक तो उसमें सर्वप्रथम षट्जीवनिकाय को बस और स्थावर -- ऐसे दो वर्गों में वर्गीकृत किया गया है और दूसरे स्थावर के अन्तर्गत पृथ्वी, अप और वनस्पति को तथा त्रस के अन्तर्गत अग्नि, वायु और त्रसजीवनिकाय को रखा गया है। इस प्रकार यद्यपि उत्तराध्ययन के 36वें अध्याय से आचारांग की वायु को Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रो. सागरमल जैन सकायिक मानने की अवधारणा की पुष्टि होती है। किन्तु जहाँ तक अग्निकाय का प्रश्न है, उसे जहाँ आचारांग के अनुसार स्थावर निकाय के अन्तर्गत वर्गीकृत किया जा सका है, वहाँ उत्तराध्ययन में उसे स्पष्ट रूप से त्रसनिकाय के अन्तर्गत वर्गीकृत किया गया है। इस प्रकार दोनों में आंशिक मतभेद भी परिलक्षित होता है। उत्तराध्ययन का यह दृष्टिकोण तत्त्वार्थसूत्र (भाष्यमान्य मूलपाठ) में और तत्त्वार्थभाष्य में भी स्वीकृत किया गया है। इससे ऐसा लगता है कि निर्गन्थ परम्परा में प्राचीनकाल में यही दृष्टिकोण विशेष रूप से मान्य रहा होगा। 4. दशवैकालिक जहाँ तक दशवैकालिक का प्रश्न है, उसका चतुर्थ अध्याय तो षट्जीवनिकाय के नाम से ही जाना जाता है। उसमें त्रस एवं स्थावर का स्पष्टतया वर्गीकरण तो नहीं किया गया है, किन्तु जिस क्रम में उनका प्रस्तुतिकरण हुआ है, उससे यह धारणा बनाई जा सकती है कि दशवैकालिक पृथ्वी, अप, अग्नि, वायु और वनस्पति इन पाँच को स्थावर ही मानता होगा। षट्जीवनिकाय के क्रम को लेकर दशवैकालिक की स्थिति उत्तराध्ययन के 26वें अध्ययन के समान है, किन्तु आचारांग से तथा उत्तराध्ययन के 36वें अध्याय से भिन्न है। 5. जीवाभिगम उपांग साहित्य में प्रज्ञापना में जीवों के प्रकारों की चर्चा ऐन्द्रिक आधारों पर की गई, त्रस और स्थावर के आधार पर नहीं। जीवों का स और स्थावर का वर्गीकरण जीवाभिगमसूत्र में मिलता है। उसमें स्पष्ट रूप से पृथ्वी, अप (जल) और वनस्पति को स्थावर तथा अग्नि, वायु एवं दीन्द्रियादि को त्रस कहा गया है। इस दृष्टि से जीवाभिगम और उत्तराध्ययन का दृष्टिकोण समान है। जीवाभिगम की टीका में मलयगिरि ने इसे स्पष्ट करते हुए लिखा है कि जो सर्दी-गर्मी के कारण एक स्थान का त्याग करके दूसरे स्थान पर जाते हैं, वे त्रस हैं अथवा जो इच्छापूर्वक उर्ध्व, अध एवं तिर्यक् दिशा में गमन करते हैं, वे त्रस है। उन्होंने लब्धि से तेज (अग्नि ) और वायु को स्थावर, किन्तु गति की अपेक्षा से त्रस कहा है। 6. तत्त्वार्थसूत्र जहाँ तक जैन परम्परा के महत्त्वपूर्ण सूत्र शैली के ग्रन्थ "तत्त्वार्थ" का प्रश्न है, उसके श्वेताम्बर सम्मत मूलपाठ में तथा तत्त्वार्थ के उमास्वाति के स्वोपज्ञ भाष्य में पृथ्वी, अप और वनस्पति -- इन तीन को स्थावरनिकाय में और शेष तीन अग्नि, वायु और द्वीन्द्रियादि को सनिकाय में वर्गीकृत किया गया है। इस प्रकार तत्त्वार्थसूत्र और तत्त्वार्थभाष्य का पाठ उत्तराध्ययन के 36वें अध्याय के दृष्टिकोण के समान ही है। तत्त्वार्थ का यह दृष्टिकोण आचारांग के प्राचीनतम दृष्टिकोण से इस अर्थ में भिन्न है कि इसमें अग्नि को स्पष्ट रूप से स माना गया है, जब कि आचारांग के अनुसार उसे स्थावर वर्ग के अन्तर्गत वर्गीकृत किया जा सकता है। अब हम दिगम्बर परम्परा की ओर मुड़ते हैं तो उसके द्वारा मान्य तत्त्वार्थसूत्र की For Private & Pagonal Use Only Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षटजीवनिकाय में त्रस एवं स्थावर के वर्गीकरण की समस्या र्वार्थसिद्धि टीका के मूल पाठ12 उसकी टीका -- दोनों में पंचस्थावरों की अवधारणा स्पष्ट उल्लेख है। दिगम्बर परम्परा की तत्त्वार्थ की टीकाओं में प्रायः सभी ने पृथ्वी, अप, अग्नि, वायु, वनस्पति इन पाँच को स्थावर माना है। 7. पंचास्तिकाय कुन्दकुन्द के ग्रन्थ पंचास्तिकाय और षट्खण्डागम की धवला का दृष्टिकोण सवार्थसिद्धि से भिन्न है। कुन्दकुन्द अपने ग्रन्थ पंचास्तिकाय में अपना दृष्टिकोण प्रस्तुत करते हुए कहते हैं कि पृथ्वी, अप, तेज ( अग्नि), वायु और वनस्पति ये पाँच एकेन्द्रिय जीव हैं। इन एकेन्द्रिय जीवों में पृथ्वी, अप (जल) और वनस्पति ये तीन स्थावर शरीर से युक्त है और शेष अनिल और अनल अर्थात वायु और अग्नि स है। इस प्रकार पाँच प्रकार के एकन्द्रिय जीवों में कुन्दकुन्द ने केवल पृथ्वी, अप और वनस्पति इन तीन को ही स्थावर माना था, शेष को वे त्रस मानते थे। इस प्रकार हम देखते हैं कि कुन्दकुन्द का दृष्टिकोण भी तत्त्वार्थसूत्र के श्वेताम्बर मान्य पाठ, तत्त्वार्थभाष्य और प्राचीन आगम उत्तराध्ययन के समान ही है। यद्यपि गाथा क्रमांक 110 में उन्होंने पृथ्वी, अप, अग्नि, वायु और वनस्पति का जिस क्रम से विवरण दिया है वह बस और स्थावर जीवों की अपेक्षा से न होकर एकेन्द्रिय एवं द्रीन्द्रिय आदि के वर्गीकरण के आधार पर है। यह गाथा उत्तराध्ययनसूत्र के 26वें अध्याय की गाथा के समान है -- तुलना के रूप में पंचास्तिकाय और उत्तराध्ययन की गाथायें प्रस्तुत हैं। पुढवीआउक्काए, तेऊवाऊ वणस्सइतसाण। पडिलेहणापमत्तो कण्हं पि विराहओ होइ।। -- उत्तराध्ययन, 26/30 पढवी य उदगमगणी वाउवणप्फदि जीवसंसिदाकाया। देंति खलु मोह बहुलं फासं बहुगा वि ते तेसिं।। -- पंचास्तिकाय 110 तसा य थावरा चेव, थावरा तिविहा तहिं। पुढवी आउजीवा य, तहेव य वणस्सई।। तेऊवाऊ य बोद्धव्वा उराला तसा तहा। -- उत्तराध्ययन, 36168, 69, 107 तित्थावरतणु जोगा अणिलाणल काइया य तेसु तसा मणपरिणाम विरहिदा जीवा एइंदिया णेया -- पंचास्तिकाय 111 षट्खण्डागम दिगम्बर परम्परा के षट्खण्डागम की धवला टीका में त्रस और स्थावर के वर्गीकरण की इस चर्चा को तीन स्थलों पर उठाया गया है -- सर्वप्रथम सत्यरूपणा अणुयोगद्वार (1/1/39) १६ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रो. सागरमल जैन की टीका में, उसके पश्चात् जीव स्थान प्रकृति समुत्तकीर्तन (1/9-1/28 ) की टीका में तथा पंचम खण्ड के प्रकृति अनुयोगद्वार के नाम-कर्म की प्रकृतियों ( 5/5/10 ) की चर्चा में इन तीनों ही स्थलों पर स्थावर और उस के वर्गीकरण का आधार गतिशीलता को न मानकर स्थावर नामकर्म एवं उस नामकर्म का उदय बताया गया है। इस सम्बन्ध में चर्चा प्रारम्भ करते हुए यह कहा गया है कि सामान्यतया स्थित रहना अर्थात् ठहरना ही जिनका स्वभाव है उन्हें ही स्थावर कहा जाता है, किन्तु प्रस्तुत आगम में इस व्याख्या के अनुसार स्थावरों का स्वरूप क्यों नहीं कहा गया ? इसका समाधान देते हुए कहा गया है कि जो एक स्थान पर ही स्थित रहे वह स्थावर ऐसा लक्षण मानने पर वायुकायिक, अग्निकायिक और जलकायिक जीवों को जो सामान्यतया स्थावर माने जाते हैं, त्रस मानना होगा, क्योंकि इन जीवों की एक स्थान से दसरे स्थान में गति देखी जाती है। धवलाकार एक स्थान पर अवस्थित रहे वह स्थावर, इस व्याख्या को इसलिए मान्य नहीं करता है, क्योंकि ऐसी व्याख्या में वायुकायिक, अग्निकायिक और जलकायिक जीवों को स्थावर नहीं माना जा सकता, क्योंकि इनमें गतिशीलता देखी जाती है। इसी कठिनाई से बचने के लिए धवलाकार ने स्थावर की यह व्याख्या प्रस्तुत की कि जिन जीवों में स्थावर नामकर्म का उदय हे वे स्थावर है ? न कि वे स्थावर है, जो एक स्थान पर अवस्थित रहते हैं। इस प्रकार स्थावर की नई व्याख्या के द्वारा धवलाकार ने न केवल पृथ्वी, अप, वायु, अग्नि और वनस्पति इन पाँचों को स्थावर मानने की सर्वसामान्य अवधारणा की पुष्टि की, अपितु उन अवधारणाओं का संकेत और खण्डन भी कर दिया जो गतिशीलता के कारण वायु, अग्नि आदि को स्थावर न मानकर उस मान रही थी। इस प्रकार उसने दोनों धारणाओं में समन्वय किया है। स स्थावर के वर्गीकरण के ऐतिहासिक क्रम की दृष्टि से विचार करने पर हम पाते हैं कि सर्वप्रथम आचारांग में पृथ्वी, जल, अग्नि और वनस्पति इन चार को स्थावर और वायुकाय एवं उसकाय इन दो को त्रस माना गया होगा। उसके पश्चात् उत्तराध्ययन में पृथ्वी, जल और वनस्पति इन तीन को स्थावर और अग्नि, वायु और द्वीन्द्रियादि को त्रस माना गया है। अग्नि जो आचारांग में स्थावर वर्ग में थी वह उत्तराध्ययन में उस वर्ग में मान ली गई। वायु में तो स्पष्ट रूप से गतिशलता थी, किन्तु अग्नि में गतिशीलता उतनी स्पष्ट नहीं थी। अतः आचारांग में मात्र वायु को ही त्रस (गतिशील) माना गया था। किन्तु अग्नि की ज्वलन प्रक्रिया में जो क्रमिक गति देखी जाती है, उसके आधार पर अग्नि को त्रस (गतिशील) मानने का विचार आया और उत्तराध्ययन में वायु के साथ-साथ अग्नि को भी त्रस माना गया। उत्तराध्ययन की अग्नि और वायु की त्रस मानने की अवधारणा की ही पुष्टि उमास्वाति के तत्त्वार्थसूत्रमूल उसके स्वोपज्ञ भाष्य तथा कुन्दकुन्द के पंचास्तिकाय में भी की गई है। दिगम्बर परम्परा की स्थावरों और त्रस के वर्गीकरण की अवधारणा से अलग हटकर कुन्दकुन्द द्वारा उत्तराध्ययन और तत्त्वार्थसूत्र के श्वेताम्बर पाठ की पुष्टि इस तथ्य को ही सिद्ध करती है कि कुछ आगमिक मान्यताओं के सन्दर्भ में कुन्दकुन्द श्वेताम्बर परम्परा के उत्तराध्ययन आदि प्राचीन आगमों की Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षटजीवनिकाय में त्रस एवं स्थावर के वर्गीकरण की समस्या मान्यताओं के अधिक निकट हैं। यहाँ यह ज्ञातव्य है कि जहाँ एक ओर उत्तराध्ययन, उमास्वाति के तत्त्वार्थसूत्र एवं कुन्दकुन्द के पंचास्तिकाय में स्पष्ट रूप से षट्जीवनिकाय में पृथ्वी, अप (जल) और वनस्पति-- ये तीन स्थावर और अग्नि, वाय और त्रस (द्रीन्द्रियादि) -- ये तीन त्रस है ऐसा स्पष्ट उल्लेख है। वहीं दूसरी उत्तराध्ययन, दशवैकालिक, उमास्वाति की प्रशमरति एवं कुन्दकुन्द के पंचास्तिकाय जैसे प्राचीन ग्रन्थों में भी कुछ स्थलों पर पृथ्वी, अप, अग्नि, वायु और वनस्पति -- इन एकेन्द्रिय जीवों के एक साथ उल्लेख के पश्चात् त्रस का उल्लेख मिलता है। उनका त्रस के पूर्व साथ-साथ उल्लेख ही आगे चलकर सभी एकेन्द्रियों को स्थावर मानने की अवधारणा का आधार बना है, क्योंकि दीन्द्रिय आदि के लिये तो स्पष्ट रूप से त्रस नाम प्रचलित था। जब द्रीन्द्रियादि त्रस कहे ही जाते थे तो उनके पूर्व उल्लेखित सभी एकेन्द्रिय स्थावर है -- यह माना जाने लगा और फिर इनके स्थावर कहे जाने का आधार इनका अवस्थित रहने का स्वभाव नहीं मानकर स्थावर नामकर्म का उदय माना गया। किन्तु हमें यह स्मरण रखना होगा कि प्राचीन आगमों में इनका एक साथ उल्लेख इनके एकेन्द्रिय वर्ग के अन्तर्गत होने के कारण किया गया है, न कि स्थावर होने के कारण। प्राचीन आगमों में जहाँ पाँच एकेन्द्रिय जीवों का साथ-साथ उल्लेख है वहाँ उसे त्रस और स्थावर का वर्गीकरण नहीं कहा जा सकता है -- अन्यथा एक ही आगम में अन्तर्विरोध मानना होगा। जो समुचित नहीं है। इस समस्या का मूल कारण यह था कि दीन्द्रियादि जीवों को बस नाम से अभिहित किया जाता था -- अतः यह माना गया कि द्वीन्द्रियादि से भिन्न सभी एकेन्द्रिय स्थावर है। इस चर्चा के आधार पर इतना तो मानना ही होगा कि परवर्तीकाल में त्रस और स्थावर के वर्गीकरण की धारणा में परिवर्तन हुआ है तथा आगे चलकर श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों परम्पराओं में पंचस्थावर की अवधारणा दृढीभूत हो गई। यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि जब वायु और अग्नि को त्रस माना जाता था, तब द्वीन्द्रयादि त्रस के लिये उदार (उराल) त्रस शब्द का प्रयोग होता था। पहले गतिशीलता की अपेक्षा से त्रस और स्थावर का वर्गीकरण होता था और उसमें वायु और अग्नि में गतिशीलता मानकर उन्हें त्रस माना जाता था। वायु की गतिशीलता स्पष्ट थी अतः सर्वप्रथम उसे त्रस कहा गया। बाद में सूक्ष्म अवलोकन से ज्ञात हुआ कि अग्नि भी ईंधन के सहारे धीरे-धीरे गति करती हुई फैलती जाती है, अतः उसे भी त्रस कहा गया। जल की गति केवल भूमि के ढलान के कारण होती है स्वतः नहीं, अतः उसे पृथ्वी एवं वनस्पति के समान स्थावर ही माना गया। किन्तु वायु और अग्नि में स्वतः गति होने से उन्हें त्रस माना गया। पुनः जब आगे चलकर जब द्रीन्द्रिय आदि को ही त्रस और सभी एकेन्द्रिय जीवों का स्थावर मान लिया गया तो -- पूर्व आगमिक वचनों से संगति बैठाने का प्रश्न आया। अतः श्वेताम्बर परम्परा में लब्धि और गति के आधार पर यह संगति बैठाई गई और कहा गया कि लब्धि की अपेक्षा से तो वायु एवं अग्नि स्थावर है, किन्तु गति की अपेक्षा से उन्हें उस कहा गया है। दिगम्बर परम्परा में धवला टीका में इसका समाधान यह कह कर किया गया कि वायु एवं अग्नि को स्थावर कहे जाने का आधार उनकी गतिशीलता न होकर उनका स्थावर नामकर्म का उदय है। दिगम्बर परम्परा में ही कुन्दकुन्द के पंचास्तिकाय के टीकाकार जयसेनाचार्य ने यह For Private Personal Use Only Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रो. सागरमल जैन समन्वय निश्चय और व्यवहार के आधार पर किया। वे लिखते हैं -- पृथ्वी, अप और वनस्पति -- ये तीन स्थावर नामकर्म के उदय से स्थावर कहे जाते हैं, किन्तु वायु और अग्नि पंचस्थावर में वर्गीकृत किये जाते हुए भी चलन क्रिया दिखाई देने से व्यवहार से त्रस कहे जाते हैं।18 इस प्रकार लब्धि और गतिशलता, स्थावर नामकर्म के उदय या निश्चय और व्यवहार के आधार पर प्राचीन आगमिक वचनों और परवर्ती सभी एकेन्द्रिय जीवों को स्थावर मानने की अवधारणा के मध्य समन्वय स्थापित किया गया। For Private personal Use Only Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 2 3 4 5 1. 2. 3. 4. 5. 6. 7. 8. 9. 10. 11(37). ( ब ). 12. 13. 14(37). सन्दर्भ व सयं छज्जीवनिकाय सत्यं सामरम्भेज्जा छज्जीवणिकायसुद्भुनिरता इसिमासियाई, 25 / 2 छज्जीवकाये -- उत्तराध्ययन, 12/41 ave जीवनिकायाणं -- दशवैकालिक, 4/9 संति पाणा उदयनिस्सिया जीवा अणेगा । ―― —— इहं च खलु भो अणगाराणं उदयजीवा वियाहिया । आयारो (लाडनू ), 1 / 54-55 आयारो (लाडनू ), प्रथम अध्ययन, उद्देशक 2-7 पुढवि च आउकायं तेउकायं च वाउकार्यं च । पणगाई बीय हरियाहं तसकायं च सव्वसो नच्चा ।। - आयारो, 9/1/12 पुढवी आउक्काए, तेऊवाऊवणस्सइतसाण । पडिलेहणापमत्तो, कुण्डं पि विराहओ होइ ।। संसारत्था उ जे जीवा, दुविहा ते वियाहिया । तसा य थावरा चेव, थावरा तिविहा तहिं । । पुढवी आउ जीवा य तहेव य वणस्सई ।। इच्चेए थावरा तिविहा तेसि भेए सुणह मे । तेऊवाऊ य बोद्धव्वा उराला य तसा तहा। इच्चे तसा तिविहा तेसिं भेए सुणह मे ।। उत्तराध्ययन, 36/68, 69 एवं 107 इमा खलु सा धज्जीवणिया णाम अज्क्षयणं... तंजहा 1 पुढविकाइया, 2 आउकाइया, 3 तेऊकाइया, 4 वाउकाइया, 5 वणस्सईकाइया, 6 तसकाइया । दशवैकालिक, 4/3 संसारिणस्त्रसस्थावराः । पृथिव्यम्बुवनस्पतयः स्थावरा । तेजोवायुद्धीन्द्रियादयश्च त्रसाः । पृथिव्यप्तेजावायुवनस्पतयः स्थावराः । तत्त्वार्थसूत्र, सर्वार्थसिद्धि टीका 9/12 - ति त्थावरतणुजोगा अपिलाणलकाइया य तेसु तसा । मण परिणाम विरहिदा जीवा एइंदिया णेया । । पंचास्तिकाय 111 से किं थावरा ?, तिविहा पन्न्त्ता, तंजहा - पुढवि काहया आउक्काइया वणस्सइकाइया || जीवाभिगम प्रथम प्रतिपत्तिसूत्र 10 आयारो (लाडनू ) २० --- तत्त्वार्थसूत्र (भाष्य मान्य पाठ) 9/12-14 वही, सवार्थसिद्धिमान्य पाठ 9 / 12 Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रो. सागरमल जैन (ब). (स). 15(अ). से किं तं तसा ? तिविहा पण्णत्ता, तंजहा - तेउक्काइया वाउक्काइया ओराला तसा पाणा।। -- वही, सूत्र 22 जीवाभिगम प्रथम प्रतिपत्ति सूत्र 8-10 पर मलयगिरि की टीका -- तेजोवायूनां लब्ध्या स्थावराणामपि सतां गतित्रसेष्वन्तर्भावविवक्षणात् । जस्स कम्मरसुदएण जीवाणं संचरणासंचरणभावो होदि तं कम्मं तसणामं । जरस कम्मस्सुदएण जीवाणं थावरत्तं होदि तं कम्म थावरं णाम। आउ-तेउ-वाउकाइयाणं संचरणोवलंभादो ण तसत्तमत्थि, तेसिं गमणपरिणामस्स पारिणामियत्तादो। -- पट्खण्डागम 5/5/101, खण्ड 5, भाग 1,2,3, पुस्तक 13, पृ. 365 जस्स कम्मस्स उदएण जीवाणं तसत्तं होदि, तस्स कम्मस्स तसेत्ति सण्णां, कारणे कज्जुवयारादो। जदि तसणामकम्मं ण होज्ज, तो बीइंदियादीणमभावो होज्ज। ण च एवं, तेसिमुबलंभा। जस्स कम्मरस उदएण जीवो थावरत्तं पडिवज्जदि तम्स कम्मस्स थावरसण्णा। ___ -- षट्खण्डागम 1/9-1/28, खण्ड 1, भाग 1, पुस्तक 6, पृ. 61 एते सनामकर्मोदयवशवर्तितः । के पुनः स्थावराः इति चेत् ? एकेन्द्रियाः कथमनुक्तमवगम्यते चेत्परिशेषात्। स्थावरकर्मणः किं कार्यमिति चेदेकस्थानावस्थापकत्वम् । तेजोवाय्वप्कायिकानां चलनात्मकानां तथा सत्यस्थावरत्वं स्यादिति चेन्न, स्थारननां प्रयोगतश्चलच्छिन्नपानामिव गतिपर्यायपरिणतसमीरणाव्यतिरिक्तशरीरत्वतरतेपां गमनाविरोधात् । -- षट्खण्डागम, धवलाटीका 1/1/44, पृ. 277 अथ व्यवहारेणाग्निवातकायिकानां सत्वं दर्शयति -- पृथिव्यंब्वनस्पतयस्त्रयः स्थावरकायगोगात्सम्बन्धात्स्थावरा भण्यंते अनलानिलकायिकाः तेषु पंच स्थावरेषु मध्ये चलन क्रियां दृष्ट्वा व्यवहारेण त्रसाभण्यंते। -- पंचास्तिकायः जयसेनाचार्यकृत तात्पर्यवृत्तिः, गाथा 111 की टीका (स). 16. २१ For Private & pero Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्णिमापक्ष - भीमपल्लीयाशाखा का इतिहास - शिव प्रसाद निर्गन्थदर्शन के श्वेताम्बर सम्प्रदाय के अन्तर्गत चन्द्रकुल [बाद में चन्द्रगच्छ] से उद्भूत गच्छों में पूर्णिमागच्छ भी एक है। पाक्षिक पर्व पूर्णिमा को मनायी जाये या अमावस्या को, इस प्रश्न पर पूर्णिमा का पक्ष ग्रहण करने वाले चन्द्रगच्छीय मुनिजन पूर्णिमापक्षीय या पूर्णिमागच्छीय कहलाये। वि.सं. 1149 या 1159 में इस गच्छ का प्रादुर्भाव माना जाता है। चन्द्रकुल के आचार्य जयसिंहसूरि के शिष्य चन्द्रप्रभसूरि इस गच्छ के प्रवर्तक माने जाते हैं। इस गच्छ से भी समय-समय पर विभिन्न शाखाओं का जन्म हुआ, जिसमें प्रधानशाखा या ढंढेरियाशाखा, भीमपल्लीयाशाखा, सार्धपूर्णिमाशाखा, कच्छोलीवालशाखा आदि प्रमुख हैं। विवेच्य निबन्ध में भीमपल्लीयाशाखा के इतिहास पर प्रकाश डालने का प्रयास किया गया है। पूर्णिमागच्छ की यह शाखा भीमपल्ली नामक स्थान से अस्तित्त्व में आयी प्रतीत होती है। इसके प्रवर्तक कौन थे, यह कब और किस कारण से अस्तित्त्व में आयी, इस सम्बन्ध में आज कोई भी जानकारी उपलब्ध नहीं है। इस शाखा में देवचन्द्रसूरि, पार्श्वचन्द्रसूरि, जयचन्द्रसूरि, भावचन्द्रसूरि, मुनिचन्द्रसूरि विनयचन्द्रसूरि आदि कई महत्त्वपूर्ण आचार्य हुए हैं। भीमपल्लीयाशाखा से सम्बद्ध जो भी साक्ष्य आज उपलब्ध हुए हैं, वे वि.सं. की 15वीं शती से वि.सं. की 18वीं शती तक के हैं और इनमें अभिलेखीय साक्ष्यों की बहुलता है। अध्ययन की सुविधा के लिये सर्वप्रथम अभिलेखीय और तत्पश्चात् साहित्यिक साक्ष्यों का विवरण प्रस्तुत किया गया है। अभिलेखीय साक्ष्य -- पूर्णिमापक्ष-भीमपल्लीयाशाखा के मुनिजनों द्वारा प्रतिष्ठापित 54 जिन प्रतिमायें अद्यावधि उपलब्ध हुई हैं। इन पर वि.सं. 1459 से वि.सं. 1598 तक के लेख उत्कीर्ण हैं जिनसे ज्ञात होता है कि ये प्रतिमायें उक्त कालावधि में प्रतिष्ठापित की गयी थीं। इनका विवरण इस प्रकार है : २२ Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व For Private & Personal Usegghly पर्णिमागच्छा भीमपल्लीयाशाखा ] के मुनिजनों की प्रेरणा से प्रतिष्ठापित जिन प्रतिमाओं पर उत्कीर्ण लेखों का विवरण -- क्र. संवत् तिथि/मिति आचार्यनाम प्रतिमालेख/स्तम्भलेख प्रतिष्ठास्थान संदर्भग्रन्थ 1.1459 चैत्रसुदि 15 देवचन्द्रसूरि जिन प्रतिमा पर सीमंधरस्वामी मुनिबुद्धिसागर शनिवार के पट्टधर उत्कीर्ण लेख का जिनालय, संपा. जैन धातु प्रतिमालेख संग्रह, भाग 1, पार्श्वचन्द्रसूरि अहमदाबाद लेखांक 1189 2.1461 ज्येष्ठ सुदि 10 पदमप्रभस्वामी चिन्तामणि जी नाहटा, अगरचन्द शुक्रवार की चौबीसी पर का जिनालय, संपा. - बीकानेर जैन लेख संग्रह, उत्कीर्ण लेख बीकानेर लेखांक 597 3. 1482 चैत्रवदि 5 पार्श्वचन्द्रसूरि नमिनाथ की महावीर जिनालय, नाहर, पूरनचन्द शुक्रवार के पट्टधर पंचतीर्थी प्रतिमा सुधिटोला, संपा. जैन लेख संग्रह, भाग 2, जयचन्द्रसूरि का लेख लखनऊ लेखांक 1564 4. 1585 वैशाखसुदि 8 जयचन्द्रसूरि आदिनाथ आदिनाथ जिनालय, मुनि जयन्तविजय, सोमवार की धातु प्रतिमा हद्राण ग्राम संपा. अबुर्दाचलप्रदक्षिणा जैन लेखसंदोह का लेख [आबू-भाग 5 ], लेखांक 198 5. 1492 चैत्रवदि 5 जयचन्द्रसूरि शीतलनाथ चन्द्रप्रभ जिनालय, नाहर, पूरनचन्दशुक्रवार की पंचतीर्थी प्रतिमा जैसलमेर पूर्वोक्त, भाग 3, लेखांक 2309 का लेख Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 6. 1492 चैत्रवदि 5 शुक्रवार पार्श्वचन्द्रसूरि के पट्टधर जयचन्द्रसूरि जयचन्द्रसूरि 7. 1496 वैशाखसुदि 11 बुधवार 8. 1501 वैशाखसुदि 3 जयचन्द्रसूरि 9. 1502 जयच माघसुदि 2 शुक्रवार जयचन्द्रसूरि कुंथुनाथ की पार्श्वनाथदेरासर, मुनि बुद्धिसागर, प्रतिमा का लेख अहमदाबाद पूर्वोक्त, भाग 1, लेखांक 909 वासुपूज्यस्वामी चिन्तामणि नाहटा, पूर्वोक्त, की पंचतीर्थी प्रतिमा जिनालय, लेखंक 789 का लेख बीकानेर अजितनाथ की वहीं वहीं, लेखांक 842 प्रतिमा का लेख संभवनाथ पार्श्वनाथ देरासर, मुनि बुद्धिसागर, की पंचतीर्थी पाटण पूर्वोक्त, भाग 1 प्रतिमा का लेख लेखांक 230 चिन्तामणि जिनालय, नाहटा, पूर्वोक्त, बीकानेर लेखांक 862 शांतिनाथ मनमोहनपार्श्वनाथ बुद्धिसागर, पूर्वोक्त, की प्रतिमा जिनालय, भाग 2, लेखांक 275 का लेख पद्मप्रभ चन्द्रप्रभस्वामी नाहर, पूर्वोक्त, की प्रतिमा का जिनालय, भाग 3, लेखांक 2318 का लेख जैसलमेर 10. 1502 जयचन्द्रसूरि २४ माघसुदि 13 रविवार ज्येष्ठवदि 13 शनिवार ला 11. 1503 जयचन्द्रसूरि मीयागाम 12. 1503 आषाढ़ वदि 13 सोमवार जयचन्द्रसूरि Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 1503 जयचन्द्रसूरि माधवदि 2 शुक्रवार मुनि विजयधर्मसूरि संपा. प्राचीन लेख संग्रह, लेखांक 193 14. 1504 फाल्गुन सुदि 8 सोमवार जयचन्द्रसूरि आदिनाथ जिनालय, बुद्धिसागर, पूर्वोक्त, बड़ोदरा भाग 2, लेखांक 99 15. 1506 वैशाख सुदि 12 जयचन्द्रसूरि शांतिनाथ जिनालय, वही, भाग 1 कनासानो पोड़ा, लेखांक 309 गुरुवार पाटण चन्द्रप्रभस्वामी की धातु की प्रतिमा का लेख आदिनाथ की चौबीसी प्रतिमा का लेख शीतलनाथ की प्रतिमा का लेख संभवनाथ की पंचतीर्थी प्रतिमा का लेख सुमतिनाथ की प्रतिमा का लेख धर्मनाथ की प्रतिमा का लेख 16. 1507 वैशाख सुदि 10 बुधवार जयचन्द्रसूरि जैनमंदिर, चाणस्मा मुनि बुद्धिसागर, पूर्वोक्त, भाग 1, लेखांक 113 वही, भाग 1 लेखांक 827 ht 17 1508 जयचन्द्र माघ सुदि 5 सोमवार जयचन्द्रसूरि सौदागरपोल, अहमदाबाद 18. 1509 जयचन्द्रसूरि फाल्गुन सुदि 3 गुरुवार चन्द्रप्रभस्वामी का मंदिर, जैसलमेर नाहर, पूर्वोक्त, भाग 3, लेखांक 232 Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 19. 1511 ज्येष्ठ वदि 9 रविवार जयचन्द्रसूरि प्रेमचन्द्रमोदीनीटोंक, वहीं, भाग 1, शत्रुजय लेखांक 692 20.1511 जयचन रविवार आदिनाथ जिनालय, मुनि विजयधर्मसूरि जामनगर पूर्वोक्त, लेखांक 270 21. 1511 पौष वदि 5 जयचन्द्रसूरि । चिन्तामणि जिनालय, नाहटा, अगरचन्द, बीकानेर पूर्वोक्त, लेखांक 948 22. 1511 माघ वदि 1 For Private & Personal use only जयचन विमलनाथ की प्रतिमा का लेख सुविधिनाथ की धातु प्रतिमा का लेख सुमतिनाथ की प्रतिमा का लेख सुमतिनाथ की प्रतिमा का लेख संभवनाथ की धातु की चौबीसी प्रतिमा का लेख कुंथुनाथ की पंचतीर्थी प्रतिमा का लेख 23. 1512 माघ सुदि 5 रविवार जयचन्द्रसूरि पार्श्वनाथ जिनालय, मुनि बुद्धिसागर, पूर्वोक्त, भाग 1, लेखांक 636 चिन्तामणिपार्श्वनाथ मुनिविशालविजय, जिनालय, संपा. राधनपुर प्रतिमा लेख संग्रह, चिन्तामणिशेरी, लेखांक 179 राधनपुर अजितनाथ जिनालय, विनयसागर, सिरोही संपा. प्रतिष्ठालेख संग्रह लेखांक 521 24. 1513 माघ सुदि 13 सोमवार जयचन्द्रसूरि Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 25. 1514 माघ सुदि 2 शुक्रवार जयचन्द्रसूरि 26. 1515 जयचन्द्रसूरि ज्येष्ठ सुदि 5 सोमवार विमलनाथ विमलनाथ की प्रतिमा का लेख धर्मनाथ की प्रतिमा का लेख कुन्थुनाथ की प्रतिमा का 27. 1515 जयचन्द्रसूरि ज्येष्ठ सुदि 5 सोमवार जैनमंदिर, मुनिबुद्धिसागर, ग्राम- चवेली पूर्वोक्त, भाग 1 लेखांक 84 पंचायती जैन मंदिर, नाहर, पूरनचन्द, सराफा बाजार, पूर्वोक्त, भाग 2, लस्कर, ग्वालियर लेखांक 1376 देहरी न. 268/1 मुनि कंचनसागर, शत्रुजय संपा. श@जयगिरिराजदर्शन लेखांक 194 जैनमंदिर, नाहर, पूरनचन्द्र, दीनाजपुर, बंगाल पूर्वोक्त, भाग 1, लेखांक 629 पार्श्वनाथ देरासर मुनि बुद्धिसागर, पाटण ___ पूर्वोक्त, भाग 1, लेखांक 216 लेख 28. 1515 जयचन्द्रसूरि कुन्थुनाथ फाल्गुन वदि 5 गुरुवार 29. 1516 वैशाख सुदि गुरुवार जयचन्द्रसूरि की धातु की प्रतिमा का लेख आदिनाथ की चौबीसी प्रतिमा का लेख श्रेयंसनाथ की प्रतिमा का लेख 30. 1516 जयचन्द्रसूरि माघ वदि 8 सोमवार नेमिनाथ जिनालय, मांडवीपोल, खंभात वहीं, भाग 2, लेखांक 632 Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 31. 1518 जयचन्द्रसूरि वैशाख वदि 1 गुरुवार 32. 1518 जयचन्द्रसूरि वैशाख वदि 1 गुरुवार 33. 1518 जयचन्द्रसरि वैशाख वदि1 शनिवार लेख विमलनाथ आदिनाथ जिनालय, विजयधर्मसूरि, की पंचतीर्थी घोघा पूर्वोक्त, लेखांक 320 प्रतिमा का लेख नमिनाथ की शांतिनाथ जिनालय, वहीं, लेखांक 321 धातु की पंचतीर्थी घोघा प्रतिमा का लेख कुंथुनाथ शांतिनाथ जिनालय, मुनि बुद्धिसागर, की प्रतिमा का खेडा पूर्वोक्त, भाग 2, लेखांक 417 चन्द्रप्रभस्वामी चन्द्रप्रभजिनालय, नाहर, पूरनचन्द्र, की प्रतिमा का जैसलमेर पूर्वोक्त, भाग 3, लेख लेखांक 2342 सुमतिनाथ आदिनाथ जिनालय मुनि जयन्तविजय, की धातु की वासा पूर्वोक्त, भाग 5, प्रतिमा का लेख लेखांक 539 धर्मनाथ शांतिनाथजिनालय, मुनि बुद्धिसागर, की प्रतिमा कनासानो पाडो पूर्वोक्त, भाग 1, का लेख लेखांक 299 ८ 34. 1518 माघ सुदि 13 जयचन्द्रसूरि गुरुवार 35. 1520 वैशाख वदि 8 रविवार जयचन्द्रसूरि 36. 1520 कार्तिक वदि 2 शनिवार जयचन्द्रसूरि पाटण Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ 37. 1523 39. 1524 40. 1526 41. 1527 42. 1536 43. 1547 वैशाख वदि 1 सोमवार पौष वदि 5 सोमवार आश्विन सुदि 8 शुक्रवार ज्येष्ठ सुदि 4 गुरुवार माघ वदि 7 सोमवार पौष वदि 10 बुधवार जयचन्द्रसूरि जयचन्द्रसूर जयचन्द्रसूरि जयचन्द्रसूरि भावचन्द्रसूरि के पट्टधर चारित्रचन्द्रसूरि जयचन्द्रसूरि के पट्टधर जयरत्नसूरि पार्श्वनाथ की प्रतिमा का लेख संभवनाथ की प्रतिमा का लेख अभिनन्दनस्वामी की प्रतिमा का लेख संभवनाथ की प्रतिमा का लेख विमलनाथ की प्रतिमा का लेख शांतिनाथ की धातु की प्रतिमा का लेख शांतिनाथ जिनालय, कनासानो पाडो, पाटण कल्याणपार्श्वनाथ देरासर, मामा की पोल, बड़ोदरा मुनिसुव्रत जिनालय, भरुच मुनिबुद्धिसागर, पूर्वोक्त, भाग 1, लेखांक 305 शांतिनाथ जिनालय, भिंडीबाजार, बम्बई शांतिनाथ जिनालय, कनासानो पाडो, वहीं, भाग 2, लेखांक 34 वहीं, भाग 2, लेखांक 324 मुनिकान्तिसागर, संपा. जैन धातु प्रतिमालेख, लेखांक 200 मुनि बुद्धिसागर, पूर्वोक्त, भाग 1, लेखांक 344 पाटण गौड़ीजी का मंदिर मुनि विजयधर्मसूरि, उदयपुर पूर्वोक्त, लेखांक 494 Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 44. 1553 आषाढ़ सुदि 2 शुक्रवार चारित्रचन्द्रसूरि के पट्टधर मुनिचन्द्रसूरि चारित्रचन्द्रसूरि के पट्टधर मुनिचन्द्रसूरि 45. 1554 माघ वदि 2 46. 1558 मुनिचन्द्रसूरि फाल्गुन सुदि 8 सोमवार वैशाख सुदि 3 47. 1560 मुनिचन्द्रसूरि मुनिसुव्रत अभिनन्दनस्वामी लोढ़ा, दौलतसिंह, की धातु की प्रतिमा का मंदिर, श्रीप्रतिमा लेख संग्रह, का लेख रसियासेरी, थराद लेखांक 260 चन्द्रप्रभस्वामी शांतिनाथ जिनालय, नाहटा, अगरचन्द, की पंचतीर्थी बीकानेर पूर्वोक्त, प्रतिमा का लेखांक 1124 लेख संभवनाथ आदिनाथ जिनालय, बुद्धिसागर, पूर्वोक्त, की पंचतीर्थी बड़ोदरा भाग 2, लेखांक 112 वासुपूज्य जैनमंदिर, गवाड़ा, वहीं, भाग 1, की प्रतिमा लेखांक 650 का लेख सुमतिनाथ आदिनाथ जिनालय, मुनि विशालविजय, की धातु की आदिनाथ खड़की, पूर्वोक्त, लेखांक 329 प्रतिमा का लेख राधनपुर मुनिसुव्रत बड़ा मंदिर, विनयसागर, की पंचतीर्थी नागौर पूर्वोक्त, लेखांक 962 प्रतिमा का लेख एवं नाहर पूर्वोक्त, भाग 2, लेखांक 1302 30 48. 1571 वैशाख सुदि 5 मुनिचन्द्रसूरि 49. 1576 चैत्र वदि 5 शनिवार मुनिचन्द्रसूरि Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 50. 1577 वैशाख सुदि 13 मुनिचन्द्रसूरि 51. 1578 माघ सुदि 9 सोमवार मुनिचन्द्रसूरि 52. 1591 वैशाख वदि 2 सोमवार मुनिचन्द्रसूरि ३१ शांतिनाथ की प्रतिमा का लेख विमलनाथ की प्रतिमा का लेख वासुपूज्य स्वामी की चौबीसी प्रतिमा का लेख आदिनाथ की प्रतिमा का लेख पार्श्वनाथ की प्रतिमा का लेख घरदेरासर, नाहर, पूर्वोक्त, कलकत्ता भाग 1, लेखांक 132 घरदेरासर, बुद्धिसागर, पाटण पूर्वोक्त, भाग 1 लेखांक 385 शांतिनाथ वहीं, भाग 2, जिनालय, लेखांक 62 काठीपोल, बड़ोदरा महावीर जिनालय, नाहर, पूर्वोक्त, पुरानी मंडी, भाग 1, लेखांक 62 बड़ोदरा पूर्णचन्द्रजी का बुद्धिसागर, पूर्वोक्त, घरदेरासर, भाग 1, लेखांक 383 पाटण 53. 1598 पौष वदि 11 सोमवार विनयचन्द्रसूरि 54. 1598 पौष वदि 11 सोमवार विनयचन्द्रसूरि Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिवप्रसाद उक्त प्रतिमालेखीय साक्ष्यों द्वारा यद्यपि पूर्णिमागच्छ की भीमपल्लीयाशाखा के विभिन्न मुनिजनों के नाम ज्ञात होते हैं किन्तु उनमें से मात्र 8 मुनिजनों के पूर्वापर सम्बन्ध ही स्थापित हो सके हैं, जो इस प्रकार हैं-- ? देवचन्द्रसूरि पार्श्वचन्द्रसूरि । वि.सं. 1459-14611 2 प्रतिमालेख जयचन्द्रसूरि । वि.सं. 1482-1527 ] 39 प्रतिमालेख जयरत्नसूरि । वि.सं. 1547] 1 प्रतिमालेख भावचन्द्रसूरि चारित्रचन्द्रसूरि [वि.सं. 1536] 1 प्रतिमालेख मुनिचन्द्रसूरि [वि.सं. 1553-159119 प्रतिमालेख विनयचन्द्रसूरि [वि. सं. 15981 1 प्रतिमालेख अभिलेखीय साक्ष्यों के आधार पर निर्मित पूर्णिमापक्ष-भीमपल्लीयाशाखा की उक्त छोटी-छोटी और दो अलग-अलग गुर्वावलियों का उक्त आधार पर परस्पर समायोजन सम्भव नहीं हो सका, अतः इसके लिये पूर्णिमागच्छीय साहित्यिक साक्ष्यों पर भी दृष्टिपात करना अपरिहार्य है। पार्श्वनाथचरित की वि.सं. 1504 में प्रतिलिपि की गयी एक प्रति की दाताप्रशस्ति में भीमपल्लीयाशाखा के पासचन्द्रसूरि [ पार्श्वचन्द्रसूरि] के शिष्य जयचन्द्रसूरि का ठल्लेख है। प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि एक श्रावक परिवार ने अपने माता-पिता के श्रेयार्थ उक्त ग्रन्थ की एक प्रति जयचन्द्रसूरि को प्रदान की। जयचन्द्रसूरि की प्रेरणा से वि. सं. 1482/ई. सन् 1426 से वि.सं. 1526/ई. सन् 1461 के मध्य प्रतिष्ठापित 39 जिनप्रतिमायें आज मिलती हैं, जिनका अभिलेखीय साक्ष्यों के अन्तर्गत उल्लेख आ चुका है। पूर्णिमागच्छीय किन्हीं भावचन्द्रसूरि ने स्वरचित शांतिनाथचरित ( रचनाकाल वि.सं. 1535/ई. सन् 14791 की For Private Personal Use Only Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रशस्ति में अपने गुरु का नाम जयचन्द्रसूरि बतलाया है, जिन्हें इस गच्छ की भीमपल्लीयाशाखा के पूर्वोक्त जयचन्द्रसूरि से समसामयिकता, गच्छ, नामसाम्य आदि के आधार पर एक ही व्यक्ति माना जा सकता है । ठीक इसी प्रकार इसी शाखा के भावचन्द्रसूरि [ वि. सं. 1536 के प्रतिमालेख में उल्लिखित ] और शांतिनाथचरित के रचनाकार पूर्वोक्त भावचन्द्रसूरि को एक दूसरे से अभिन्न माना जा सकता है। पूर्णिमापक्ष - भीमपल्लीयाशाखा का इतिहा पूर्णिमागच्छीय किन्हीं जयराजसूरि ने स्वरचित मत्स्योदररास 3 [ रचनाकाल वि.सं. 1553 / ई. सन् 14971 की प्रशस्ति में और इसी गच्छ के विद्यारत्नसूरि ने वि. सं. 1577/ई.सन् 1520 में रचित कूर्मापुत्रचरित' की प्रशस्ति में मुनिचन्द्रसूरि का अपने गुरु के रूप में उल्लेख किया है। पूर्णिमागच्छ से सम्बद्ध बड़ी संख्या में प्राप्त अभिलेखीय साक्ष्यों में तो नहीं किन्तु भीमपल्लीयाशाखा से सम्बद्ध वि. सं. 1553-1591 के प्रतिमालेखों में मुनिचन्द्रसूरि का उल्लेख मिलता है। अतः समसामयिकता और गच्छ की समानता को देखते हुए उन्हें एक ही व्यक्ति मानने में कोई बाधा नहीं है। चूंकि पूर्णिमागच्छ की एक शाखा के रूप में ही भीमपल्लीयाशाखा का जन्म और विकास हुआ, अतः इस शाखा के किन्हीं मुनिजनों द्वारा कहीं-कहीं अपने मूलगच्छ का ही उल्लेख करना अस्वाभाविक नहीं प्रतीत होता और संभवतः यही कारण है कि उक्त ग्रन्थकारों ने अपनी कृतियों की प्रशस्ति में अपना परिचय पूर्णिमागच्छ की भीमपल्लीयाशाखा के मुनि के रूप में नहीं अपितु पूर्णिमागच्छ के मुनि के रूप में ही दिया है विभिन्न गच्छों के इतिहास में इस प्रकार के अनेक उदाहरण देखे जा सकते हैं। 1 प्रतिमालेखों और ग्रन्थप्रशस्तियों के आधार पर पूर्णिमापक्ष - भीमपल्लीया शाखा के मुनिजनों की गुरु- परम्परा की एक तालिका निर्मित होती है, जो इस प्रकार है : साहित्यिक और अभिलेखीय साक्ष्यों के आधार पर निर्मिति पूर्णिमापक्ष - भीमपल्लीयाशाखा के मुनिजनों का विद्यावंशवृक्ष चन्द्रप्रभसूर [ पूर्णिमा गच्छ के प्रवर्तक ] धर्मघोषसूरि [ चौलुक्यनरेश जयसिंहसिद्धराज सुमतिभद्रसूरि (ई. सन् 1094-1142 ) द्वारा सम्मानित ] Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिवप्रसाद देवचन्द्रसूरि पासचन्द्र [ पार्श्वचन्द्रसूरि] [वि.सं. 1459-1461 1 प्रतिमालेख जयचन्द्रसूरि । वि.सं. 1485-1526 ] प्रतिमालेख । [वि. सं. 1504 में लिपिबद्ध पार्श्वनाथचरित में उल्लिखित] भावचन्द्रसूरि । वि.सं. 1535 शांतिनाथचरिता के कर्ता जयरत्नसूरि [वि.सं. 15471 प्रतिमालेख चारित्रचन्द्रसूरि । वि.सं. 1536 1 प्रतिमालेख मुनिचन्द्रसूरि वि.सं. 1553-15911 प्रतिमालेख जयराजसूरि विद्यारत्नसूरि [वि.सं. 1553 में [वि. सं. 1577 में मत्स्योदरदास के कर्ता] कूर्मापुत्रचरित्र के कर्ता विनयचन्द्रसूरि [वि.सं. 15981 प्रतिमालेख For Private & Zonal Use Only Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2. 3. 4. सन्दर्भ संवत् 1503 वर्षे आसो वदि 4 गुरौ श्रीपार्श्वनाथचरित्र पुस्तकं लिखापितमस्ति । । संवत् 1504 वर्षे वैशाख सुदि षष्ठी भौमे श्री प्राग्वाट ज्ञातीय मं. धना भार्या धांधलदे पुत्र मं. मारू भार्या चमकू पितृमातृ स्वश्रेयोर्थं श्रीपार्श्वनाथचरित्र पुस्तकं अषि ।। श्रीभीमपल्लीय श्रीपूर्णिमापक्षे मुक्ष [ मुख्य ] श्रीपासचन्द्रसूरिपट्टे श्री 3 जयचन्द्रसूरिभिः प्रदत्त ।। अमृतलाल मगनलाल शाह संपा. श्रीप्रशस्ति संग्रह अहमदाबाद, वि. सं. 1993, भाग 2, पृष्ठ 10. इति श्री श्री श्रीभावचन्द्रसूरिविरचिते गद्यबंधे श्रीशांतिनाथचरिते द्वादशभववर्णनो नाम षष्टः प्रस्तावः ।। H.R. Kapadia, Ed. Descriptive Catalogue of Mss in the Govt. Mss Library deposited at the Bhandarkar Oriental Research Institute, Serial No. 27, B.O.R.I. Poona, 1987 A.D. No. 733, pp. 118-119. पूनम पक्ष मुनिचन्द्रसूरि राजा, तासु ससि जयइ पइ जइराजा । पनर त्रिपन्न कीधु रास, res गुणइ तेह पूर आस ।। मोहनलाल दलीचन्द देसाई जैन गूर्जर कविओ भाग 1, नवीन संस्करण [ संपा. डॉ. जयन्त कोठारी ] महावीर जैन विद्यालय, मुम्बई, 1986 ईस्वी, पृष्ठ 203-204. इति शिष्यमुनिविद्यारत्नविरचिते चतुर्थोल्लासः --- श्रीपूर्णिमापक्षे भट्टारक श्रीमुनिचन्द्रसूरि शिवगतिवर्णनो नाम श्रीकुर्म्मापुत्रकेवलिचरित्रे परिपूर्णस्तत्परिपूर्णोपरिपूर्णतामभजतायमपि ग्रन्थ इति भद्रम ।। A. P. Shah - Catalogue of Sanskrit and Prakrit Mss: Muni Shree Punya Vijayajis Collection, Part II, L.D. Series No. 5, Ahmedabad, 1965, A. D. pp. 300-302. ३५ Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसन्तविलास महाकाव्य का काव्य-सौन्दर्य - डॉ. केशव प्रसाद गुप्त जैन - संस्कृत वाङ्मय विविध काव्य- रत्नों का अगाध भण्डार है। इसमें अनेक ऐसे काव्य- रत्न हैं जो अपनी विशिष्ट मौलिकता के कारण विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं । चन्द्रगच्छीय जैनाचार्य हरिभद्रसूरि के शिष्य बालचन्द्रसूरि द्वारा तेरहवीं शताब्दी के मध्यकाल में लिखा गया वसन्तविलास महाकाव्य । इसी कोटि का एक विशिष्ट काव्य है । चौदह सर्गों में उपनिबद्ध प्रस्तुत महाकाव्य गुजरात के चौलुक्य नरेश वीरधवल के इतिहास प्रसिद्ध महामात्य वस्तुपाल के जीवन चरित पर सम्यक् रूप से प्रकाश डालता है । यद्यपि यह एक वीररस प्रधान ऐतिहासिक महाकाव्य है, फिर भी इसमें उच्चकोटि की धार्मिकता व साहित्यिकता विद्यमान है । इसमें काव्य के आत्मभूत तत्त्व रस का सर्वत्र निर्वाह किया गया है और शब्दों एवं अर्थों को चमत्कृत करने के लिए विविध अलंकारों की योजना भी की गयी है। महाकाव्य में मुख्य रूप से वैदर्भी रीति को अपनाया गया है। माधुर्य, ओज और प्रसाद गुणों से परिपूर्ण महाकाव्य की भाषा अत्यन्त सरस, प्रौढ़ व प्रवाहमयी है । काव्य और कला में सौन्दर्य का सृजन अनुभूति और अभिव्यक्ति के सामंजस्य पर आधारित होता है । शब्द और अर्थ मिलकर काव्य- शरीर की रचना करते हैं । 2 अतएव, काव्य में शब्द के अनुरूप अर्थ की अभिव्यक्ति और अर्थ के अनुरूप सुन्दर शब्दों का प्रयोग होना आवश्यक होता है । शब्दार्थ के इसी समन्वय को आचार्य कुन्तक ने "अन्यूनातिरिक्तत्वमनोहारिण्यवस्थिति" कहा है। 3 वस्तुतः भारतीय काव्यशास्त्रियों ने शब्दार्थ रूप काव्य- शरीर के दो पक्ष स्वीकार किये हैं आन्तरिक और बाह्य । ये क्रमशः भाव पक्ष और कलापक्ष के नामों से जाने जाते हैं । भावपक्ष के समर्थक आचार्यों ने काव्य के आन्तरिक तत्त्व - रस और ध्वनि को विशेष महत्त्व दिया है, जबकि कलापक्ष के समर्थक आचार्य काव्य के बाह्य तत्त्व अलंकार, रीति, वक्रोक्ति आदि पर विशेष बल देते हैं। इससे स्पष्ट होता है कि काव्य के दोनों पक्षों में सौन्दर्य की स्थिति पृथक्-पृथक् रूप से विद्यमान होती है परन्तु यथार्थ और सम्पूर्ण सौन्दर्य वहीं होता है जहाँ दोनों पक्षों का मंजुल समन्वय रहता है । वसन्तविलास महाकाव्य में काव्य सौन्दर्य के समन्वय स्वरूप, इन दोनों पक्षों का समुचित रूप से निर्वाह किया गया है जिसे अधोलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत व्यक्त किया जा सकता है- 1. रसाभिव्यक्ति 2. अलंकार योजना 3. गुणनिरूपण 4. रीतिविवेचन 5. छन्दोविधान For Private Personal Use Only Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसन्तविलास महाकाव्य का काव्य-सौन्दर्य 1. रसाभिव्यक्ति वसन्त विलास महाकाव्य में विविध रसों का सफल सन्निवेश हुआ है। महाकाव्य की परम्परा के अनुसार श्रृंगार, वीर और शान्त रसों में से कोई एक रस महाकाव्य का अंगीरस होना चाहिए। प्रस्तुत महाकाव्य में प्रधान रूप से वीररस का परिपाक हुआ है। अंगरूप में विविध रसों को यथा वसर समुचित स्थान दिया गया है। वसन्तविलास महाकाव्य में वीर रस के सभी प्रकारों -- दानवीर, धर्मवीर, युद्धवीर तथा दयावीर की योजना की गयी है। सोमनाथ के पूजनोपरान्त वस्तुपाल की दानवीरता का निम्न प्रसंग दर्शनीय है -- श्रीसोमनाथाय सुवर्णरूप्यकूप्यस्वरूपाः सचिवेश्वरेण। तुलापुमांसो बहुशोऽतुलेनादीयन्त विस्मापितविश्वलोकाः ।। स दानपात्रेषु सदानवश्रीः श्रीदानविद्वेषिसमानवेषः। दानं निदानं सततोत्सवानां ददौ सदौचित्यविवेचनेन । यहाँ दान करने में वस्तु पाल का उत्साह स्थायी भाव है। सोमनाथ के सेवक ब्राह्मणादि आलम्बन विभाव हैं, सोमनाथ के प्रति असीम भक्ति और आस्था उद्दीपन विभाव है, स्वर्ण एवं रजतमुद्राओं से अपने को तौलनादि अनुभाव हैं तथा हर्ष, धैर्य, औत्सुक्य आदि संचारी भाव हैं। इन सबके संयोग से वस्तुपाल के हृदयगत दानविषयक उत्साह की परिणति दानवीर रस में हुई महाकाव्य के ग्यारहवें सर्ग में सोमेश्वर के पूजन के समय धर्मवीर की सुन्दर अभिव्यंजना सद्धर्मविद्धर्मशिलामुपेत्य दण्डप्रणामं विदधे प्रणामम्। गत्वा च गर्भालयमध्यमध्यालिलिङ्ग सोमेश्वरमष्टमूर्तितम् ।। अथो तमेव स्नापयन् हृदिस्थं प्रमोदजैलॊचनकुम्भतोयैः । पंचामृतैः पंचशरप्रपंचजितं जितारिः स्नापयाम्बभूव ।। कर्पूरकृष्णागुरुवन्दनादिविलेपनैर्विश्वगुरुं विलिप्य। विधं दशग्रीव शिरोधरास्त्रैरमात्य शम्भुः सुरभीचकार। उक्त वर्णन में वस्तुपाल का सोमेश्वर-पूजन के प्रति "उत्साह" स्थायीभाव है। शिव की मूर्ति आलम्बन विभाव, शिवालय उददीपन विभाव, दण्डवत प्रणाम, मूर्ति का आलिंगन, अश्रु जल से स्नान कराना आदि अनुभाव हैं, स्मृति एवं हर्ष संचारी भाव हैं। अतएव, यहाँ वस्तुपाल की धर्मवीरता की अभिव्यक्ति हो रही है। वस्तपाल और शंख की सेनाओं के मध्य होने वाले घमासान युद्ध का यह वर्णन युद्धवीर रस की पुष्टि कर रहा है -- Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डॉ. केशव प्रसाद गुप्त पत्तिमभ्यपतदेव हि पत्तिारणः करिणमश्वमथाश्वः । स्यन्दनो रथामिति प्रतिरूपन्द्रयुद्धमजनिष्ट गरिष्ठम्।। वीरगर्वगदितैर्हयहेषाडम्बरैः करटिवृंहितवृन्दैः। स्यन्दनप्रकरचीत्कृतिजातैः काहलायमलशंखनिनादैः ।। आहतस्फुरफटत्कृतिजातैः काहलायमलशंखनिनादैः ।। आहतस्फुरफटत्कृतिखंगाखंडिझकृतिधनुर्ध्वनिभिश्च । भट्टलोकतुमुलैः शरमालासूत्कृतभुवनमेतदपूरि।। यहाँ वस्तुपाल और शंख की सेनाएँ आलम्बन विभाव हैं। एक दूसरे को पराजित करने की भावना उद्दीपन विभाव है। वीरों का गरजना, द्वन्द्व युद्ध करना, तलवारों व धनुषों का परस्पर टकराना, शंखनाद आदि अनुभाव हैं। आवेग, उग्रता, गर्व आदि संचारी भाव हैं। इस प्रकार इनके संयोग से सैनिकों के युद्ध विषयक उत्साह की परिणति युद्भवीर रस के रूप में हुई दशम सर्ग में तीर्थ यात्रा के वर्णन में वस्तुपाल की दयाविषयक वीरता दर्शनीय है -- वैद्यभेषजभरान्नवाहनाम्भोभिराभिजलकृत्यविज्जनम। बाधितं क्षुधितमाहितश्रमं तर्षितं च सुखिनीचकार सः।। निःस्वधार्मिकजनानारतं सच्चकार वसनाशनादिभिः । दीनदुःस्थितजनं जनेश्वरः प्राप्तसम्पंदयमन्वकम्पत।।" यहाँ वस्तुपाल के हृदय में दीन दुःखियों के प्रति दयाविषयक उत्साह स्थायीभाव है। बाधित, क्षुधित, थके हुए, प्यासे और दुःखीजन आलम्बन हैं और इन सबकी व्यक्त होने वाली विविध पीडाएँ उददीपन विभाव हैं। चिन्ता, तर्क, मति, हर्ष आदि संचारी भाव हैं। फलतः यहाँ वस्तुपाल का उत्साह दयावीर के रूप में अभिव्यक्त हो रहा है। वीररस प्रधान महाकाव्य होने पर भी वसन्तविलास में श्रृंगार रस को अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान दिया गया है। सम्भोग श्रृंगार का सर्वप्रथम दर्शन सप्तम सर्ग में पुष्पावचय वर्णन में होता है। उपवन प्रदेश में लताओं के मध्य कामातुर युवक-युवतियों की रतिक्रीड़ा एक मनोहारी दृश्य उपस्थित करती है -- अनुप्रयातेन वरेण कौतुकात्प्रिया स्मरेणेव धनुर्लतायता। उदसि मध्ये परिमद्य वेणिकासुरोमराजीगणयुग्मराजिता।। उपागतः कोऽपि युवात्मयोषितं तबाहुमूलाहितहस्तपंकजः । स्तोनपीडं परिगृह्य मन्मथाहारभिन्नामिव धारयन्ययौ।' अष्टम सर्ग में चन्द्रमा की चाँदनी व रात्रि के एकान्त वातावरण में "रति" का यह उद्दीपक दृश्य सम्भोग श्रृंगार की चरमावस्था को द्योतित करता है -- सुभ्रवा दयितया च चुम्बनालिङ्गनैर्विकसदङ्गसम्पदा। Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसन्तविलास महाकाव्य का काव्य-सौन्दर्य अन्तरीयमगलन्नितम्बतः कंचुकस्य गृहकाणि तुत्रुटुः ।। स्वस्तिकीकृतभुजाकुचाहे मीलितोलयुगलांशुकाहती। वल्लभेन न न नेतिवादिनी पर्यरम्भि दशताSधरं वधूः ।। निर्दयं रहसि चुम्बति प्रिये मीलितार्द्धनयना नितम्बिनी। प्राप तैमिलिकलोलिताङ्गुलीवाद्यमानतिमिलेव कूजनम्।।1० इस वर्णन में युवक-युवतियों के हृदय में विद्यमान "रति" स्थायीभाव है। आलम्बन स्वयं युवक-युवतियां तथा उद्दीपन रात्रि का एकान्त व सूना वातावरण है। परस्पर चुम्बन, आलिंगन, कंचुक के बन्धन टूटना, कुचग्रह, जघनोन्मीलन, रमणियों का न, न कहना और नेत्रों का अर्नोन्मीलन आदि अनुभाव हैं। हर्ष, औत्सुक्य, ब्रीडा, आवेग आदि संचारीभाव हैं। इन सबसे परिपुष्ट रति स्थायीभाव यहाँ श्रृंगार रस के रूप में अभिव्यक्त हुआ है। विप्रलम्भ श्रृंगार की अभिव्यंजना महाकाव्य के अन्तिम सर्ग में हुई है। आचार्यों ने विप्रलम्भ के पांच प्रकार माना है।1 इनमें वसन्तविलास में वर्णित विप्रलम्भ पूर्व राग या अभिलाष के अन्तर्गत रखा जा सकता है। वस्तुपाल के प्रशंसा-गीत को सुनकर धर्म की पुत्री सद्गति उस पर अनुरक्त हो जाती है। उसके काम-व्यथा का परिचय जरा नामक दूती इस प्रकार प्रकट करती है -- देव ! त्वदिवरहोल्बणा रणरणानविभ्रतीबिभ्यति, चन्द्राधति सखीरपास्य भवनोत्संगे कुरङ्गेक्षणा।। तत्रापि स्मितरत्नभित्तिषु निजास्येन्दुप्रतिच्छन्दकात्, प्रस्ता त्वन्मनसि प्रवेष्टुमबला सा केवलं रोदिति ।।12 सद्गति की विरहवेदना इतनी तीव्र थी कि वह चन्द्रादि सखियों का साथ छोड़कर वस्तुपाल के लिए केवल विलाप ही करती रहती है। दूती से उसकी व्याकुलता व उत्कण्ठा का समाचार पाकर वस्तुपाल भी उसकी प्राप्ति के लिए विह्वल हो जाता है -- श्रीखण्डद्रवसेवनैरलमलं केलिदलोवीजनैः, पुष्पसस्तकैरलं पुटकिनीपत्रांछनैरप्यलम्। शैत्यं सद्गतिसङ्गमामृतमते मे कल्पते नापरै रित्याह ज्वरदाहयुक्परिजनं श्रीवस्तुपालोऽन्चहम्।।13 उक्त वर्णन में वस्तुपाल की सद्गति विषयक "रति" स्थायीभाव है जिसका आलम्बन सद्गति है। यहाँ अनुकूल विभाव, अनुभाव एवं संचारीभावों से पुष्ट होता हुआ "रति" स्थायीभाव विप्रलम्भ श्रृंगार के रूप में अभिव्यक्त हो रहा है। महाकाव्य में रौद्ररस का भी अत्यन्त सजीव चित्रण हुआ है। शंख के दूत द्वारा यह कहे जाने पर कि शंख के आने से पूर्व तुम भाग जाओ, क्योंकि एक वणिक के भागने पर कोई लोक निन्दा नहीं होगी, वस्तुपाल स्वजातीय गौरव को व्यक्त करते हुए क्रोधपूर्वक कहता है -- ३८ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डॉ. केशव प्रसाद गुप्त क्षत्रियाः समरकेलिरहस्यं जानते न वणिजो भ्रम एषः । अम्बडो वणिगपि प्रधने किं मल्लिकार्जुननृपं न जघान ।। दूत ! रे वणिगहं रणहट्टे विश्रुतोऽसितुलयाकलयामि। मौलिभाण्डपटलानि रिपूणां स्वर्गवतनमयो वितरामि।।15 शंख की सेना के आगमन का समाचार पाकर वस्तुपाल के सैनिकों का क्रोध भड़क उठता है और वे युद्ध हेतु उन्मत्त हो जाते हैं -- एति वैरिकटकं स्फुटमित्याकर्ण्य केचिदपमुद्रितकोपाः । प्रषियन्त इव नाम कराग्रोत्पीडने पिपिषुः कटकानि।। आलिलिगुरयाष्टिमिहैके निश्चुचुम्बरसिधेनुमथान्ये। अस्तवंश्च भुजयुग्मपि स्वं केपि सङ्गरमधित्वरमाणः ।। इन पंक्तियों में वस्तुपाल के सैनिकों के क्रोध का चित्रण किया गया है। आलम्बन शंख की सेना है। युद्ध का उत्साहवर्धक वातावरण उद्दीपन विभाव है। सैनिकों द्वारा तलवार का आलिंगन करना अपने भुजाओं को निरखना आदि अनुभाव हैं। हर्ष, मद, औत्सुक्यादि संचारी भाव हैं। अतएव, यहाँ सैनिकों का क्रोध रौद्र रस की अभिव्यक्ति कर रहा है। महाकाव्य के पंचम सर्ग में युद्ध के समय नरसंहार होने के कारण युद्धभूमि का यह दृश्य 'जुगुप्सा" उत्पन्न कर रहा है -- वस्तुपाल सुभटेषुभिरुच्चैरातपत्रनिवहेषु समन्तात् । पातितेषु रिपुराजकबन्धैःश्येनमण्डलमवाप तदाभाम् ।। श्रृंगकैरिव विहस्य गृहीतरिक्तबाणधिभिरेव पिशाचैः । रौधिरेषु विदधुर्जलकेलिं निम्नभूतलगतेषु नदेषु ।।। उक्त श्लोकों में श्येन व गिद्धादि द्वारा शवों के खाये जाने एवं पिशाचों द्वारा रुधिर-नद में जलकेलि किये जाने आदि के वर्णन में "जुगुप्सा" के कारण वीभत्स रस की व्यंजना की गयी पंचम सर्ग में वस्तपाल और शंख के युद्ध के अन्तिम क्षणों में भयानक रस का चित्रण हुआ है। वस्तुपाल की विशाल सेना, उसके पराक्रम और अपनी नष्ट होती हुई सेना को देखकर शंख डर जाता है और युद्धभूमि से भागकर अपनी राजधानी भृगुकच्छ (भृगुपुर ) पहुंचने पर ही श्वांस लेता है -- ध्वस्तव्यस्तसमस्तपत्तिविभवो वाहत्वराविच्छुटकेशः क्लेशविसंस्थुलेन मनसा प्रम्लानवक्त्राम्बुजः। शंखः सोऽपि सहासतालममरैरालोक्यमानः क्षणादुत्तालः किल वस्तुपालसचिवात्त्रासं समासेदिवान् ।। श्रीवस्तुपालसचिवादचिरात्प्रणष्टः शंखस्तथा पथिं विश्रृंखलवाहवेगः । तत्पृष्ठपातभयभंगुरचित्तवृत्तिः श्वासं यथा भृगुपुरे गत एवं भेजे।। For Private Personal Use Only Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसन्तविलास महाकाव्य का काव्य-सौन्दर्य इस वर्णन में शंख का हृदयगत 'भय' स्थायीभाव है। आलम्बन वस्तुपाल है। वस्तुपाल का पराक्रम तथा उसके द्वारा शंख की नष्ट की जाती हुई सेना उद्दीपन विभाव है। शंख का युद्ध स्थल छोड़कर भागना आदि अनुभाव हैं । चिन्ता, तर्क, संभ्रम, विषाद आदि व्याभिचारी भाव हैं । इन सबके योग से यहाँ भयानक रस की पुष्टि हुई है। अद्भुत रस का चित्रण, महाकाव्य में अपेक्षाकृत कम हुआ है। नवम सर्ग में वस्तुपाल की निद्रावस्था में एक पैर वाले, लँगड़ाते हुए धर्म के आगमन के वर्णन में कवि ने अद्भुत रस की व्यंजना की है संजातनिद्रोऽथ विनिद्रकीर्तिः स्वप्नान्तरासौ नितराममात्यः । एकाङ्घ्रिमेकं सुरमुत्तरन्तं दिवो ददर्शातिशयैः स्फुरन्तम् ।। सप्तर्षिभिस्तैरभिवन्द्यमानमन्वीयमानं च दिशामधीशैः । विरंचिपुत्रेण धृतातपत्रं ग्रहाधिपाभ्यां धुतचामरं च । । पाणौ श्रियं पङ्कजभाजि वामे वामेतरे चापि गिरं द धानम् । निजांगभासां भृशमंगभाजां नेत्रेषु पीयूषमिव क्षरन्तम् ।। अभ्यापतन्तं तमथो विलोक्य मुत्कौतुकावेशवशो वसन्तः । पीठं तु पीठं ददतार्थमिति ब्रुवन्सत्वरमभ्युदस्थात् ।। ,19 यहाँ वस्तुपाल (वसन्त) का हृदयगत "विस्मय" स्थायीभाव है। धर्म इसका आलम्बन है । धर्म की विकृत और चित्ताकर्षक स्थिति उद्दीपन विभाव है । वस्तुपाल का धर्म के स्वागतार्थ उठकर खड़े होना, धर्म के लिए आसन देना, उसका स्वागत करना आदि अनुभाव हैं। आवेग, मति, धृति, सम्भ्रान्ति आदि संचारी भाव हैं । इन सबसे परिपुष्ट विस्मय स्थायीभाव अद्भुत रस में परिणत हो गया है । 1 महाकाव्य में यत्र-तत्र हास्य रस भी दृष्टिगोचर होता है। सप्तम सर्ग में सम्भोग श्रृंगार के सहायक रूप में इस रस की अभिव्यक्ति हुई है - विकूणयन्ती वदनं पदे पदे नखव्रणर्त्या जघनस्य काचन । विवाधते ते किमिति प्रहासिनं जघान लीलाकमलेन कामिनम् । 20 उक्त वर्णन में जघन-स्थल पर नायक द्वारा किये गये नखक्षत की वेदना से नायिका बार-बार सीत्कार कर रही है । नायिका के इस कृत्य पर नायक द्वारा किये जा रहे हास - परिहास में हास्य रस की अभिव्यक्ति हो रही है । विकृत आकृति और विचित्र परिधान से उत्पन्न हास्य रस की अभिव्यक्ति ग्यारहवें सर्ग में की गयी है। पुराङ्गनायें संघाधिपति वस्तुपाल को देखने की इच्छा से इतनी आतुर हो जाती हैं कि वे वस्त्राभूषणों को नियत स्थान पर धारण करने में भूल कर बैठती हैं औत्सुक्यतो हारलतां नितम्बे निवेश्य कण्ठे रसनां च काचित् । ताडङ्कमाधाय कलाचिकायां कर्णे पुनः कङ्कणमुच्चकार ।। ४१ Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डॉ. केशव प्रसाद गुप्त काचित्तथा कन्दुकमेकबाहौ निवेश्य नीलं गजचर्मलीलम् । सन्दृश्यमाणैककुचार्द्धनारीश्वरत्वमूहऽधिगता गवाक्षम् ।। काचित्तदानीं किल भोजयन्ती शिशुं स्वामाकर्णित तूर्यनादः । हित्वा तदासन्नबिडालमेकं कृत्वा कटीरे गृहमालरोह। यहाँ पुराङ्गनाओं द्वारा आभूषणों को अव्यवस्थित रूप में धारण करने, कन्दुक को हाथ में लेने, बिडाल को पकड़ने आदि के वर्णन में हास्य रस की योजना हुई है। करुण रस का स्थायी भाव शोक है। स्वर्गारोहण से पूर्व वस्तुपाल का शोक अपने पुत्र जैत्र सिंह के प्रति प्रकट हो रहा है। उसे समझाते हुए वह कहता है-- आधारः सुतरामतः परमसि त्वं वत्स ! राज्यश्रियां. नाधारस्तु तवास्ति कोऽपि दधतो धात्री यथा पोत्रिणः । आत्मासौ भवात्मनैव तदहो तेनैव विश्वत्रयी, सङ्गीताद्भुतशक्तिवैभवभृता धीरेण धार्यान्वहम् ।।72 इसी प्रसंग में वस्तुपाल द्वारा अपनी पत्नी ललितादेवी को समझाने-बुझाने में, उसकी पत्नी के रोने आदि के वर्णन में भी करुण रस अभिव्यक्त हुआ है।23 वास्तव में यह शोक 'नैषध के हंसविषयक शोक से साम्य रखता है, जो मृत्यु को अवश्यम्भावी मानकर व्यक्त किया गया __महाकाव्य के बारहवें सर्ग में एक स्थल पर तीर्थंकर नेमिनाथ के वैराग्य का वर्णन है। इसके अनुसार राजीमती के साथ नेमिनाथ के विवाह के अवसर पर, वहाँ वरयात्रियों के भोजन के लिए लाये गये पशुओं को देखकर नेमिनाथ का मन खिन्न हो जाता है और वे इस संसार से विरक्त होकर रैवतक (गिरिनार) पर्वत पर चले जाते हैं -- राजीमतीपाणिनिपीडनोद्यमे विलोक्य भोज्यार्थमुपहृतान्पशून्। संसारनिर्विमना जिनाधिपः शिवैकसोपानमिवैनमासदत्।।25 यहाँ नेमिनाथ का हृदयगत निर्वेद स्थायीभाव है। अनित्य एवं दुःखमय संसार आलम्बन विभाव है। नेमिनाथ का खिन्न होकर पर्वत पर चले जाना अनुभाव है। भोजन के लिए लाये गये पशु उद्दीपन विभाव है। विषाद, धृति, मति आदि संचारी भाव है। इन सबसे परिपुष्ट निर्वेद स्थायीभाव शान्तरस में परिणत हो गया है। अपनी सन्तान या उसी श्रेणी के अन्य प्रिय सम्बन्धी में उत्पन्न सहज स्नेह 'वात्सल्य कहलाता है। इसमें रति भाव का प्राधान्य होता है। आचार्य मम्मट ने इस प्रकार की रति को भाव कहा है।26 वसन्तविलास महाकाव्य में वात्सल्य भाव का चित्रण कवि को माँ सरस्वती से आशीर्वाद प्राप्त करने में किया गया है।27 देवविषयक रति से उत्पन्न भक्ति भाव की व्यंजना आदिनाथ के पूजन के समय की गयी है -- For Ponte & Personal Use Only Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसन्तविलास महाकाव्य का काव्य-सौन्दर्य भाविनोऽत्र ननृतुः स्फुरत्कराः केपि केपि लुठदङ्गकान्यदुः । आदिनाथमवलोक्य केचन व्याहरंजय जिनेति भारतीम्।। संघराट् समभिसृत्य भूतलन्यस्तभालफलकः कृतानतिः । आदिनाथपदयोः प्रसारितोदारबाहुरूपगृहनं व्यधात्।P8 इस प्रकार वसन्तविलास महाकाव्य में कवि ने विविध रसों का यथास्थान समुचित सन्निवेश किया है जो प्रसंगानुरुप सर्वत्र रसास्वाद्य सिद्ध हुए हैं। 2. अलंकार-योजना वसन्तविलास महाकाव्य में कवि बालचन्द्रसूरि ने अलंकारों के प्रयोग से वर्णनीय वस्तु को और अधिक कमनीय और हृदयग्राही बनाने का सफल प्रयास किया है। फलतः महाकाव्य में विविध अलंकारों की अनुपम छटा देखने को मिलती है। ध्वनि का आश्रय लेकर जिन अलंकारों की सृष्टि की जाती है, उन्हें शब्दालंकार कहते हैं। इनके प्रयोग से काव्य में ध्वन्यात्मकता, संगीतात्मकता एवं चमत्कार का संचार होता है। इनका लक्ष्य काव्य में नाद-सौन्दर्य स्थापित करना होता है। शब्दालंकारों में कवि ने अनुप्रास व यमक का प्रयोग अधिक किया है। अनुप्रास अलंकार के कतिपय उदाहरण द्रष्टव्य हैं -- चेतोऽचलं चंचलतां विमोच्य संकोच्य पंचापि समं समीरान। पश्यन्ति यन्मूनि शाश्वतथि सारस्वतं ज्योतिरूपास्महे तत्।79 व्यंजनों के समुदाय की जहाँ एक बार आवृत्ति हो, वहाँ छेकानुप्रास होता है। यथा -- श्रीकान्तनाभिप्रभावाननेन्दोः कुन्दोज्जवला कान्तिरिवातनोतु। सरस्वती वः कविता वितान्तकुमुदतीमन्वहमद्वितीयम्। एक वर्ण या अनेक वर्षों का एक बार या अनेक बार सादृश्य होना वृत्यनुप्रास है। निम्न श्लोक में वर्गों की आवृत्ति दर्शनीय है -- श्रीवीरधवलः क्षितीन्दुरस्याभवत्सूनुरनूनतेजः। । नासीरवीरप्रकारासिनीरनिमज्जदूर्जस्वलवैरिवर्गः1 यहाँ र, स तथा न वर्णों की कई बार आवृत्ति हुई है। इसी प्रकार अनेक वर्णों की अनेक बार आवृत्ति निम्न पंक्तियों में विद्यमान है -- तदङ्गजः सङ्गरसङ्गरङ्गकृतारिभङ्गस्मचङ्गदेहः । अजायत श्रीगिरीशप्रसादप्रासादलीलो लवणप्रसादः ।।2 ‘अन्त्यानुप्रास' की योजना निम्न श्लोकों में की गयी है -- चौड़ो न चूडाभरणं बभार, न केरलः केलिमलंचकार। न पाटवं लाटपतिलिलेश, न मालवीयो निलयं विवेश।। ४३ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डॉ. केशव प्रसाद गुप्त न कौङ्कणः पक्वणमुत्ससर्ज, न जाङ्गलो माङ्गलिकैर्जगर्ज । पाण्ड्यो न पिण्डग्रहणं चकार, न कुन्तलः कुन्तलमुद्दधार । 3 जहाँ अर्थ रहते हुए भी भिन्न-भिन्न अर्थवाले वर्ण, उसी क्रम में पुनः सुनायी पड़ें, वहाँ यमक अलंकार होता है। 34 कवि ने महाकाव्य के षष्ठ और द्वादश सर्गों में इस अलंकार का प्रयोग शब्दगत चमत्कार और पाण्डित्य-प्रदर्शन हेतु किया है। उदाहरणार्थ कतिपय श्लोक प्रस्तुत हैं -- अस्मिन्धना श्यामलतासु कान्ता लतासुकान्ता सहिताः सुरेभाः । हितासु रेभासु समीरयन्तः समीरयन्तः सततं गतानि 35 + + + + अत्र संफुल्लनी पावनी पावनी वल्गुवेणी लताभासिता भासिता । वल्कीवादने वन्धुरा वन्धुरा दृश्यते चेदहो किन्नरी किन्नरी। 36 आवृत्ति क्रम की व्यवस्था के अनुसार यमक कई प्रकार का होता है। 37 द्वितीय पाद की चतुर्थ पाद में आवृत्ति से संदष्टक यमक होता है । यथा I -- विभाति कैलाश इवेश्वरेण शिवाङ्गभाजा वृषभासितेन । श्रीनेमिनाथेन कृताधिवासः शिवाङ्गभाजा वृषभासितेन । 38 प्रथम पाद की तृतीय पाद में आवृत्ति 'संदेश' यमक है निरवधिमधुना रसालसालं प्रसवभरेण सिषिविरे द्विरेफः । निरवधिमधुना रसालसाऽलं विरहिवधूः पिकपंचमास्त्रपातैः 39 प्रथम पाद की द्वितीय से और तृतीय की चतुर्थ से समानता 'युग्मक' यमक है-भावप्रपातिवरकोकनदान्वितोऽयं भावप्रपातिवरकोकनदान्वितोऽयम । देव ! क्षमाधरसमान ! महागिरीश देवक्षमाधरसमानमहागिरीशः 40 प्रथम पाद का तृतीय पाद में और द्वितीय पाद का चतुर्थ पाद में प्रयोग 'महायमक' है भ्रमरहितविकचसुमनोमुनिभिर्विनिकामयमितो नूनम् । भ्रमरहितविकचसुमनोमुनिभिर्विनिकाममयमितोऽनूनम् । 41 प्रथम पाद की चतुर्थ पाद में आवृत्ति को 'आवृत्तिं' यमक कहते हैं सुवर्णसंभारभृतो न मेरुवनितलक्रीडितपूर्वविष्णोः । रतस्य साधर्म्यमुपैति सोऽपि सुवर्णसंभारभृतो न मेरुः । A2 इसी प्रकार एक स्थल पर द्वितीय पाद की तृतीय पाद से समानता प्रस्तुत करते यमक की सृष्टि की गयी है हुए अयं निकुंजानि विभत्ति पापहन्ताप्सरोविभ्रमरोचितानि । हन्ताप्सरोविभ्रमरोचितानि श्रृंगाणि श्रृंगारयते च शैलः । 43 For rivate & Personal Use Only 'गर्भ' Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसन्तविलास महाकाव्य का काव्य-सौन्दर्य इस प्रकार वसन्तविलास महाकाव्य में यमक की अनुपम छटा दृष्टिगोचर होती है। श्लिष्ट पदों से अनेक अर्थों का अभिधान होने पर श्लेष अलंकार होता है।44 कवि ने महाकाव्य में श्लेष का प्रयोग अपेक्षाकृत कम किया है। प्रभातवर्णन के प्रसंग से उद्धृत यह उदाहरण प्रस्तुत है -- भानुर्भवानिव नवप्रसरत्यतापो, विक्रामति त्रिभुवनैकमतो वसन्त ! । चन्द्रस्तु शंख इव नश्यति शंखगौरं, हित्वा महोऽजनि महो विकसत्कलङ्कम् । यहाँ उदीयमान सूर्य की तुलना वस्तुपाल से तथा अस्तप्राय चन्द्रमा की तुलना वस्तुपाल के प्रतिद्वन्द्वी शंख से की गयी है। यहाँ प्रताप का अर्थ सूर्य के पक्ष में ज्योति है तथा वस्तुपाल के पक्ष में यश है। इसी प्रकार शंखगौर शब्द का अर्थ चन्द्रमा के पक्ष में शंख की तरह धवलता तथा शंख के पक्ष में शंख का गौरव' है जो नष्ट होकर कलंक (शंख के पक्ष में अपयश) को उत्पन्न कर रहा है। अतएव यहाँ श्लेष अलंकार है। जहाँ काव्य में अर्थ द्वारा चमत्कार उत्पन्न किया जाता है, वहाँ अर्थालंकार होता है। वसन्तविलास महाकाव्य में कवि ने उपमा, उत्प्रेक्षा, रूपक एवं अतिशयोक्ति का विशेष प्रयोग किया है। प्रथम सर्ग में कवि-प्रशंसा के समय पूर्णोपमा का सुन्दर प्रयोग हुआ है -- छायामयन्ते निरपायमेके परे परं पल्लवमल्ललन्ति। आस्वादयन्त्यन्यतरे फलानि मार्गदुमाणामिव सत्कवीनाम्।। उक्त श्लोक में सत्कवि उपमेय, मार्गद्रम उपमान, इव समतावाचक शब्द और अयन्ते, उल्लुलन्ति एवं आस्वादयन्ति क्रियायें सामान्य धर्म हैं। यहाँ उपमेय, उपमान, वाचक शब्द एवं साधारण धर्म-- इन चारों के शब्दतः उपात्त होने के कारण पूर्णोपमा है। रैवतक-वर्णन-प्रसंग के निम्नांकित श्लोक में कवि ने लुप्तोपमा द्वारा चमत्कार उत्पन्न किया है -- कण्ठेकालः साम्बुभिः शेषभागे भस्मोधूली व्यम्बुभिश्चाम्बुवाहैः । शीर्षप्रवल्लरीभिर्जटावान् साक्षादग्रे ते गिरीशो गिरीशः 147 इस प्रसंग में गिरीश ( रैवतक पर्वत ) उपमेय को गिरीश (भगवान् शिव ) उपमान के समान बतलाया गया है किन्तु, दोनों में समतावाचक शब्द लुप्त होने के कारण यहाँ वाचक लुप्तोपमा है। चन्द्रोदय प्रसंग के निम्न श्लोक में मालोपमा का प्रयोग हुआ है -- sy only Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डॉ. केशव प्रसाद गुप्त आतपत्रमिव पूर्वभूभृतः केलिदर्पण इवाम्बरः श्रियः । आलवाल इव शर्मभूरुहः शोभते स्म सकलोचितः शशी । 48 यहाँ चन्द्रमा उपमेय है जिसके लिए आतपत्र, केलिदर्पण और आलवाल जैसे कई उपमान प्रयुक्त किये गये हैं । अतः यहाँ मालोपमा है । प्रकृत (उपमेय ) के साथ उपमान के ऐक्य की सम्भावना उत्प्रेक्षा है। 49 यथा- अस्तशैलशिखरेऽपतन्नभः शाखिपक्चफलमर्कमण्डलम् । तद्रसैरिव समुत्सृतैस्ततः सान्ध्यरागविसरैर्भृशायितम्। 50 यहाँ कवि ने सायंकालीन फैलती हुई लालिमा को देखकर यह कल्पना की है कि मानो नभ - वृक्ष से सूर्य - मण्डल रूप पका हुआ फल अस्ताचल की चोटी पर गिर गया है जिसका रक्त वर्ण रस चारों ओर फैल रहा है। इस वर्णन में लालिमा रूप उपमेय की उक्त कल्पित उपमान के साथ ऐक्य की सम्भावना किये जाने के कारण उत्प्रेक्षा अलंकार है । जहाँ उपमान और उपमेय का एक दूसरे से नितान्त अभिन्न वर्णन किया जाय, वहाँ रूपक अलंकार होता है। 52 वस्तुपाल द्वारा शंख के दूत को कहे गये व्यंगपूर्ण वचन में रूपक की योजना की गयी है -- दूत रे ! वणिगहं रणहट्टे विश्रुतोऽसितुलया कलयामि । मौलिभाण्डपटलानि रिपूणां स्वर्गवेतनमथो वितरामि। 53 उक्त कथन में उपमेय रण का उपमान हाट से, उपमेय असि का उपमान तुला से, उपमेय स्वर्ग का उपमान वेतन से नितान्त अभिन्न वर्णन कर कवि ने रूपक के माध्यम से अर्थ- सौन्दर्य उत्पन्न किया है। आचार्य दण्डी ने प्रस्तुत के लोकातिशायी ढंग से वर्णन करने को अतिशयोक्ति कहा है और उसे उत्तम अलंकार माना है। 54 वस्तुपाल के चरित्र के सम्बन्ध में कवि का निम्न कथन अतिश्योक्तिपूर्ण है - -- कौतुकेन कलिकालजित्वरं वस्तुपालचरितं विलोक्य । भानुमथ जगाम जल्पितुं तूर्णमेव प्रचेतसः । 55 उक्त श्लोक में वस्तुपाल के कलिकालजित्वर चरित्र को देखकर सूर्य का ब्रह्मा के पास जाने का वर्णन लोकातिशायी है । इसीप्रकार वस्तुपाल की संघयात्रा में सम्मिलित होने वाले यात्रियों की संख्या के वर्णन में भी अतिशयोक्ति है - परःसहस्रा यतयः परः शताः गणेशितारः किमु वा ब्रवीमहे । वसन्तसङ्घे जिनदर्शनात्मनां को वेद संख्यामपि कोविदाग्रणीः । 56 For Private & Ponal Use Only Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसन्तविलास महाकाव्य का काव्य-सौन्दर्य वसन्तविलास महाकाव्य में प्रयुक्त अन्य अर्थालंकारों का विवेचन अधोलिखित रूप में प्रस्तुत है -- सन्देह -- अयं किमिन्द्रः किमु वा दिवाकरो निशाकरो वा कुसुमाकरोऽपि वा। वसन्तपालं कृतविस्मया इति व्यलोकयन्वमनि वन्यदेवता।7 उक्त वर्णन में वस्तुपाल के प्रति वनदेवताओं का सन्देह व्यक्त है। यहाँ आदि से अन्त तक उपमेय रूप वसन्तपाल पर उपमान रूप इन्द्र,सूर्य, चन्द्रमा एवं कामदेव का संशय किया गया है, अतः सन्देहालंकार है। अपहनुति -- कालपाशपतितेऽथ भास्वति पूर्वदिक्कुलवधूर्विलापिनी। यच्छति स्म निजकौमुदीमिषादन्धकारतिलमिश्रितं पयः ।।78 उक्त वर्णन में सूर्य रूपी नायक के अस्त ( नष्ट) हो जाने पर विलाप करती हुई पूर्वादिक्कुलवधू (चन्द्रमा) अपनी कौमुदी के बहाने मानो उसे तिलांजलि प्रदान कर रही है। यहाँ प्रकृत कौमुदी का प्रतिषेध मिषाद् शब्द से करके 'तिलमिश्रितं पयः' रूप अन्य उपमान की स्थापना करने से अपह्नुति अलंकार है। दृष्टान्त -- पापकालाकलिकालसमताऽप्यति नैव विकृति जनः ।। उत्कठोररवकाकपोषितः क्वापि कूजति कटूनि कोकिलः । इस श्लोक में पूर्वार्द्ध में उपमेय वाक्य है और उत्तरार्द्ध में उपमान वाक्य। दोनों वाक्यों में उपमेय, उपमान और साधारण धर्म का परस्पर बिम्ब-प्रतिबिम्ब भाव होने के कारण यहाँ दृष्टान्त अलंकार है। व्यतिरेक -- रामादपि न्यायपराऽस्य वृत्तिमंगाधिपादप्यतिचण्डमोजः । रतिप्रभोरप्यतिचारुरूपं वचः सुधातोऽप्यभवत्प्रधानम्। इस प्रसंग में कुमारपाल को राम से भी अधिक न्यायी, सिंह से भी अधिक ओजस्वी, कामदेव से भी अधिक सौन्दर्य सम्पन्न और अमृत से भी अधिक मधुर वचन वाला कहा गया है। यहाँ उपमान की अपेक्षा उपमेय के उत्कर्ष का वर्णन होने के कारण व्यतिरेक अलंकार है। विशेषोक्ति -- न यौवनेऽपि स्मरघस्मरत्वं न वैभवोऽपि क्वचनविवेकः । For Private & Persongly se Only Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डॉ. केशव प्रसाद गुप्त न दुनिऽप्याजवविप्लवो यत्तन्निर्मिती का विधिना नवेन।1 यहाँ वस्तुपाल और तेजपाल भातृयुगल में युवावस्था, वैभव, वीरतादि कारणों के होते हुए भी कामुकता, अविवेकादि कार्यों का अभाव वर्णित है, अतः विशेषोक्ति अलंकार है। अर्थान्तरन्यास -- उत्तार्यमाणे भारातिरेके चक्रन्दुरुच्चैः करभास्तदानीम् । विधीयमानेऽपि हिते नितान्तं कान्तो वचो ब्रुवते न मूढाः ।2 इस श्लोक में भार उतार लिये जाने पर भी करभों (ऊटों) का उच्च स्वर से चिल्लाना रूप विशेष कथन का समर्थन हित के कार्य करने पर भी मूों का प्रिय वचन न बोलना रूप सामान्य कथन से किया गया है। अतः अर्थान्तरन्यास अलंकार है। स्वभावोक्ति -- निपाय्य तोयानि महीरुहाणां छायासु बद्धाः परितो महोक्षाः। पूत्कारिघोणाः परिवृत्य घासमुद्गालयन्ति स्म सुखं निषण्णाः । यहाँ जल पीकर वृक्षों की छाया में सुख पूर्वक बैठे हुए बैलों के जुगाली करने का स्वाभाविक वर्णन होने के कारण स्वाभाविक वर्णन होने के कारण स्वभावोक्ति अलंकार है। काव्यलिंग -- सर्वस्वदानैरपि भूमिपालाः कथं कवीनामनृणा भवन्तु। यतो युगान्तेऽप्यविनाशिकीर्तिशरीरमेते वितरन्त्यमीषाम् ।।4 उक्त श्लोक में अविनाशी कीर्ति शरीर के प्रति, कवियों को हेतु के रूप में चित्रित किया गया है। अतः यहाँ वाक्यार्थगत काव्यलिंग अलंकार विद्यमान है। उदात्त-- यत्कोत्तिगौर्येण मिथोप्यलक्ष्यौ गौरीगिरीशौ दिविगौरकान्ती। करप्रपंचौर्मिलितो वियोगभीत्यार्द्धनारीश्वरतामुपेती।55 इस वर्णन में राजा-वीरधवल उपमेय तथा भगवान शिव उपमान हैं। वीर धवल की बढ़ती हुई कीत्ति से शिव के अर्द्धनारीश्वर रूप धारण कर लेने में शिव का गौण रूप से वर्णन किया गया है, अतः यहाँ उदात्त अलंकार है। भ्रान्तिमान् -- सुजातवक्षोजफलां प्रसूनरुग्दृशं प्रवालारुणपाणिमग्रतः । कपिः स्पृशन्मानवतीं लताभ्रमादसूत्रयत्कामितमेतदीशितुः । इस श्लोक में अप्रस्तुत पदार्थ लता के सदृश्य प्रस्तुत पदार्थ नायिका को देखकर कपि को उसमें अप्रस्तुत पदार्थ रूप लता की भ्रान्ति होने से भ्रान्तिमान् अलंकार है। For Private & Sersonal Use Only Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसन्तविलास महाकाव्य का काव्य-सौन्दर्य एकावली -- किं तेन येनैव कुधीरधीतेऽधीतेन किं तेन यतो न काव्यम्। काव्यं किं तेन न यत्परेषां रेखां विधत्ते दषदीव चित्ते।7 यहाँ अध्ययन में कुबुद्धि की, काव्य में अध्ययन की तथा चित्त में काव्य की उत्तरोत्तर निषिद्ध योजना की गयी है। पूर्व-पूर्व वर्णित वस्तु के प्रति उत्तरोत्तर वर्णित वस्तु का निषेध होने से यहाँ एकावली अलंकार है। व्याजोक्ति -- अमीनिकुंजभ्रमरा दशन्ति मा त्वरध्वामित्वं कृतकं विराविणी। करौ धुनाना मणिकङ्कणक्वणादुपांशु काचित्प्रियमावयज्जनात्।8 उक्त वर्णन में भ्रमर- दंश के व्याज से हाथों को ऊपर उठाकर मणिकक्ण की ध्वनि से नायिका द्वारा अपने प्रियतम को आहवान करने का उल्लेख है। यहाँ भ्रम-दंश के व्याज से प्रियतम को बुलाने की क्रिया को छिपाये जाने के कारण व्याजोक्ति अलंकार है। यथासंख्य -- वैद्यभेषजभरान्नवाहनाम्भोभिराभिजनकृत्यविज्जनम्। ' बाधितंधितमाहितश्रमां तर्षितं सुखिनीचकार सः उक्त प्रसंग में उत्तर पद में कहे गये बाधितं, क्षुधितं, आहितश्रमं तथा तर्षितं का पूर्व पद में कहे गये वैद्यभेषज, भरान्न, वाहन, अम्भ (जल) के साथ क्रमशः अन्वय होता है। इनका क्रमपूर्वक यथोचित सम्बन्ध होने के कारण यहाँ यथासंख्य अलंकार है। अलंकार-सङ्कर -- गम्भीरगम्भीरनिधिः प्रमोदशालीव गन्विहसंश्च फेनैः। कल्लोलहस्तैविलोलचित्तं मन्त्रीश्वरं मित्रमिवालिलिङ्ग।। यहाँ समुद्र द्वारा वस्तुपाल का मित्र के समान आलिङ्गन करने का वर्णन है। इस श्लोक में 'गम्भीरगम्भीर में यमक 'प्रमोदशालीव में उत्प्रेक्षा, कल्लोलहस्तैः' के कारण यहाँ अलंकार-संकर है। ___ इनके अतिरिक्त वसन्तविलास महाकाव्य में विरोधाभास, विनोक्ति2, अनुमान73, प्रतीप74, परिकर', अलंकार-संसृष्टिा प्रभृति अर्थालंकारों की भी योजना की गयी है। इस प्रकार महाकाव्य में शब्दालंकार और अर्थालंकार के विभिन्न प्रकारों के दर्शन होते हैं, जो शब्दगत व अर्थगत चमत्कारों को उत्पन्न करते हुए काव्य में सर्वत्र रस-पुष्टि हेतु सहायक ४८ Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डॉ. केशव प्रसाद गुप्त सिद्ध हुए हैं। 3. गुण-निरूपण काव्य में गुणों की स्थिति आवश्यक ही नहीं अपितु, अपरिहार्य है। इसीलिए आचार्य मम्मट ने काव्य को सगुण होना आवश्यक माना है। आचार्य वामन का मत है कि यदि कोई काव्यांगना के यौवनहीन शरीर के समान गुणों से रहित है, तो उसे कितने ही लोकप्रिय अलंकारों से भले ही सजाया जाय, उसमें शोभा नहीं हो सकती है।78 गुणों के भेद के सम्बन्ध में आचार्यों में मतैक्य नहीं है, फिर भी आचार्य मम्मट ने माधुर्य, ओज और प्रसाद इन्हीं तीन गुणों की सत्ता स्वीकार की है।79 वसन्तविलास एक रस प्रधान महाकाव्य है। गुण रस के धर्म है । अतएव, जहाँ रस है, वहाँ गुणों की उपस्थिति अनिवार्य है। महाकाव्य में माधुर्य, ओज और प्रसाद गुणत्रय का यथास्थान प्रयोग हुआ है। कवि बालचन्द्रसूरि का गुणों के प्रति सहज दृष्टिकोण प्रकारान्तर से निम्नांकित श्लोक में व्यक्त हुआ है-- प्रसत्तिमाधुर्यवती सदोजाः सुजातसौन्दयनिधानभूता। मनोहरालंकृतिवर्जितापि शय्यां गता वाग्लटभाङ्गनेव ।। श्रृंगाररस की अभिव्यक्ति का माध्यम माधुर्यगुण को माना जाता है। आचार्य भरत ने श्रुति-मधुरता को माधुर्य कहा है।82 दण्डी ने रसमयता को ही माधुर्य माना है।83 मम्मट ने माधुर्य गुण का लक्षण इस प्रकार बतलाया है -- आहलादकत्वं माधुर्य श्रृंगारे द्रुतिकारणम्। करुणे विप्रलम्भेतच्छान्ते चातिशयान्वितम् ।। वसन्तविलास महाकाव्य में श्रृंगार रस के वर्णन- प्रसंगों में कवि ने माधुर्य गुण की सफल योजना की है। सम्भोग श्रृंगार का यह वर्णन उदाहरण स्वरूप प्रस्तुत है -- विमुक्तसीमाश्रयमाशयं वहस्तदङ्गरागाहितरागविभ्रमः । नितम्बिनीनां नक्सङ्गमे नदस्तदा चकम्पेचलमीनलोधनः ।।5 यहाँ अल्पसमास युक्त कोमलकान्त पदावली का प्रयोग होने से माधुर्य गुण का सहज सौन्दर्य दृष्टिगत होता है जो अभीष्ट रस की अभिव्यंजना में सहायक सिद्ध हो रहा है। विप्रलम्भ-श्रृंगार के प्रसंग में विरह सन्तप्तासद्गति का समाचार सुनकर वस्तुपाल कहता धर्मो दास्यति याधितां निजसुतां त्वामेष मयं प्रिये, ___यांधामुग्धमना जनः पुनरयं तस्मिन्नपि स्वामिनि । त्वं प्राणानमरीति मामपि विना हत्तु क्षमा त्वामृते, मन्येऽहं तु हन्त चक्रमिथुनादप्यवयोधिपदशाम् । For Private goersonal Use of Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यहाँ समास रहित और स्वल्प समास युक्त पदावली के प्रयोग से विप्रलम्भ श्रृंगार को मुखरित करने में माधुर्य गुण की योजना की गयी है । वसन्तविलास महाकाव्य का काव्य-सौन्दर्य शान्त रस से गर्भित भक्ति भाव में कवि ने आदि नाथ की स्तुतिपरक निम्न श्लोक में माधुर्यगुण की योजना की है -- चेतोऽचलं चंचलतां विमोच्य सङ्कोच्य पंचापि समं समीरान् । पश्यन्ति यन्मूर्द्धनि शाश्वतथ्रि सारस्वतं ज्योतिरूपास्महे तत् । 87 88 ओज गुण चित्त के विस्तार रूप दीप्ति का जनक है । वामन ने 'गाढवंधत्वमोजः' कहा मम्मट के अनुसार ओज गुण का लक्षण इस प्रकार है- दीप्त्यात्मविस्तृतेर्हे तुरोजो वीररस संस्थितिः । वीभत्सरौद्ररसयोस्तस्याधिक्यं क्रमेण च। 189 वसन्तविलास महाकाव्य में ओज गुण के अनेक उदाहरण दृष्टिगत होते हैं। वीररस के वर्णन में कवि की भाषा स्वाभाविक रूप से ओज गुण मण्डित हो गयी है । उदाहरणार्थ युद्ध-प्रसंग का उद्धरण प्रस्तुत है. आहत्स्फुरफटत्कृतिखड्गाखड्गिझङ्कृतिधनुर्ध्वनिभिश्च । भट्टलोलतुमुलैः शरमालासूत्कृतै भुवनमेतदपूरि। 20 वीभत्स रस के वर्णन में, वीरों के कटे-फटे रुण्डादि से श्येनादि द्वारा मांस के टुकड़ों को झपटने आदि क्रियाओं से व्यंजित, जुगुप्सा भाव ओजपूर्ण शब्दावली में व्यक्त हुआ है वस्तुपालसुभटेषुभिरुच्चैरातपत्रनिवहेषु समन्तात् । पातितेषु रिपुराजकबन्धैः श्येनमण्डलमवाप तदाभागू 21 इसीप्रकार रौद्र रस के वर्ण प्रसंग में भी ओज गुण अभिव्यक्त हुआ है। यथां- निर्विलम्ब भुवनभ्रमेण श्रान्तिविभ्रममिवाप्य यदाज्ञा । विश्रमश्रियमशिश्रियदुच्चैरष्टदिक्पतिकिरीटतरीषु । 92 उपर्युक्त श्लोकों में श्रुतिकटु, टवर्गादि से परिपूर्ण, द्वित्व वर्णों, रेफ तथा दीर्घ समासों की प्रचुरता के कारण ओज गुण विद्यमान है। —— काव्य में माधुर्य तथा ओज गुण कुछ निश्चित रसों वाले स्थलों पर ही दृष्टिगोचर होते हैं, प्रसाद गुण सभी रसों में समान रूप से उपस्थित रहता है। आचार्य मम्मट के अनुसार शुष्केन्धनाग्निवत् स्वच्छजलवत्सहसैव यः । व्याप्नोत्यन्यत् प्रसादोऽसौ सर्वत्रविहितस्थितिः । 23 वसन्तविलास महाकाव्य में कई स्थलों पर प्रसाद गुण का सुन्दर तथा स्वाभाविक प्रयोग मिलता है । उदाहरणार्थ कतिपय श्लोक प्रस्तुत हैं - ५१ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डॉ. केशव प्रसाद गुप्त श्रीखण्डशाखी तरुषु ग्रहेषु पूषा प्रसूनेषु सहस्रपत्रम्। पेयेषु पाथः पुरुषेषु साधुः प्रजापतेः सच्चरितानिपंच ।। जागरूक महसो मनोभुवः शासनादिव तदामृगीदृशाः। वल्लभागमनोत्सुकाशया मण्डनानि वपुषो वितेनिरे।। संगीतनादः श्रुतिशूक्तिपेयः श्रेयस्करोऽजायत यत्र पूर्वम् । तत्राधुना दुःसमयानुभावाच्चैत्येषु कष्टं करटाश्चटन्ति।। उक्त श्लोकों में समास रहित व अल्पसमास युक्त प्रसाद गुण से परिपूर्ण सरल भाषा का प्रयोग होने के कारण श्रुति मात्र से अर्थ की प्रतीति होने लगती है। 4. रीति-विवेचन काव्य के आत्मभूत तत्त्व रस को उत्कृष्ट बनाने वाले तत्त्वों में रीति का भी महत्त्वपूर्ण स्थान है। 7 रीति सम्प्रदाय के प्रधान प्रतिपादक आचार्य वामन हैं। उन्होंने रीति को काव्य की आत्मा माना है।98 रीति के स्वरूप के सम्बन्ध में उनका कथन है कि पदों की विशिष्ट रचना ही रीति है।99 रीति को ही दण्डी, कुन्तक, भोजादि आचार्यों ने मार्ग या ‘पन्थ के नाम से अभिहित किया है।100 आनन्दवर्धन ने इसके लिए संघटना शब्द का प्रयोग किया है।101 यद्यपि आचार्यों ने कई रीतियों का उल्लेख किया102 फिर भी काव्यजगत में वामनोक्त तीन रीतियों -- वैदर्भी, गौडीया और पांचाली103 को ही समुचित प्रतिष्ठा प्राप्त हो सकी है। कवि बालचन्द्रसूरि कवित्व रीति के प्रति अत्यन्त जागरूक हैं। वे इसे तलवार की धार पर चलने के समान दुष्कर मानते हैं -- कृपाणधाराव्रतवत्कवीनां सुदुष्करा कापि कवित्वरीतिः ।104 निस्सन्देह कवि को इस दुष्कर कार्य में महत्त्वपूर्ण सफलता मिली है। कवि ने वसन्तविलास महाकाव्य में मुख्य रूप से वैदर्भी रीति को अपनाया है। वैदर्भी रीति का स्वरूप निर्धारण करते हुए आचार्य विश्व नाथ ने कहा है कि जिस रीति में माधुर्य गुण, सुकुमार वर्ण एवं असमास या अल्पसमास से युक्त ललित रचना का विन्यास किया जाता है, उसे वैदर्भी रीति कहते हैं।105 वामन ने वैदर्भी रीति में केवल माधुर्य गुण का ही नहीं, अपितु समस्त गुणों का समावेश होना आवश्यक माना है।1०० वसन्तविलास महाकाव्य के रचयिता वैदर्भी रीति के प्रेमी हैं। इसीलिए 'अपराजित कवि ने उन्हें 'विदर्भरीतिबलवान जैसे विशेषण से विभूषित किया है।107 वसन्तविलास महाकाव्य में प्रयुक्त वैदर्भीरीति के कुछ उद्धरण प्रस्तुत हैं -- त एव भूपाः प्रययुः प्रसिद्धिं ये वाचिविस्तारमगुः कवीनाम्। अनेकशी गायकगीतिगृह्या मह्यां श्रियः केलिमया बभूवुः ।।108 उद्यानपाला इव कीर्तिवल्लीवनं कवित्वामृतसारिणीभिः । ५२ Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसन्तविलास महाकाव्य का काव्य-सौन्दर्य सिंचन्ति येषां कवयः कथं ते भवन्त्यपूज्या भुवने नृदेवः ।।109 यहाँ राजाओं तथा कवियों के सम्बन्ध को दशार्या गया है। कवि की भाषा वर्णन के अनुरूप, सरल, समासरहित तथा किंचिद् समास वाले पदों से युक्त है। यहाँ प्रसाद और माधुर्य गुणों का योग वर्णनीय वस्तु को ग्राह्य बना रहा है। इसी प्रकार पुष्पावचय हेतु उद्यान में जाने के वर्णन में कवि ने वैदर्भीरीति का सुन्दर विन्यास प्रस्तुत किया है -- नददिभूषाजयडिण्डिमैः स्मरं प्रबोधयन्त्यो युवचित्तशायिनम् । समीरवीचीचलचीर पल्लवास्तदाऽचलन वमीन चारुलोचनाः।। तदाऽघलददुर्गभुवां नतभ्रुवां नितम्बपद्यामधिरुह्य मन्मथः । मनःस्थितः कुण्डलमारवर्ल्सना विव्याध धुन्चकबरीमयं धनुः ।।110 प्रकृति के सुकुमार व चित्ताकर्षक स्वरूप वर्णन में भी वैदर्भी रीति का दर्शन होता है -- फलानि कश्चित् कुसुमानि कश्चिद्रुमावलीनां किसलानि का अपि। विचित्य तज्ज्ञानातिकौतुकेन तन्नामपृच्छन्यथि सयबालिकाः ।। स्वाधीनभक्तिः फलपुष्पपल्लवधिरास्ति यूयं विजहीत नः कथम् । इतीव कूजत् पिकनादिनी नगदुमावली सङ्घजनानभाषत्।।11 इस प्रकार वर्णन एवं प्रसंग के अनुरुप महाकाव्य में वैदर्भी रीति को अपनाया गया है, जो सर्वत्र भावानुरूप पदविन्यास में सफल सिद्ध हुई है। महाकाव्य में प्रसङ्गात् कहीं-कहीं गौडीया112 व पांचाली 13 रीतियां भी प्रयुक्त है। 5. छन्दोविधान काव्य में सौन्दर्याधान के लिए छन्दों का भी महत्त्वपूर्ण स्थान है। आचार्य क्षेमेन्द्र के अनुसार काव्य में रस तथा वर्णनीय वस्तु के अनुरूप यथासम्भव सभी छन्दों का विन्यास होना चाहिए।114 वसन्तविलास महाकाव्य में परम्परागत नियमों के अनुसार छन्दों का प्रयोग हुआ है। प्रथम, तृतीय और एकादश सर्गों का मुख्य छन्द उपजाति है। अष्टम और दशम सर्गों में रथोद्धता छन्द प्रयुक्त है। इसके अतिरिक्त द्वितीय सर्ग में प्रमिताक्षरा, चतुर्थ में अनुष्टुप्, षष्ठ में द्रुतविलम्बित, सप्तम में वंशस्थ, त्रयोदश में इन्द्रवंशा और चतुर्दश सर्ग में शार्दूलविक्रीडित छन्द का मुख्य रूप से प्रयोग किया गया है। महाकाव्य में सर्गान्त में छन्द-परिवर्तन की योजना सुन्दर ढंग से की गयी है। प्रथम और द्वितीय सर्गों के अन्त में शार्दूलविक्रीडित, तृतीय सर्ग के अन्त में रथोद्धता, वसन्ततिलका और मालिनी, चतुर्थ सर्ग के अन्त में पुष्पिताग्रा और शार्दूलविक्रीडित, छठे सर्ग के अन्त में वसन्ततिलका, सातवें के अन्त में वसन्ततिलका और मालिनी, आठवें, दसवें, ग्यारहवें और तेरहवें सर्गों के अन्त में शार्दूलविक्रीडित तथा चौदहवें सर्ग के अन्त में स्रग्धरा छन्द का विनियोग किया गया है। ५३ Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डॉ. केशव प्रसाद गुप्त महाकाव्य के पांचवें, नवें और बारहवें सर्गों में विविध छन्दों की योजना हई है। पांचवें सर्ग में अधिकतर स्वागता छन्द प्रयुक्त है। इसके अन्तिम भाग में मालिनी, शार्दूलविक्रीडित, वसन्ततिलका, शालिनी, प्रहर्षिणी, पुष्पिताग्रा तथा एक वर्णार्द्धसमवृत्त का प्रयोग किया गया है। नवें सर्ग में उपजाति, पृथ्वी, मन्दाक्रान्ता, हरिणी, वसन्ततिलका, पुष्पिताग्रा और स्रग्धरा छन्दों की योजना की है। बारहवें सर्ग का आरम्भ पुष्पिताग्रा छन्द से हुआ है। इसमें उपजाति, द्रुतविलम्बित, वंशस्थ, प्रमिताक्षरा, तोटक, स्रग्विणी, वसन्ततिलका, इन्द्रवंशा, इन्द्रवजा, उपेन्द्रवजा, माधव, शालिनी, मालिनी, रथोद्धता, प्रहर्षिणी, जलधरमाला, शार्दूलविक्रीडित तथा तीन प्रकार के वार्द्धसमवृत्त प्रयुक्त किये गये हैं। ___ चौदह सर्गों वाले वसन्तविलास महाकाव्य में उपर्युक्त छन्दों द्वारा 1007 श्लोकों की रचना की गयी है, जिसमें उपजाति-287, रथोद्धता-161, स्वागता-95, इन्द्रवंशा-74, द्रुतविलम्बित-74, शा. वि. 69, वंशस्थ-69, अनुष्टुप्-52, प्रमिताक्षरा-50, पुष्यिताग्रा-22, पृथ्वी-15, वसन्ततिलका-13, मालिनी-5, वर्णासमवृत्त-4, स्रग्धरा-3, इन्द्रवज्रा, प्रहर्षिणी तथा शालिनी-दो-दो एवं उपेन्द्रवज्जा, मन्दाक्रान्ता, विजया, तोटक, हरिणी, स्रग्विणी, माधव तथा जलधरमाला केवल एक-एक प्रयुक्त हुए हैं। इस प्रकार महाकाव्य में 25 प्रकार के वर्णिक छन्द तथा चार प्रकार के वार्द्धसमवृत्त कुल 29 प्रकार के छन्दों का विधान किया गया है। महाकाव्य में छन्दोविधान वर्णन प्रसंग व भावों के अनुकूल हुआ है। वन्दना, प्रशंसा, काव्यमहत्ता, परिचय, शौर्य, प्रताप, धार्मिक स्थिति, यात्रा, प्रयाण, उत्कण्ठा आदि में उपजाति छन्द का प्रयोग हुआ है। नगर वर्णन में प्रमिताक्षरा, गुणवर्णन एवं कथा संक्षिप्तीकरण में अनुष्टुप, ओजस्वी संवाद, युद्ध की तैयारी आदि में द्रुतविलम्बित, पुष्पावचय, केलिवर्णन, पूजनादि में रथोद्धता, स्वर्गारोहण धार्मिक कृत्यों की प्रशंसादि में विविध छन्दों की योजना की गयी है। इस प्रकार छन्दोविधान में भी कवि को महत्त्वपूर्ण सफलता प्राप्त हुई है। महाकाव्य के विविध साहित्यिक पहलुओं के सम्यक् अनुशीलन के उपरान्त हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि वसन्तविलास महाकाव्य, काव्य-सौन्दर्य की दृष्टि से जैन-संस्कृत-वाङ्मय का एक शीर्षस्थ एवं अपने ढंग का अनोखा महाकाव्य है। वस्तुतः वसन्तक्लिास महाकाव्य के सम्बन्ध में कवि बालचन्द्रसूरि का निम्न कथन अक्षरशः चरितार्थ होता है -- "काव्यं सुधास्वादुरसं वसन्तविलासमित्येतदुदाहरामि।"115 - आदर्श ग्राम सभा इं.का. घरवा, इलाहाबाद, 2122031 rnational ५४ For Private . Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1. 2. 3. 4. 5. 6. 7. 8. 9. 10. 11. 12. सन्दर्भ सम्पादक, सी. डी. दलाल, प्रका. गा. ओ. सि. बड़ौदा, वर्ष 1917. शब्दार्थौ सहितौ काव्यम् । भामह, काव्यालंकार । कुन्तक, वक्रोक्तिजीवित, 1/17 श्रृंगार - वीर - शान्तानामेकोऽङ्गीरस इष्यते । सा. द. 6 / 317. स च वीरो दानवीरो धर्मवीरो युद्धवीरोदयावीरश्चेति चतुर्विधः । सा.द. वसन्तविलास, 11/70-71 वही, 11/63-65 वही, 5/75-77 वही, 10/37-38 वही, 7/13-14 वही, 8/57-59 अपरस्तु अभिलाष - विरहेर्ष्या- प्रवास - शाप हेतुक इति पंचविधः । का. प्र., चतुर्थ उल्लास । 13. वसन्तविलास, 14/17 14. वही, 14/30 15. वही, 5/32 16. वही, 5/43-44 17. वही, 5/54-55 18. वही, 5/90-91 19. वही, 5/108-9 20. वही, 9/1-4 21. वही, 7/8 22. वही, 11/46-48 23. वही, 14/40 24. वही, 14/ 44-46 25. नैषधचरित, 1 / 130-42 26. वसन्तविलास, 12/43 27. का. प्र., 4/35 28. वसन्तविलास, 1 /71-72 29. वही, 10/62-63 30. वही, 1/2 31. वही 1/1 For Private Personal Use Only Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डॉ. केशव प्रसाद गुप्त 32. वही, 3/46 33. वही, 3/41 34. वही, 3/42 व 44 35. का.प्र., 9/117 36. वसन्तविलास, 12/25 37. वही, 12/24 38. पादतद्भागवृत्ति तद्यात्यनेकताम् । का.प्र. 9/118 39. वसन्तविलास, 12/15 40. वही, 6/71 41. वही, 12146 42. वही, 12/28 43. वही, 12/23 44. वही, 12/21 45. का.प्र., 9/119 46. वसन्तविलास, 9/55 47. वही, 1/11 48. वसन्तविलास, 12/34 49. वही, 8/26 50. का.प्र. 10/137 51. वसन्तविलास, 8/4 52. का.प्र., 10/139 53. वसन्तविलास, 5/44 54. काव्यादर्श, 2/214 55. वसन्तविलास, 10/53 56. वही, 13/33 57. वही, 13/38 58. वही, 8/18 59. वही, 10/8 60. वही, 3/25 61. वही, 3/71 62. वही, 11/82 63. वही, 11/84 64. वही, 1/6 65. वही, 3/47 66. वही, 7/23 For Private Personal Use Only Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसन्तविलास महाकाव्य का काव्य-सौन्दर्य 67. वही, 1/35 68. वही, 7/28 69. वही, 10/37 70. वही, 11/41 71. वही, 4/22 72. वही, 1/20 73. वही, 3/47 74. वही, 4/9 75. वही, 14/24 76. वही, 14/10 77. तददोषौशब्दार्थीसगुणौ... । का.प्र., 1/4 78. यदि भवति वचश्च्युतं गुणेभ्यः वपुरिव यौवनवन्ध्यमङ्गनायाः। अपि जनयितानि दुर्भगत्वं नियतमलंकरणानि संश्रयन्ते।। काव्यालंकार सूत्र 3/1/2 वृत्ति । 79. माधुर्योजः प्रसादाख्यात्रयस्ते न पुनर्दश । का.प्र. 8/68 80. का.प्र., 8/87 81. वसन्तविलास, 1/31 82. ना.शा. 17/101 83. काव्यादर्श, 1/51 84. का.प्र., 8/68-69 85. वसन्तविलास, 7/58 86. वही, 14/32 87. वही, 1/2 88. काव्यालंकारसूत्र, 3 - 15 89. का.प्र., 8/69-70 90. वसन्तविलास, 5/77 91. वही, 5/89 92. वही, 5/45 93. का.प्र., 8/70 94. क्सन्तविलास, 1/18 95. वही, 8/36 96. वही, 9/31 97. उत्कर्षहेतवः प्रोक्ताः गुणालंकाररीतयः । सा.द., 1/31 98. रीतिरात्मा काव्यस्य । काव्यालंकारसूत्र, 1/2/6 99. विशिष्टापदरचनारीतिः । वही, 1/217 Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डॉ. केशव प्रसाद गुप्त 100. काव्यादर्श 1/101, वक्रोक्तिजीवित, पृ. 46-47, सरस्वतीकण्ठाभरण 2/26 101. ध्वन्यालोक, 3/5 102. वैदर्भी, गौडी, पांचाली। इनके अतिरिक्त रुद्रट ने लाटीया (काव्यालंकार, 2/4-5) । तथा भोजराज ने अवन्तिका और मागधी (स. कण्ठाभरण, 2/32-33) रीतियों को भी स्वीकार किया है। 103. सा त्रिधा वैदर्भी, गौडीया पांचाली च। काव्यालंकार सूत्र, 1/2/9 104. वसन्तविलास, 1/39 105. सा.द.,9/2 106. समग्रैः ओजप्रसादप्रमुखैर्गुणैरुपेता वैदर्भी नाम रीतिः । काव्यालंकारसूत्र, 1/2/1 107. सोऽन्यः कोऽपि विदर्भरीतिबलवान् बालेन्दुसूरीपुरो। वसन्तविलास, भूमिका, पृ. 1 108. वही, 1/9 109. वही, 1/10 110. वही, 7/2 एवं 5 111. वही, 13/30-31 112. वही, 5/78-80, 12/6 113. वही, 5/14, 13/39, 6/49 114. काव्ये रसानुसारेण वर्णनानुगुणेन च। कुर्वीत सर्ववृत्तानां विनियोग विभागवित् ।। सुवृत्ततिलक, 3/7 115. वसन्तविलास, 1/74| ८८ For Pringle Personal use only Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "अपभ्रंश भारती", शोधपत्रिका अर्द्धवार्षिक, प्रकाशक - अपभ्रंश साहित्य अकादमी, जैन विद्या संस्थान, श्री महावीर जी, (राजस्थान ), पृ. 145, मूल्य वार्षिक - 40/- सामान्य, 75/पुस्तकालय। अपभ्रंश साहित्य अकादमी द्वारा प्रकाशित प्रस्तुत शोध पत्रिका अपभ्रंश भारती के इस अंक में अपभ्रंश भाषा व साहित्य से सम्बन्धित कई विद्वानों के महत्त्वपूर्ण लेख दिये गये हैं। हिन्दी की जननी के रूप में अपभ्रंश का महत्त्व सर्वविदित है। प्राचीन अपभ्रंश साहित्य अत्यन्त समृद्ध एवं विशाल है जिसको इस पत्रिका के माध्यम से लोगों के सामने ले आने का प्रयास किया गया है। __ इस पत्रिका में कई महत्त्वपूर्ण लेख दिये गये हैं यथा - डॉ. शम्भूनाथ पाण्डेय का अपभ्रंश की विशिष्ट विद्या दोहा में लोकसंक्ति, डॉ. इन्द्रबहादुर का अपभ्रंश साहित्य में प्रकृति वर्णन इसमें लेखक ने प्रकृति-दृश्यों, ऋतुओं और प्राकृतिक जीवन का मनोहारी वर्णन किया है। डॉ. महेन्द्रसागर प्रचण्डिया जी के लेख में अपभ्रंश के कालरूपों तथा उनका हिन्दी पर क्या प्रभाव पड़ा इसका वर्णन किया गया है। डॉ. सियाराम तिवारी का लेख अपभ्रंश के प्राक्मध्यकालीन खण्डकाव्य शोध की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं। इसके अतिरिक्त कई अन्य लेख, कुछ काव्य उद्धरणों का अनुवाद सभी पत्रिका के महत्त्व को बढ़ाते हैं। अन्य प्रमुख लेख इस प्रकार हैं -- पउमचरिडे - स्वयंभू का बिंबविधान -- डॉ. श्री रंजनदेव सूरि, डॉ. वासुदेव सिंह का योगीन्दुमुनि, डॉ. त्रिलोकीनाथ प्रेमी का सन्देश रासक काव्य विधा और विश्लेषण तथा डॉ. कमलचन्द सोगाणी का प्रौढ़ अपभ्रंश रचना सौरभ है। पत्रिका उपयोगी है। "न्यायालंकार पण्डित मक्खनलाल जी शास्त्री स्मृति ग्रन्थ", प्रकाशक - अखिल भारतीय दिगम्बर जैन महासभा, नन्दीश्वर फ्लोर मिल, ऐशबाग, लखनऊ, प्रथम संस्करण, 1993, आकार - क्राउन अठपेजी, पृ. 20+10+406, मूल्य रु. 150/- मात्र । न्यायालंकार पं. मक्खनलाल जी शास्त्री की पुण्यस्मृति में प्रकाशित यह स्मृति ग्रन्थ उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि है। इस ग्रन्थ को चार खण्डों में विभाजित किया गया है। प्रथम खण्ड में मक्खनलाल जी के प्रति सन्तों के साधुवाद, विद्वानों की श्रद्धांजलियाँ एवं काव्यांजलिया और अनेक लेखकों के उनके जीवन से सम्बन्धित संस्मरण प्रकाशित हैं। दूसरे खण्ड में उनके जीवन-परिचय के साथ-साथ उनके व्यक्तित्व-कृतित्व की समीक्षा है। इसी खण्ड में उनके विषय में अनेक विद्वानों के महत्त्वपूर्ण एवं सारगर्मित लेख प्रकाशित है। तृतीय खण्ड में स्वयं पं. मक्खनलाल जी शास्त्री द्वारा लिखित वे लेख प्रकाशित हैं, जो अत्यन्त महत्त्व के हैं और जैनगजट एवं जैन दर्शन में प्रकाशित हुए थे। चतुर्थ खण्ड में जैनदर्शन, जैनसाहित्य एवं इतिहास For Private & afsonal Use Only Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __ से सम्बन्धित लेख प्रकाशित हैं। सभी लेख उच्चकोटि के विद्रनों की कलम से प्रसूत हैं और जैन विद्या के विविध पक्षों पर प्रकाश डालते हैं। यह ग्रन्थ पण्डित मक्खनलाल जी शास्त्री के व्यक्तित्व एव कृतित्व को पूरी गरिमा के साथ उद्घाटित करता है। ग्रन्थ में उनके जीवन के विविध पहलुओं को दर्शन वाले छायाचित्र भी दिये गये हैं। ग्रन्थ संग्रहणीय और पठनीय है। इस हेतु आयोजकगण, सम्पादक मण्डल और प्रकाशन संस्था धन्यवाद के पात्र हैं। शोक समाचार श्री सोहित बरार का दुःखद निधन बम्बई अ.भा.श्वे.स्था. जैन कान्फ्रेत एवं पूज्य सोहन लाल स्मारक पार्श्वनाय शोधपीठ, वाराणसी के उपाध्यक्ष श्री नृपराज जी जैन के छोटे भाई श्री रतनसागर जैन के एक मात्र सुपुत्र श्री रोहित बरार का १६ अप्रैल को मात्र २७ वर्ष की आयु में आकस्मिक रूप से दुःखद निधन हो गया। स्व. सेहित होनहार, हंसमुख, सेवाभावी व्यक्ति थे। तीन वर्ष पूर्व ही आपका विवाह हुआ था। अन्तिम यात्रा में बम्बई, दिल्ली, जम्मू, अमृतसर, चंडीगढ़, सूरत, फरीदाबाद, लुधियाना आदि शहरों के लोग बड़ी संख्या में उपस्थित हुए। १६ अप्रैल को अहिंसा भवन, खार में श्रद्धांजलि सभा का आयोजन हुआ। स्व. रोहित की स्मृति में प्रतिवर्ष २५ हजार रुपयों का एक विशेष पुरस्कार प्रदान करने हेतु श्रीमती धनदेवी शादीलाल चेरिटेबल ट्रस्ट की घोषणा की गयी। For Private G ersonal Use Only Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन जगत् श्री सरदारमल जी कांकरिया का अभिनन्दन जैन सभा के सभाभवन में दिनांक ३ अप्रैल को प्रसिद्ध पुरातत्त्ववेत्ता श्री भंवरलालजी नाहटा की अध्यक्षता में देशभर से पधारे विद्वानों की संगोष्ठी सम्पन्न हुई। संगोष्ठी में 'राष्ट्रीय अस्मिता और मूल्यों का संकट' विषय पर विद्वानों ने सारगर्भित विचार प्रकट किये। डॉ. भानावत, जयपुर विषय-प्रवर्तन किया और डॉ. सागरमल जैन, वाराणसी ने विषय का समाहार किया । दिनांक ४ अप्रैल को बिड़ला सभागार में श्री अ. भा. सा. जैन संघ के पूर्व मंत्री एवं जैन सभा के पूर्व मंत्री श्री सरदारमलजी कांकरिया का अभिनन्दन किया गया। समारोह के प्रमुख वक्ता श्री प्रतापचन्द्र (पूर्व शिक्षामंत्री, भारत (सरकार) और प्रमुख अतिथि स्वामी श्री रसज्ञानन्दजी ( मंत्री - रामकृष्ण सेवा मिशन) ने श्री कांकरियाजी की शिक्षा और सेवा यात्रा की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुए उन्हें शुभाशीष दिया। इस अवसर पर कलकत्ता एवं बाहर से पधारे गणमान्य लोगों ने अपने विचार प्रकट करते हुए कांकरिया दम्पति का हार्दिक अभिनन्दन किया । सौ से अधिक संस्थाओं और सैकड़ों व्यक्तियों ने श्री कांकरिया को माला व मानपत्र भेंट कर अभिनन्दन किया । इस अवसर पर स्वामी श्री रसज्ञानन्दजी ने 'शिक्षा और सेवा के चार दशक' नामक अभिनन्दन ग्रंथ का लोकार्पण किया। अपने अभिनन्दन के प्रत्युत्तर में बोलते हुए श्री कांकरिया ने सेवा कार्यों में सहयोग के प्रति हार्दिक श्रद्धा समर्पित की। कार्यक्रम का संयोजन श्री भूपराजजी जैन ने किया। इस समारोह से प्रेरित हो श्री कांकरिया के अग्रज श्री हरकचन्दजी कांकरिया ने कांकरिया परिवार की ओर से कलकत्ता में जन साधारण हेतु २०० शैयाओं का अस्पताल बनाने के लिए ५१ लाख रुपये प्रदान करने की घोषणा की। श्री जैन सभा ने दो करोड़ की लागत से शीघ्र अस्पताल प्रारम्भ करने का संकल्प घोषित किया । For Prite & Personal Use Only Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अप्रैल-जून १८८३ उपाध्याय श्री पुष्करमुनि जी म. सा. का महाप्रयाण राजस्थान केसरी, अध्यात्मयोगी, उपाध्याय श्री पुष्करमुनिजी सा. का 3 अप्रैल, 1993 को रात्रि 1.30 मिनट पर उदयपुर में देहावसान हो गया। आपके शिष्य आचार्य श्री देवेन्द्रमुनि जी महाराज ने 2 अप्रैल को प्रातः 4 बजे आपको संथारा ग्रहण करवाया था। आपका जन्म मेवाड़ में गोगुन्दा के निकटवर्ती सिमटार ग्राम में श्री सूरजमलजी ब्राह्मण के यहाँ हुआ। सन् 1910 में आपने जैन संत श्री ताराचन्द जी म. से दीक्षा ग्रहण की और इस प्रकार अम्बालाल से आप पुष्करमुनि हो गये। आपका सम्पूर्ण जीवन संयम साधना, ज्ञान साधना के प्रति समर्पित रहा। आपका जीवन साधनामय, विचार उदार एवं प्रकृति सरल थी। आप संस्कृत-प्राकृत भाषाओं के प्रकाण्ड पण्डित हैं। आपने आगम, आगमिक व्याख्या साहित्य, न्याय और दर्शन का गम्भीर अध्ययन किया था। आप अपने शिष्य और शिष्याओं के अध्ययन की प्रगति के प्रति सदैव प्रयत्नशील रहे। उन्हें भी आगम, दर्शन और साहित्य का गम्भीर अध्ययन कराया और साहित्य की विविध-विधाओं में लिखने के लिए उत्प्रेरित किया जिसके फलस्वरूप स्थानकवासी परम्परा में श्रेष्ठ साहित्य का सृजन हुआ। उपाध्याय पुष्करमुनि जी की जिन-वाणी की सेवा अविस्मरणीय है, ऐसे आदर्श और उत्कृष्ट चारित्रात्मा सन्त का विछोह जैन समाज के लिए अपुरणीय क्षति है। भले ही वे शरीर से हमारे बीच नहीं हैं, परन्तु अपने विपुल साहित्य के माध्यम से वे सदैव जैन श्रमण संघ एवं जैन समाज को आलोकित करते रहेगें। उनकी पुण्यस्मृति को कोटिशः वन्दन । For Private & Personal Use One Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ STATEMENT ABOUT OWNERSHIP & OTHER PARTICULAR OF THE PAPER SHRAMANA 1. Place of Publication : Pujya Sohanlal Sınarak Parshvanath Shodhpith . T. I. Road, Varanasi--5 2. Periodicity of Publication : First week of English calendar month. 3. Printer's Name, Nationality : Dr. Sagar Mal Jain and Address Indian Divine Printers B. 13/44, Sonarpura, Varanasi 4. Publisher's Name, : Dr. Sagar Mal Jain Nationality and Address Indian Pujya Sohanlal Smarak Parshvanath Shodhpith I. T. I. Road, Varanasi-5 5. Editor's Name, Nationality and Address Same Names and Address of : Shri Sohanlal Smarak individuals who own the Parshvanath Shodhpith Paper and Partners or Guru Bazar, Amritsar share-holders holding more (Registered under Act XXI than one per cent of the as 1860). total capital. I, Dr. Sagar Mal Jain hereby declare that thc particular given above are true to the best of the knowledge and believe. Dated 1-4-1993 Signature of the Publishers. S/d Dr. Sagar Mat Jain Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अप्रैल-जून 1993 100 रजि० नं० एल० 39 फोन : 311462 transform plastic ideas into beautiful shape NUCHEM MOULDS & DIES Our high precision moulds and dies are designed to give your moulded product clean flawless lines. Fully tested to give instant production the moulds are made of special alloy steel hard.chrome-plated for a better finish, Write to Get in touch with us for information on compression injection or transfer moulds Send a drawing on a sample of your design required we can undertake jobs right from the designing stage. Nuchem PLASTICS LTD. Engineering Division 2016. Mathura Road. Faridabad (Haryana) Edited Printed and Published by Prof. Sagar Mal Jain, Director, Pujya Sohanlal Smarak Parshvanath Shodhpeeth, Varanasi-221005