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________________ वसन्तविलास महाकाव्य का काव्य-सौन्दर्य वसन्तविलास महाकाव्य में प्रयुक्त अन्य अर्थालंकारों का विवेचन अधोलिखित रूप में प्रस्तुत है -- सन्देह -- अयं किमिन्द्रः किमु वा दिवाकरो निशाकरो वा कुसुमाकरोऽपि वा। वसन्तपालं कृतविस्मया इति व्यलोकयन्वमनि वन्यदेवता।7 उक्त वर्णन में वस्तुपाल के प्रति वनदेवताओं का सन्देह व्यक्त है। यहाँ आदि से अन्त तक उपमेय रूप वसन्तपाल पर उपमान रूप इन्द्र,सूर्य, चन्द्रमा एवं कामदेव का संशय किया गया है, अतः सन्देहालंकार है। अपहनुति -- कालपाशपतितेऽथ भास्वति पूर्वदिक्कुलवधूर्विलापिनी। यच्छति स्म निजकौमुदीमिषादन्धकारतिलमिश्रितं पयः ।।78 उक्त वर्णन में सूर्य रूपी नायक के अस्त ( नष्ट) हो जाने पर विलाप करती हुई पूर्वादिक्कुलवधू (चन्द्रमा) अपनी कौमुदी के बहाने मानो उसे तिलांजलि प्रदान कर रही है। यहाँ प्रकृत कौमुदी का प्रतिषेध मिषाद् शब्द से करके 'तिलमिश्रितं पयः' रूप अन्य उपमान की स्थापना करने से अपह्नुति अलंकार है। दृष्टान्त -- पापकालाकलिकालसमताऽप्यति नैव विकृति जनः ।। उत्कठोररवकाकपोषितः क्वापि कूजति कटूनि कोकिलः । इस श्लोक में पूर्वार्द्ध में उपमेय वाक्य है और उत्तरार्द्ध में उपमान वाक्य। दोनों वाक्यों में उपमेय, उपमान और साधारण धर्म का परस्पर बिम्ब-प्रतिबिम्ब भाव होने के कारण यहाँ दृष्टान्त अलंकार है। व्यतिरेक -- रामादपि न्यायपराऽस्य वृत्तिमंगाधिपादप्यतिचण्डमोजः । रतिप्रभोरप्यतिचारुरूपं वचः सुधातोऽप्यभवत्प्रधानम्। इस प्रसंग में कुमारपाल को राम से भी अधिक न्यायी, सिंह से भी अधिक ओजस्वी, कामदेव से भी अधिक सौन्दर्य सम्पन्न और अमृत से भी अधिक मधुर वचन वाला कहा गया है। यहाँ उपमान की अपेक्षा उपमेय के उत्कर्ष का वर्णन होने के कारण व्यतिरेक अलंकार है। विशेषोक्ति -- न यौवनेऽपि स्मरघस्मरत्वं न वैभवोऽपि क्वचनविवेकः । For Private & Persongly se Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.525014
Book TitleSramana 1993 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1993
Total Pages66
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size3 MB
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