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________________ प्रो. सागरमल जैन सकायिक मानने की अवधारणा की पुष्टि होती है। किन्तु जहाँ तक अग्निकाय का प्रश्न है, उसे जहाँ आचारांग के अनुसार स्थावर निकाय के अन्तर्गत वर्गीकृत किया जा सका है, वहाँ उत्तराध्ययन में उसे स्पष्ट रूप से त्रसनिकाय के अन्तर्गत वर्गीकृत किया गया है। इस प्रकार दोनों में आंशिक मतभेद भी परिलक्षित होता है। उत्तराध्ययन का यह दृष्टिकोण तत्त्वार्थसूत्र (भाष्यमान्य मूलपाठ) में और तत्त्वार्थभाष्य में भी स्वीकृत किया गया है। इससे ऐसा लगता है कि निर्गन्थ परम्परा में प्राचीनकाल में यही दृष्टिकोण विशेष रूप से मान्य रहा होगा। 4. दशवैकालिक जहाँ तक दशवैकालिक का प्रश्न है, उसका चतुर्थ अध्याय तो षट्जीवनिकाय के नाम से ही जाना जाता है। उसमें त्रस एवं स्थावर का स्पष्टतया वर्गीकरण तो नहीं किया गया है, किन्तु जिस क्रम में उनका प्रस्तुतिकरण हुआ है, उससे यह धारणा बनाई जा सकती है कि दशवैकालिक पृथ्वी, अप, अग्नि, वायु और वनस्पति इन पाँच को स्थावर ही मानता होगा। षट्जीवनिकाय के क्रम को लेकर दशवैकालिक की स्थिति उत्तराध्ययन के 26वें अध्ययन के समान है, किन्तु आचारांग से तथा उत्तराध्ययन के 36वें अध्याय से भिन्न है। 5. जीवाभिगम उपांग साहित्य में प्रज्ञापना में जीवों के प्रकारों की चर्चा ऐन्द्रिक आधारों पर की गई, त्रस और स्थावर के आधार पर नहीं। जीवों का स और स्थावर का वर्गीकरण जीवाभिगमसूत्र में मिलता है। उसमें स्पष्ट रूप से पृथ्वी, अप (जल) और वनस्पति को स्थावर तथा अग्नि, वायु एवं दीन्द्रियादि को त्रस कहा गया है। इस दृष्टि से जीवाभिगम और उत्तराध्ययन का दृष्टिकोण समान है। जीवाभिगम की टीका में मलयगिरि ने इसे स्पष्ट करते हुए लिखा है कि जो सर्दी-गर्मी के कारण एक स्थान का त्याग करके दूसरे स्थान पर जाते हैं, वे त्रस हैं अथवा जो इच्छापूर्वक उर्ध्व, अध एवं तिर्यक् दिशा में गमन करते हैं, वे त्रस है। उन्होंने लब्धि से तेज (अग्नि ) और वायु को स्थावर, किन्तु गति की अपेक्षा से त्रस कहा है। 6. तत्त्वार्थसूत्र जहाँ तक जैन परम्परा के महत्त्वपूर्ण सूत्र शैली के ग्रन्थ "तत्त्वार्थ" का प्रश्न है, उसके श्वेताम्बर सम्मत मूलपाठ में तथा तत्त्वार्थ के उमास्वाति के स्वोपज्ञ भाष्य में पृथ्वी, अप और वनस्पति -- इन तीन को स्थावरनिकाय में और शेष तीन अग्नि, वायु और द्वीन्द्रियादि को सनिकाय में वर्गीकृत किया गया है। इस प्रकार तत्त्वार्थसूत्र और तत्त्वार्थभाष्य का पाठ उत्तराध्ययन के 36वें अध्याय के दृष्टिकोण के समान ही है। तत्त्वार्थ का यह दृष्टिकोण आचारांग के प्राचीनतम दृष्टिकोण से इस अर्थ में भिन्न है कि इसमें अग्नि को स्पष्ट रूप से स माना गया है, जब कि आचारांग के अनुसार उसे स्थावर वर्ग के अन्तर्गत वर्गीकृत किया जा सकता है। अब हम दिगम्बर परम्परा की ओर मुड़ते हैं तो उसके द्वारा मान्य तत्त्वार्थसूत्र की Jain Education International For Private & Pagonal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525014
Book TitleSramana 1993 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1993
Total Pages66
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size3 MB
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