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________________ आचार्य हरिभद्र और उनका साहित्य चैत्यवन्दन, पूजा, प्रत्याख्यान, स्तवन, जिन-भवन, प्रतिष्ठा, यात्रा, साधुधर्म, यति समाचारी, पिंडविधि शीलांग, अलोचना विधि, प्रायश्चित्त कल्प, साधु प्रतिमा, तपोविधि का 50-50 गाथाओं में वर्णन है।26 सम्बोधप्रकरण -- 1590 पद्यों की प्राकृत रचना है 12 अधिकारों में विभक्त है। इसमें गुरु, कुगुरु, सम्यक्त्व, देवों का स्वरूप, श्रावक धर्म और उसकी प्रतिमायें, व्रत, आलोचना, लेश्या, ध्यान, मिथ्यात्व आदि का वर्णन है। योगदृष्टिसमुच्चय -- 226 पद्यों में रची गई है। आध्यात्मिक विकास की भूमिकाओं का 3 प्रकार से वर्णन किया गया है : पहला दृष्टि-योग, दूसरा इच्छायोग, तीसरा सामर्थ्य योग। इसके अनन्तर मित्रा, तारा, बला, दीप्रा, स्वरा, कान्ता, प्रभा और परा इन आठ दृष्टियों का विस्तृत वर्णन है। संसारी जीव की अचरमार्वतकालीन अवस्था को 'आघदृष्टि' और चरमावर्त कालीन अवस्था को योगदृष्टि कहा गया है। यशोविजयगणि और आचार्य की स्वयंकृत टीका भी उपलब्ध है, जो 1175 श्लोक परिमाण की है। इसमें आचार्य ने मूल विषयों का विशद् स्पष्टीकरण किया है। योग की आठ दृष्टियों की पातंजल योगदर्शन में आये यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार धारणा, ध्यान और समाधि -- इन आठ योगांगों के साथ तुलना की गई है।28 योगशतक -- इसमें 101 गाथायें हैं। इसमें योग का निश्चय एवं व्यवहार दोनों दृष्टियों से विश्लेषण किया गया है। सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन, सम्यक्चारित्र इन तीनों के लक्षण, योगी का स्वरूप, आत्मा और कर्म का सम्बन्ध, योग के अधिकारी के लक्षण, लौकिक धर्म, गृहस्थ का योग, साधु की समाचारी का स्वरूप, मैत्री आदि चार भावनायें, योग जन्य उपलब्धियाँ उनका फल आदि विषयों का निरूपण किया गया है।29 धम्मसंगहणी -- हरिभद्र का यह दार्शनिक ग्रंथ है। 1296 गाथाओं द्वारा धर्म के स्वरूप का निक्षेपों द्वारा प्ररूपण किया गया है। मलयगिरि द्वारा इसकी संस्कृत टीका लिखी गई हैं। इसमें आत्मा के अनादि-निधनत्व, अमूर्तत्व, परिणामित्व, ज्ञायकत्व, कर्तृत्व-भोक्तृत्व और सर्वज्ञसिद्धि का प्ररूपण है।30 ब्रह्मसिद्धान्तसार -- 423 पद्यों में रचित संस्कृत रचना है, इसमें सब दर्शनों का समन्वय किया गया है। इसमें मृत्यु सूचक चिन्हों का उल्लेख है। इसकी बहुत सी गाथायें हरिभद्र के अन्य ग्रन्थों में भी पाई जाती हैं।31 षड्दर्शन समुच्चय -- यह दर्शन पर लिखी गई संस्कृत पद्यमय रचना है। आचार्य ने 87 कारिकाओं में इस ग्रन्थ को समाप्त किया है। गणरत्न ने इस पर टीका लिखी है। इसे विषयविभाग की दृष्टि से इसे छः विभागों में विभक्त किया है। इसमें आचार्य ने छ: भारतीय दर्शनों बौद्ध, नैयायिक, सांख्य, जैन, वैशेषिक, जैमनीय और चार्वाक का तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया है। छः दर्शनों को आस्तिकवाद आर चार्वाक को नास्तिकवाद की संज्ञा दी है। प्रत्येक दर्शन के निरूपण के समय वे उस दर्शन के मान्य देवता का भी सूचन करते हैं। Jain Education International For Private e Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525014
Book TitleSramana 1993 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1993
Total Pages66
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size3 MB
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