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आचार्य हरिभद्र और उनका साहित्य
आचार्य हरिभद्र की रचनाओं को 3 भागों में विभक्त किया जा सकता है-- 1. आगमग्रन्थों एवं पूर्वाचार्यों की कृतियों पर टीकायें -- आचार्य ने यद्यपि आगमों की परम्परा के अनुसार ही इस साहित्य का सृजन किया है पर यह आगमकाल से अधिक व्यवस्थित और तार्किकता लिये हुये है। भाषा की प्रांजलता और आगमगत विशिष्टताओं का सरलता से विशदीकरण करके आचार्य ने इन टीकाओं को अधिक महत्त्वपूर्ण और मार्मिक बना दिया है। 2. स्वरचित ग्रन्थ एवं स्वोपज्ञ टीका -- आचार्य ने जैन दर्शन और समकालीन अन्य दर्शनों का गहन अध्ययन करके उन्हें अत्यन्त सूक्ष्म निरूपण शैली में प्रस्तुत किया है। इन ग्रन्थों में सांख्य, योग, न्याय- वैशेषिक, अद्वैत, चार्वाक, बौद्ध, जैन आदि दर्शनों की अनेक तरह से आलोचना और प्रत्यालोचना की है। जैन योग के तो वे आदि प्रणेता थे उनका योग विषयक ज्ञान मात्र सैद्धान्तिक नहीं था बल्कि वे योग साधना के प्रखर पंडित थे। उन्होंने अनेकान्तजयपताका नामक क्लिष्ट न्याय ग्रन्थ की भी रचना की। 3. कथा साहित्य
आचार्य ने लोक प्रचलित कथाओं के माध्यम से धर्म प्रचार को एक नया रूप दिया है, उन्होंने व्यक्ति और समाज की विकृतियों पर प्रहार कर उनमें सुधार लाने का प्रयास किया है। उनकी कथाओं में जहाँ त्याग, साधना और वैराग्य की प्रचुरता है, वहां जीवन के व्यावहारिक पहलुओं को छूने वाले भी अनेक प्रकरण हैं, जिनमें आध्यात्मिकता और भौतिकता के समवेत स्वर हैं। उन्होंने समराइच्चकहा, धूर्ताख्यान और अन्य लघु कथाओं के माध्यम से अपने युग की संस्कृति का स्पष्ट एवं सजीव चित्रांकन किया है। ____ आचार्य हरिभद्र विरचित ग्रन्थ-सूची में निम्न ग्रन्थ समाविष्ट हैं -- 1. अनुयोगदार वृत्ति
15. चैत्यवन्दनवृत्ति 2. अनेकान्तजयपताका
16. जीवाभिगमलघुवृत्ति 3. अनेकान्तघट्ट
17. ज्ञानपंचकविवरण 4. अनेकान्तवादप्रवेश
18. ज्ञानदिव्यप्रकरण 5. अष्टक
19. दशवैकालिक-अवचूरि 6. आवश्यकनियुक्तिलघुटीका
20. दशवैकालिकबहुटीका 7. आवश्यकनियुक्तिबहुटीका
21. देवेन्द्रनरकेन्द्रप्रकरण 8. उपदेशपद
2. द्विजवदनचपेटा 9. कथाकोश
23. धर्मबिन्दु 10. कर्मस्तववृत्ति
24. धर्मलाभसिद्धि 11. कुलक
25. धर्मसंग्रहणी. 12. क्षेत्रसमासवृत्ति
26. धर्मसारमूलटीका 13. चतुर्विंशतिस्तुति
27. धूर्ताख्यान 14. चैत्यवंदनभाष्य
28. नंदीवृत्ति
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