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षटजीवनिकाय में त्रस एवं स्थावर के वर्गीकरण की समस्या
मान्यताओं के अधिक निकट हैं।
यहाँ यह ज्ञातव्य है कि जहाँ एक ओर उत्तराध्ययन, उमास्वाति के तत्त्वार्थसूत्र एवं कुन्दकुन्द के पंचास्तिकाय में स्पष्ट रूप से षट्जीवनिकाय में पृथ्वी, अप (जल) और वनस्पति-- ये तीन स्थावर और अग्नि, वाय और त्रस (द्रीन्द्रियादि) -- ये तीन त्रस है ऐसा स्पष्ट उल्लेख है। वहीं दूसरी उत्तराध्ययन, दशवैकालिक, उमास्वाति की प्रशमरति एवं कुन्दकुन्द के पंचास्तिकाय जैसे प्राचीन ग्रन्थों में भी कुछ स्थलों पर पृथ्वी, अप, अग्नि, वायु और वनस्पति -- इन एकेन्द्रिय जीवों के एक साथ उल्लेख के पश्चात् त्रस का उल्लेख मिलता है। उनका त्रस के पूर्व साथ-साथ उल्लेख ही आगे चलकर सभी एकेन्द्रियों को स्थावर मानने की अवधारणा का आधार बना है, क्योंकि दीन्द्रिय आदि के लिये तो स्पष्ट रूप से त्रस नाम प्रचलित था। जब द्रीन्द्रियादि त्रस कहे ही जाते थे तो उनके पूर्व उल्लेखित सभी एकेन्द्रिय स्थावर है -- यह माना जाने लगा और फिर इनके स्थावर कहे जाने का आधार इनका अवस्थित रहने का स्वभाव नहीं मानकर स्थावर नामकर्म का उदय माना गया। किन्तु हमें यह स्मरण रखना होगा कि प्राचीन आगमों में इनका एक साथ उल्लेख इनके एकेन्द्रिय वर्ग के अन्तर्गत होने के कारण किया गया है, न कि स्थावर होने के कारण। प्राचीन आगमों में जहाँ पाँच एकेन्द्रिय जीवों का साथ-साथ उल्लेख है वहाँ उसे त्रस और स्थावर का वर्गीकरण नहीं कहा जा सकता है -- अन्यथा एक ही आगम में अन्तर्विरोध मानना होगा। जो समुचित नहीं है। इस समस्या का मूल कारण यह था कि दीन्द्रियादि जीवों को बस नाम से अभिहित किया जाता था -- अतः यह माना गया कि द्वीन्द्रियादि से भिन्न सभी एकेन्द्रिय स्थावर है। इस चर्चा के आधार पर इतना तो मानना ही होगा कि परवर्तीकाल में त्रस और स्थावर के वर्गीकरण की धारणा में परिवर्तन हुआ है तथा आगे चलकर श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों परम्पराओं में पंचस्थावर की अवधारणा दृढीभूत हो गई। यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि जब वायु और अग्नि को त्रस माना जाता था, तब द्वीन्द्रयादि त्रस के लिये उदार (उराल) त्रस शब्द का प्रयोग होता था। पहले गतिशीलता की अपेक्षा से त्रस और स्थावर का वर्गीकरण होता था और उसमें वायु और अग्नि में गतिशीलता मानकर उन्हें त्रस माना जाता था। वायु की गतिशीलता स्पष्ट थी अतः सर्वप्रथम उसे त्रस कहा गया। बाद में सूक्ष्म अवलोकन से ज्ञात हुआ कि अग्नि भी ईंधन के सहारे धीरे-धीरे गति करती हुई फैलती जाती है, अतः उसे भी त्रस कहा गया। जल की गति केवल भूमि के ढलान के कारण होती है स्वतः नहीं, अतः उसे पृथ्वी एवं वनस्पति के समान स्थावर ही माना गया। किन्तु वायु और अग्नि में स्वतः गति होने से उन्हें त्रस माना गया। पुनः जब आगे चलकर जब द्रीन्द्रिय आदि को ही त्रस और सभी एकेन्द्रिय जीवों का स्थावर मान लिया गया तो -- पूर्व आगमिक वचनों से संगति बैठाने का प्रश्न आया। अतः श्वेताम्बर परम्परा में लब्धि और गति के आधार पर यह संगति बैठाई गई और कहा गया कि लब्धि की अपेक्षा से तो वायु एवं अग्नि स्थावर है, किन्तु गति की अपेक्षा से उन्हें उस कहा गया है। दिगम्बर परम्परा में धवला टीका में इसका समाधान यह कह कर किया गया कि वायु एवं अग्नि को स्थावर कहे जाने का आधार उनकी गतिशीलता न होकर उनका स्थावर नामकर्म का उदय है। दिगम्बर परम्परा में ही कुन्दकुन्द के पंचास्तिकाय के टीकाकार जयसेनाचार्य ने यह Jain Education International For Private Personal Use Only
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