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________________ डॉ. केशव प्रसाद गुप्त श्रीखण्डशाखी तरुषु ग्रहेषु पूषा प्रसूनेषु सहस्रपत्रम्। पेयेषु पाथः पुरुषेषु साधुः प्रजापतेः सच्चरितानिपंच ।। जागरूक महसो मनोभुवः शासनादिव तदामृगीदृशाः। वल्लभागमनोत्सुकाशया मण्डनानि वपुषो वितेनिरे।। संगीतनादः श्रुतिशूक्तिपेयः श्रेयस्करोऽजायत यत्र पूर्वम् । तत्राधुना दुःसमयानुभावाच्चैत्येषु कष्टं करटाश्चटन्ति।। उक्त श्लोकों में समास रहित व अल्पसमास युक्त प्रसाद गुण से परिपूर्ण सरल भाषा का प्रयोग होने के कारण श्रुति मात्र से अर्थ की प्रतीति होने लगती है। 4. रीति-विवेचन काव्य के आत्मभूत तत्त्व रस को उत्कृष्ट बनाने वाले तत्त्वों में रीति का भी महत्त्वपूर्ण स्थान है। 7 रीति सम्प्रदाय के प्रधान प्रतिपादक आचार्य वामन हैं। उन्होंने रीति को काव्य की आत्मा माना है।98 रीति के स्वरूप के सम्बन्ध में उनका कथन है कि पदों की विशिष्ट रचना ही रीति है।99 रीति को ही दण्डी, कुन्तक, भोजादि आचार्यों ने मार्ग या ‘पन्थ के नाम से अभिहित किया है।100 आनन्दवर्धन ने इसके लिए संघटना शब्द का प्रयोग किया है।101 यद्यपि आचार्यों ने कई रीतियों का उल्लेख किया102 फिर भी काव्यजगत में वामनोक्त तीन रीतियों -- वैदर्भी, गौडीया और पांचाली103 को ही समुचित प्रतिष्ठा प्राप्त हो सकी है। कवि बालचन्द्रसूरि कवित्व रीति के प्रति अत्यन्त जागरूक हैं। वे इसे तलवार की धार पर चलने के समान दुष्कर मानते हैं -- कृपाणधाराव्रतवत्कवीनां सुदुष्करा कापि कवित्वरीतिः ।104 निस्सन्देह कवि को इस दुष्कर कार्य में महत्त्वपूर्ण सफलता मिली है। कवि ने वसन्तविलास महाकाव्य में मुख्य रूप से वैदर्भी रीति को अपनाया है। वैदर्भी रीति का स्वरूप निर्धारण करते हुए आचार्य विश्व नाथ ने कहा है कि जिस रीति में माधुर्य गुण, सुकुमार वर्ण एवं असमास या अल्पसमास से युक्त ललित रचना का विन्यास किया जाता है, उसे वैदर्भी रीति कहते हैं।105 वामन ने वैदर्भी रीति में केवल माधुर्य गुण का ही नहीं, अपितु समस्त गुणों का समावेश होना आवश्यक माना है।1०० वसन्तविलास महाकाव्य के रचयिता वैदर्भी रीति के प्रेमी हैं। इसीलिए 'अपराजित कवि ने उन्हें 'विदर्भरीतिबलवान जैसे विशेषण से विभूषित किया है।107 वसन्तविलास महाकाव्य में प्रयुक्त वैदर्भीरीति के कुछ उद्धरण प्रस्तुत हैं -- त एव भूपाः प्रययुः प्रसिद्धिं ये वाचिविस्तारमगुः कवीनाम्। अनेकशी गायकगीतिगृह्या मह्यां श्रियः केलिमया बभूवुः ।।108 उद्यानपाला इव कीर्तिवल्लीवनं कवित्वामृतसारिणीभिः । Jain Education International For Private & Personal Use Only ५२ www.jainelibrary.org
SR No.525014
Book TitleSramana 1993 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1993
Total Pages66
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size3 MB
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