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________________ वसन्तविलास महाकाव्य का काव्य-सौन्दर्य इस वर्णन में शंख का हृदयगत 'भय' स्थायीभाव है। आलम्बन वस्तुपाल है। वस्तुपाल का पराक्रम तथा उसके द्वारा शंख की नष्ट की जाती हुई सेना उद्दीपन विभाव है। शंख का युद्ध स्थल छोड़कर भागना आदि अनुभाव हैं । चिन्ता, तर्क, संभ्रम, विषाद आदि व्याभिचारी भाव हैं । इन सबके योग से यहाँ भयानक रस की पुष्टि हुई है। अद्भुत रस का चित्रण, महाकाव्य में अपेक्षाकृत कम हुआ है। नवम सर्ग में वस्तुपाल की निद्रावस्था में एक पैर वाले, लँगड़ाते हुए धर्म के आगमन के वर्णन में कवि ने अद्भुत रस की व्यंजना की है संजातनिद्रोऽथ विनिद्रकीर्तिः स्वप्नान्तरासौ नितराममात्यः । एकाङ्घ्रिमेकं सुरमुत्तरन्तं दिवो ददर्शातिशयैः स्फुरन्तम् ।। सप्तर्षिभिस्तैरभिवन्द्यमानमन्वीयमानं च दिशामधीशैः । विरंचिपुत्रेण धृतातपत्रं ग्रहाधिपाभ्यां धुतचामरं च । । पाणौ श्रियं पङ्कजभाजि वामे वामेतरे चापि गिरं द धानम् । निजांगभासां भृशमंगभाजां नेत्रेषु पीयूषमिव क्षरन्तम् ।। अभ्यापतन्तं तमथो विलोक्य मुत्कौतुकावेशवशो वसन्तः । पीठं तु पीठं ददतार्थमिति ब्रुवन्सत्वरमभ्युदस्थात् ।। ,19 यहाँ वस्तुपाल (वसन्त) का हृदयगत "विस्मय" स्थायीभाव है। धर्म इसका आलम्बन है । धर्म की विकृत और चित्ताकर्षक स्थिति उद्दीपन विभाव है । वस्तुपाल का धर्म के स्वागतार्थ उठकर खड़े होना, धर्म के लिए आसन देना, उसका स्वागत करना आदि अनुभाव हैं। आवेग, मति, धृति, सम्भ्रान्ति आदि संचारी भाव हैं । इन सबसे परिपुष्ट विस्मय स्थायीभाव अद्भुत रस में परिणत हो गया है । 1 महाकाव्य में यत्र-तत्र हास्य रस भी दृष्टिगोचर होता है। सप्तम सर्ग में सम्भोग श्रृंगार के सहायक रूप में इस रस की अभिव्यक्ति हुई है - विकूणयन्ती वदनं पदे पदे नखव्रणर्त्या जघनस्य काचन । विवाधते ते किमिति प्रहासिनं जघान लीलाकमलेन कामिनम् । 20 उक्त वर्णन में जघन-स्थल पर नायक द्वारा किये गये नखक्षत की वेदना से नायिका बार-बार सीत्कार कर रही है । नायिका के इस कृत्य पर नायक द्वारा किये जा रहे हास - परिहास में हास्य रस की अभिव्यक्ति हो रही है । विकृत आकृति और विचित्र परिधान से उत्पन्न हास्य रस की अभिव्यक्ति ग्यारहवें सर्ग में की गयी है। पुराङ्गनायें संघाधिपति वस्तुपाल को देखने की इच्छा से इतनी आतुर हो जाती हैं कि वे वस्त्राभूषणों को नियत स्थान पर धारण करने में भूल कर बैठती हैं औत्सुक्यतो हारलतां नितम्बे निवेश्य कण्ठे रसनां च काचित् । ताडङ्कमाधाय कलाचिकायां कर्णे पुनः कङ्कणमुच्चकार ।। For Private & Personal Use Only ४१ Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.525014
Book TitleSramana 1993 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1993
Total Pages66
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size3 MB
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