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आचार्य हरिभद्र और उनका साहित्य
चित्तउड ) में जितारि राजा के पुरोहित थे। उनके पिता का नाम शंकर और माता का नाम गंगा था। गणधरसार्ध शतक में उनको पांडित्य का गर्व करने वाला हरिभद्र नामक ब्राह्मण कहा गया है। अपनी विद्वत्ता के अभिमान में आकर उन्होंने प्रतिज्ञा की थी जिसका कहा हुआ समझ नहीं पाऊँगा उसका शिष्य बन जाऊँगा। एक बार एक बन्धन- मुक्त हाथी से बचने के लिये उन्होंने जैन मन्दिर का आश्रय लिया। वहाँ तीर्थंकर की प्रतिमा को देखकर उसका उपहास किया। दूसरे दिन मध्य रात्रि में जब वे अपने घर जा रहे थे उन्होंने एक वृद्धा साध्वी के मुख से उच्चरित एक सांकेतिक गाथा सुनी जिसका अर्थ वे समझ नहीं सके। जिज्ञासु प्रकृति के होने के कारण वे साध्वी के पास गाथा का अर्थ जानने के लिये गये। साध्वी ने गुरु जिनभट्ट के पास जाने के लिये कहा। हरिभद्र ने जब गुरु से इस गाथा का अर्थ पूछा तो गुरु ने कहा जैन परम्परा का पूरा और प्रामाणिक अभ्यास करने के लिये जैन धर्म की दीक्षा लेना अनिवार्य है। जैन सूत्रों का अर्थ तो जैन प्रव्रज्या लेकर विधिपूर्वक पढ़ने वाले को ही बताये जाते हैं। अपनी प्रतिज्ञा का पालन करने के लिये हरिभद्र ने जैन दीक्षा स्वीकार कर ली और याकिनी महत्तरा को धर्म माता के रूप में स्वीकार किया। कालान्तर में वह आचार्य जिनभट्ट के पट्टधर आचार्य बन गये। हरिभद्र भवविरहसूरि अथवा 'विरहांक- कवि के रूप में भी जाने जाते थे जिसका उल्लेख कुवलयमाला कहा तथा हरिभद्र की स्वयं की रचनाओं में आया है। उनके ग्रन्थों की अंतिम गाथा में कभी 'भवविरह और कभी 'विरहांक का प्रयोग हआ है। पंडित कल्याणविजयजी ने धर्मसंग्रहणी की प्रस्तावना में हरिभद्र रचित उन ग्रन्थों की प्रशस्तियों को उद्धृत किया है जिनमें 'भव विरह शब्द का प्रयोग किया गया है। ये ग्रन्थ हैं -- अष्टक, धर्मबिन्दु, ललितविस्तरा, पंचवस्तुटीका, शास्त्रवार्तासमुच्चय, षोडशक, अनेकान्तजयपताका, योगबिन्दु, संसारदावानलस्तुति, धर्मसंग्रहणी, उपदेशपद, पंचाशक और सम्बोधप्रकरण ।
आचार्य हरिभद्र के गुरु जिनभट्ट ने आचार्य को धर्म के दो भेद बतलाये थे, सस्पह (सकाम) और निस्पृह (निष्काम )। सस्पृह धर्म का आचरण करने वाला स्वर्ग सुख का भागी बनता है और निस्पृह का पालन करने वाला भवविरह' अर्थात् मोक्षपद का अनुगामी बनता है। हरिभद्र ने भवविरह को ही श्रेष्ठ समझ कर ग्रहण किया। आचार्य किसी के द्वारा नमस्कार या वंदना किये जाने पर 'भवविरह करने में उद्यमशील होवो कह कर आशीर्वाद देते थे, आशीर्वाद पाने वाला व्यक्ति उन्हें 'भवविरहसूरि', आप दीर्घायु हों, ऐसा कहता, इस प्रकार वे 'भवविरह के नाम से लोकप्रिय हो गये। हरिभद्र के ग्रन्थों के टीकाकार जिनेश्वर सूरि ने अष्टक प्रकरण की टीका में 'विरहांक' का उल्लेख किया है। ___ ऐसा माना जाता है कि उनके दो शिष्य हंस और परमहंस प्रमाण शास्त्र में प्रवीण थे, वे गुरु की आज्ञा लेकर वेष बदलकर प्रमाण शास्त्रों के अध्ययन के लिये बौद्ध विहार में गये। कुछ काल के अध्ययन के बाद उनका भेद खुल गया। बौद्धों ने हंस को मार डाला और परमहंस किसी प्रकार बच कर गुरु के पास पहुंच गये और उन्हें वृत्तान्त सुनाते हुये कालगत हो गये। अपने दो उत्तम शिष्यों के विरह से उनकी क्रोधाग्नि भड़क उठी उन्होंने बौद्ध भिक्षुओं की हत्या की प्रतिज्ञा की। बाद में अपने गुरु से बोध पाने के बाद उनका क्रोध शान्त हो गया, उन्होंने अपना मन ग्रन्थों की रचना में लगाया।10 प्रभावक चरित में कहा गया है कि इन दो शिष्यों के Jain Education International For Private & Pedonal Use Only
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