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श्रीसिद्धसेन दिवाकरजीना
केवलज्ञान - दर्शन अंगेना मन्तव्य विशे विचारणा
मुनि त्रैलोक्यमण्डनविजय
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आत्मिक विकासनी उत्कृष्ट भूमिकाओ प्राप्त थती ज्ञानशक्ति जैन दार्शनिक परिभाषा प्रमाणे 'केवलज्ञान' तरीके ओळखाय छे. 'केवलज्ञान' अ नाम ज सूचवे छे तेम आ ज्ञानशक्ति प्राप्त थया पछी केवल ज्ञान ज प्रवर्ते छे, कोई पण वस्तु के धर्म विषे सहेज पण अज्ञान रहेतुं नथी. अर्थात् आत्मा आ शक्ति द्वारा विश्वना त्रणे कालना सघळाये पदार्थो अने तेमना तमाम धर्मोनो बोध करे छे. बोध करवा माटे आत्मा आ शक्तिने बे रीते प्रयोजे छे : १. तमाम वस्तु-धर्मोने जाणवामां, २. तमाम वस्तु- धर्मोने जोवामां. आत्मानुं आ जाणवुं (-बोधक्रिया) पण 'केवलज्ञान' कहेवाय छे अने जोवुं (-साक्षात्कारक्रिया) 'केवलदर्शन' गणाय छे.
उपर जणाव्युं तेम सकल पदार्थोना बोधनी शक्ति अने सकल पदार्थोनो बोध बन्ने ‘केवलज्ञान' गणाय छे. तेनुं कारण से छे के 'ज्ञान' शब्द जैन प्रमाणव्यवस्था मुजब ओक करतां वधु अर्थ धरावे छे. १. बोध - उत्पादक शक्ति २. अ शक्ति द्वारा प्रवर्तती बोध माटेनी क्रिया ३. ओ क्रियाजन्य बोध ४. वस्तुना अनेक अंशोनो अथवा वस्तुनी हेयता - उपादेयतानो ग्राहक बोधविशेष ५. बोधात्मक उपयोग. २
हवे, केवलज्ञानी महात्मा केवलज्ञान अने केवलदर्शन धरावता होय ओम तमाम जैनाचार्यो माने ज छे. परन्तु आ ज्ञान-दर्शन ओक ज धर्मना बे नाम छे के बन्ने भिन्न धर्मो छे ? आ मुद्दे जैनाचार्योमां विचारभेद छे. ओटलुं ज नहीं पण, अ बन्ने धर्मो भिन्न होय तो पण ओ बन्ने अक साथे वर्ते छे के अलग-अलग समये ? अ मुद्दे पण जैनाचार्यो जुदा-जुदा विचारो धरावे छे.
शास्त्रीय परिपाटीने अनुसरनारा आचार्यो केवलज्ञान-दर्शनने परस्पर पृथक् धर्मो गणे छे. तेओना मते आ धर्मो क्रमशः प्रवर्ते छे. आ मत 'क्रमवाद' गणाय छे. जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण आ मतना प्रबल समर्थक छे.
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श्री मल्लवादीजी व. आचार्यो केवलज्ञान-दर्शनने पृथक् धर्मो गणवा छतां बन्नेने सहवर्ती- युगवत् वर्तनारा गणे छे. तेओनो मत 'युगपद्वाद' तरीके ओळखाय छे.
आनी सामे 'अभेदवादी' आचार्यो बन्नेने सर्वथा अभिन्न गणे छे. सिद्धसेन दिवाकरजी आ मतना स्थापक गणाय छे.
आ त्रणे वादोनी चर्चाने लगतुं विपुल साहित्य अत्यारे उपलब्ध छे.३ तेमांथी क्रमवादना पोषक विशेष-णवति (-श्रीजिनभद्रगणि क्षमाश्रमण) ग्रन्थना आधारे आपणे अभेदवाद-क्रमवाद अने युगपद्वाद-क्रमवादनी चर्चा जोइशुं. अभेदवाद-क्रमवादनी चर्चा
___अभेदवादी - ज्ञानावरण कर्म क्षीण थाय अटले केवलज्ञान प्रगटे छे अने मति-श्रुत व. अन्य ज्ञानो विराम पामे छे. अर्थात् अन्य कोई पण ज्ञान अवशिष्ट रहेतुं नथी. तो केवलदर्शन पण कई रीते होय ? (वि.ण. १८६)
क्रमवादी - अन्य ज्ञानो देशविषयक- सीमित विषयक्षेत्र धरावनारां होय छे, माटे सकलविषयक केवलज्ञान प्रगट थाय अटले ते विराम पामी जाय छे; परन्तु अ ज रीते देशविषयक दर्शनो पण नाश पामी जाय त्यारे सकलविषयक केवलदर्शन केम प्रगट न थाय ? (वि.ण. १८७)
अ. - केवलदर्शन केवलज्ञाननी अपेक्षाओ अत्यन्त परिमित विषयक्षेत्र धरावे छे. तो केवलज्ञान प्रगट थाय ओटले मति व. ज्ञानोनी जेम केवलदर्शन पण नाश न पामे ? (वि.ण. १८९).
क्र. - केवलदर्शननुं विषयक्षेत्र केवलज्ञाननी अपेक्षाओ परिमित छे अर्बु कोणे कां ? केवली भगवन्त जेम केवलज्ञानना बले सर्व ज्ञेय पदार्थोने जाणे छे, तेम केवलदर्शनना बले सर्व द्रष्टव्य पदार्थोने जुओ ज छे. वास्तवमां शेष असम्पूर्ण ज्ञानोनो सर्वथा अभाव छे ओम तमे कहो छो, खरेखर अq होतुं नथी. मति, श्रुत व. तमाम ज्ञानो केवली भगवन्तने होय ज छे, फक्त तेमनो वपराश नथी होतो. सूर्यना प्रकाशमां जोवा माटे दीवानी शी जरूर? (वि.ण. १९०-१९२) माटे मति-श्रुतना दृष्टान्तथी केवलदर्शन, निराकरण करी शकाय नहीं.
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वळी, ज्ञानात्मक आत्मिक अवस्थाओ मुख्यत्वे बे ज होय छे - क्षायोपशमिक अने क्षायिक.५ केवलदर्शन क्षायिक भाव छे, तेथी क्षायोपशमिक अवस्थामां तो ते न ज होय. अने क्षायिक केवली अवस्थामां तो तमे आने स्वीकारता नथी. तो केवलदर्शन रहेशे क्यां ? (वि.ण. १९४-१९५)
अ. - केवलदर्शन जेवी कोई चीज होती ज नथी. तो अना रहेवान रहेवानी चिन्ता शुं काम करवी जोइ ?
क्र. - जैन आगमोमां अनेक ठेकाणे ४ दर्शन, ४ दर्शनावरण कर्म, ४ अनाकारोपयोग व. प्ररूपणाओ छे.६ हवे जो तमे केवलदर्शन, अस्तित्व ज न स्वीकारो तो तमारे ओ तमाम प्ररूपणाओ साथे विरोध आवशे. (वि.ण. १९६)
अ. - तमे अमाझं मन्तव्य बराबर समजता नथी. अमे ज्यारे केवलदर्शननो निषेध करीओ छीओ, त्यारे अनो अर्थ ओ नथी के अमे केवलदर्शनना अस्तित्वने ज सदन्तर नकारीओ छीओ. अमे तो फक्त ओम ज कहीओ छीओ के केवलदर्शन ओ केवलज्ञानथी विलक्षण के पृथक् बाबत नथी. ओक ज क्रिया (सर्व पदार्थोनुं बोधात्मक ग्रहण ज) बे नामे ओळखाय छे. माटे ओ क्रियाने केवलज्ञाननी जेम केवलदर्शन पण गणीओ तो शास्त्रीय प्ररूपणाओ साथे कोई विरोध आवतो नथी. (वि.ण. १९७)
क्र. - तमारा मन्तव्यमांत्रण वात विचारणीय लागे छे : १. जो केवलज्ञान अने केवलदर्शन अेक ज होत तो निरर्थक बेनी प्ररूपणा
शुं काम करात ? बन्नेनां अलग-अलग आवारक कर्मो पण शा माटे
देखाडात ? (वि.ण. १९८) २. 'सिद्ध भगवन्तो साकार अने निराकार बन्ने लक्षणवाळा होय छे' ओम
शास्त्रोमां कडं छे. हवे जो केवलदर्शन ओ केवलज्ञानथी जुदुं न होय तो, ज्ञान साकारोपयोगात्मक होवाथी सिद्धोने निराकारोपयोग ज नहीं मळे, अने
तो तेओने निराकार अवस्था पण कई रीते घटशे ? (वि.ण. १९९) ३. ज्ञेय पदार्थोने पोतीका स्वरूपे जाणवा ओ बोधक्रिया (-ज्ञान) छे, अने
द्रष्टव्य पदार्थोने सामान्य स्वरूपे जोवा मे साक्षात्कारक्रिया (-दर्शन) छे,
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तो आ बन्ने क्रियाओने अेक कई रीते गणी शकाय ?" (वि.ण. २००)
अ. - दर्शन अव्यक्त होय छे अने केवली अवस्थामां तो अव्यक्तता होती नथी. तो केवली भगवन्तने व्यक्त केवलज्ञानथी पृथक् अव्यक्त केवलदर्शन केवी रीते सम्भवे ? अक तरफ केवलज्ञानी कहेवा अने बीजी तरफ अमने पदार्थो अव्यक्त रहे छे ओम कहेवू - आमां विरोध नथी ? (वि.ण. २१९)
क्र. - 'दर्शन अव्यक्त होय छे' आ नियम छाद्मस्थिक दर्शनो पूरतो ज समजवानो छे. केवलदर्शन तो सघळाये द्रव्य-पर्यायोने जोतुं होवाथी, तेम ज पोताना आवरणना सर्वथा क्षयथी उद्भूत होवाथी व्यक्त ज होय छे. माटे केवली भगवन्तने केवलज्ञानथी पृथक् केवलदर्शननो उपयोग स्वीकारवामां कोई ज दोष नथी. (वि.ण. २२०-२२१)
वास्तवमा दोष तो केवलदर्शनने केवलज्ञानथी जुदुं न स्वीकारवामां छे. कारण के ज्ञान हमेशां विषयभूत पदार्थोने जाणी शके छे, जोई शकतुं नथी. जोवा माटे तो दर्शन ज जोइओ. माटे केवलदर्शनना स्वतन्त्र अस्तित्वने नकारनाराओना मते तो केवली भगवन्त सर्व पदार्थोने जोई शकता नथी, एम ज मानवं पडे. (वि.ण. २२२)
आम, केवलज्ञान अने केवलदर्शन स्वतन्त्र अने परस्पर पृथक् बाबतो छे ओम नक्की थयु. हवे तेमां पण क्रमवादीओना मते ओक समय केवलज्ञान अने ओक समय केवलदर्शन अम क्रमिक परम्परा प्रवर्ते छे, ज्यारे युगपद्वादीओ बन्नेने अलग समजवा छतां समानकालीन गणावे छे. आ बन्ने मतोनां मन्तव्यने बराबर समजवा माटे आपणे युगपद्वाद-क्रमवादनी चर्चा विशेष-णवतिना ज आधारे सक्षेपमां जोइशुं. युगपद्वाद-क्रमवादनी चर्चा युगपद्वादी - १. आगमोमां केवलज्ञान अने केवलदर्शन बन्नेने सादिअपर्यवसित गणाववामां आव्यां छे. हवे तमारा मते तो केवलज्ञानना समये केवलदर्शन नथी होतुं अने केवलदर्शनना समये केवलज्ञान नथी होतुं. तो आ रीते तो केवलज्ञान-दर्शन उत्पादविनाशी ज सिद्ध थया. तो ओमनी शास्त्रोमां
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दर्शावली अनन्तता कई रीते घटशे ? (वि.ण. २२५)
२. केवलज्ञान-दर्शननां आवारक कर्मोनो क्षय पण आ रीते निरर्थक बनशे. कारण के अ क्षयथी प्राप्त थनाएं केवलज्ञान - दर्शन ओक समयथी वधारे तो टकतां नथी. (वि.ण. २३२)
३. आवारक कर्मो पण न होय अने अन्य कोई प्रतिबन्धक पण न होय अने छतांय केवलज्ञान-दर्शन ओक ओक समय टकीने नाश पामी जाय, ओमां कारणभूत कोण ? कोई ज नहीं. माटे वगर कारणे ज ते नाश पा छे ओम स्वीकारवुं पडे. अने ओम स्वीकारवा कयो बुद्धिमान पुरुष तैयार थाय ? (वि.ण. २३९)
४. केवलज्ञान वखते केवलदर्शन न होवाथी केवली भगवन्त असर्वदर्शी बनशे तेमज केवलदर्शन काले केवलज्ञान न होवाथी असर्वज्ञ बनशे. तो केवली भगवन्तने आपणे क्यारेय सर्वज्ञ - सर्वदर्शी तरीके तो ओळखी ज नहीं शकीओ. (वि.ण. २४६)
माटे आवा दोषोथी बचवा माटे केवली भगवन्तने सदाकाल अकसाथै केवलज्ञान अने केवलदर्शन प्रवर्ते छे ओम स्वीकारवुं जोइओ.
क्रमवादी आपणे ओक दृष्टान्त जोइओ. मतिज्ञान अने श्रुतज्ञान पोतपोतानां आवरणोना क्षयोपशमथी प्रगटे छे. ११ आ बन्ने ज्ञानो छद्मस्थ अवस्थानां ज्ञानो छे. अने छद्मस्थ अवस्थामां कोई पण ज्ञान अन्तर्मुहूर्तथी १२ ओह्युं के वधु टकतुं नथी अने अक साथे बे ज्ञान होतां नथी. तेथी अन्तर्मुहूर्त सुधी मतिज्ञानोपयोग अने अन्तर्मुहूर्त सुधी श्रुतज्ञानोपयोग ओवी परम्परा अन्य ज्ञान- दर्शनोना उपयोग सुधी चाल्या करे छे. मतिज्ञान अने श्रुतज्ञाननी उत्कृष्ट स्थिति ६६ सागरोपम१३ जेटली होय छे अने अटलो समय आ ज्ञान धरावनारो जीव मतिज्ञानी-श्रुतज्ञानी तरीके ओळखाय छे.
हवे आ ठेकाणे तमे जे दोषो केवलज्ञान - दर्शनना क्रमिक उपयोग सन्दर्भे आप्या ते तमामे तमाम आपी शकाय तेम छे : १. मतिज्ञानोपयोग के श्रुतज्ञानोपयोग जो अन्तर्मुहूर्तथी वधु समय रहेतो ज न होय तो ओ बन्नेनी ६६ सागरोपमनी स्थिति कई रीते सम्भवे ? २ - ३. पोतपोतानां आवरणोनो क्षयोपशम
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होवा छतां आ बन्ने ज्ञानो जो अन्तर्मुहूर्तमां ज वगर कारणे नाश पामी जतां होय तो आवरणोनो क्षयोपशम निरर्थक नहीं बने ? अने कारण वगर पण नाश थाय छे ओम स्वीकारवानी आपत्ति नहीं आवे ? ४. मतिज्ञान वखते श्रुतज्ञान न होय अने अ ज रीते श्रुतज्ञान वखते मतिज्ञान विराम पामी जतुं होय तो कोई पण जीवने मति-श्रुतज्ञानी तरीके ओळखी ज न शकीओ.
अत्रे आ बधा ज दोषोनो उद्धार आपणे बन्ने अेक ज रीते करी शकीओ. आत्मानो सहज स्वभाव ज ओक उपयोगमां वर्तवानो छे. तेथी मतिज्ञानोपयोग वखते तेवा कारणोसर श्रुतज्ञानोपयोग सर्जाय तो मतिज्ञानोपयोग नष्ट थई जाय छे, आत्मगत मतिज्ञानशक्ति कंइ नष्ट नथी थती. ओ तो श्रुतज्ञानोपयोग वखते पण विद्यमान ज होय छे अने तेथी ज तो श्रुतज्ञानोपयोग बाद पुनः मतिज्ञानोपयोग प्रवर्ती शके छे. आम मति-श्रुतज्ञानशक्ति जो अन्तर्मुहूर्तमां नाश न पामी जती होय तो ओ शक्तिने आश्रयीने थतुं ६६ सागरोपमनुं विधान कई रीते असंगत बने ? ओ शक्तिने जन्मावनारो क्षयोपशम कई रीते निरर्थक बने ? वगर कारणे नाश पामवानी आपत्ति पण कई रीते आवे ? अने उपयोगमां न होवा छतां मति-श्रुतज्ञानशक्ति धरावनारा जीवने मति-श्रुतज्ञानी तरीके केम न ओळखी शकाय ?
नवाईनी वात ओ छे के आटली स्पष्ट समजण तमे पण धरावो छो अने मति-श्रुतज्ञान स्थळे आवता दोषोनो उद्धार तमे पण करी शको छो तो ओ ज रीते केवलज्ञान-दर्शनने क्रमिक मानवामां उपस्थित थता दोषोनुं निराकरण शक्य छे ओ तमे केम समजता नथी ?
___ अमे केवलज्ञान-दर्शनना उपयोगोने अकसामयिक गणीओ छीओ, केवलज्ञान-दर्शन-शक्तिने नहीं. शास्त्रगत सादि-अनन्ततानुं विधान शक्तिने आश्रयीने छे के जे खरेखर अनन्त छे. तो उपयोगोनी ओकसामयिकतानो ओ विधान साथे कई रीते विरोध आवे ? वळी, आ अकसामयिकता आत्माना सहज स्वभावने लीधे छे. तेथी उपयोगोना ओक समय पछीना नाशने अकारणिक मानवानी आपत्ति पण रहेती नथी. उपरान्त, केवलज्ञान अने केवलदर्शननां आवारक कर्मोनो क्षय केवलज्ञान-दर्शननी शक्तिने प्रगट करे छे के जे अनन्त छे, तो क्षयनी निरर्थक बनवानी वात ज आमां क्यां आवी ? क्षय छे तो ज
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आ शक्तिनुं प्रागट्य छे.
हवे तमे क्रमिक उपयोगमां असर्वज्ञ-असर्वदर्शित्वनी आपत्ति आपी ते पण शक्तिनी अपेक्षाओ विचारीओ तो नथी रहेती. गौतमस्वामी चतुर्ज्ञानी तरीके ओळखाता हता. पण तेमने उपयोग तो अकसाथे ओक ज ज्ञाननो रहेतो हतो. तेथी उपयोगनी अपेक्षाओ ओकज्ञानी अने शक्तिनी अपेक्षाओ चतुर्ज्ञानी - अम आपणे जेम समजीओ छीओ, तेम उपयोग अकला केवलज्ञान के अकला केवलदर्शननो होवा छतां शक्तिनी अपेक्षाओ केवलीने सर्वज्ञ-सर्वदर्शी गणवामां आवे छे. ट्रॅकमां, क्रमिक उपयोग मानवाना मतमां तमे आपेला कोई ज दोष आवता नथी.
यु. - केवलज्ञानावरणनी साथे ज केवलदर्शनावरणनो पण क्षय थाय छे. तो क्षयना तरत पछीना समये केवलज्ञाननो ज उपयोग होय, केवलदर्शननो नहीं, तेमां नियामक कोण ? माटे जेम बन्नेना आवारक कर्मोनो क्षय साथे ज थयो छे, तेम बन्नेनो उपयोग पण साथे ज मानवो जोईओ.१४ (वि.ण. २४८)
क्र. - जेनां आवरक कर्मोनो क्षय साथे ज थाय, तेमनो उपयोग पण साथे ज होय ओवो नियम नथी. केम के केवलज्ञानावरणनी साथे दानान्तराय, लाभान्तराय व. कर्मोनो पण क्षय थाय छे. छतांय क्षयना अनन्तर समये केवलीने दान, लाभ व. प्रवर्ते ज तेम बनतुं नथी. माटे केवलदर्शननो उपयोग क्षय पछी न प्रवर्ते तेमां कोई बाध नथी५. (वि.ण. २४९-२५०)
वळी, "केवली णं इमं रयणप्पभं पुढवि आगारेहिं जं समयं जाणति नो तं समयं पासति, जं समयं पासति नो तं समयं जाणति ।" जेवां सूत्रो द्वारा भगवतीजी, प्रज्ञापना व. अनेक स्थळे, ओकसाथे जोवा अने जाणवानो निषेध करवामां आव्यो छे. (वि.ण. २५१)
यु. - अत्रे आवो अर्थ करवामां केवली भगवन्तनी आशातना थाय छे. माटे अत्रे केवलीनो अर्थ श्रुतकेवली समजवो जोइए. अथवा तो आ वातने परतीर्थिकोनो मत समजवो जोइए. (वि.ण. २५२)
क्र. - प्रज्ञापना, भगवतीजी व.मां आवता आ सिवायना अन्य तमाम केवली सम्बन्धित निर्देशोने स्वसिद्धान्तसम्मत ज तमे समजो छो. अटलुं ज नहीं, पण ओ तमाम स्थाने 'केवली'नो अर्थ तमे 'केवलज्ञानी' ज करो छो.
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तो आ ओक ज स्थळे अने परवक्तव्य मानवुं अथवा केवली - शब्दनो अर्थ बदली नाखवामां तमारी इच्छा सिवाय कयुं कारण ? आ प्ररूपणाओनी आगळ-पाछळना सन्दर्भों परथी पण अत्रे 'केवली' नो अर्थ 'केवलज्ञानी' ज लेवानो छे ते स्पष्ट समजाय तेवुं छे. (वि.ण. २५३-२५८)
वळी, अल्पबहुत्वनी प्ररूपणामां पण साकारोपयोगी अने अनाकारोपयोगीनुं ज अल्पबहुत्व जोवा मळे छे, उभयोपयोगीनुं नहीं. ते पण जणावे छे के साकार अने अनाकार उभय उपयोग अकसाथै सम्भवे नहीं. (वि.ण.२६७) माटे समग्रपणे विचारतां ओक समय केवलज्ञान अने बीजा समये केवलदर्शन ओ रीते उपयोगोनी क्रमिक परावृत्ति ज स्वीकारवी अमने इष्ट लागे छे.
* * *
त्रणे
उपरनी चर्चा परथी अभेदवाद, युगपवाद अने क्रमवाद वादोनुं हार्द बराबर स्पष्ट थइ जाय छे. हवे आपणे प्रस्तुत लेखना मूळ उद्देश्य पर विचार करीशुं. सिद्धसेन दिवाकर भगवन्त क्रमवादना विरोधी छे से अक निश्चित बाबत छे. पण तेओनुं पोतानुं मन्तव्य शुं छे ते विचारणीय मुद्दो बने छे.
सिद्धसेन दिवाकरजीनुं केवलज्ञान-दर्शन विशेनुं पोतानुं मन्तव्य समजवा माटे उपलब्ध सामग्रीमां सन्मतितर्क- द्वितीयकाण्डनी ३ थी ३१ गाथाओ अने स्तुतिकारना नामे नोंधायेलुं ओक पद्य एवं कल्पितभेद...' ओम बे वस्तु छे. १६ आ सामग्रीना आधारे आपणे तेओना मन्तव्यनी विस्तृत छणावट करीओ ते पूर्वे केलांक बाह्य साक्ष्यो विशे जोई लइओ.
श्री अभयदेवसूरिजी सन्मतितर्कनी वादमहार्णव नामनी स्वरचित टीकामां सिद्धसेन दिवाकरजीने अभेदवादी जणाव्या छे :
"
'अत्र प्रकरणकारः क्रमोपयोगवादिनं तदुभयप्रधानाक्रमोपयोगवादिनं च पर्यनुयुज्य स्वपक्षं दर्शयितुमाह । ( - सन्मति ० २. ९नी अवतरणिका) “अत्र च जिनभद्रगणिक्षमाश्रमणपूज्यानामयुगपद्भाव्युपयोगद्वयमभिमतम् । मल्लवादिनस्तु युगपद्भावि तद्द्वयमिति । ( - सन्मति ० २.१० टीका) "साकारानाकारोपयोगयोनैकान्ततो भेद इति दर्शयन्नाह सूरिः । (-सन्मति. २.११ अवतरणिका)"
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मलधारी श्रीहेमचन्द्राचार्ये विशेषावश्यक-टीकामां स्तुतिकारने (-सिद्धसेन दिवाकरजीने) अभेदवादी मान्या छे. उपाध्याय श्रीयशोविजयजी भगवन्ते पण ज्ञानबिन्दुमां उद्धृत सन्मति-गाथाओना स्वोपज्ञ विवेचनमां श्रीअभयदेवसूरिजीने अनुसरीने श्रीसिद्धसेनाचार्यने अभेदवादी गणाव्या छे. पण्डित सुखलालजीना ज्ञानबिन्दुपरिशीलन, दर्शन और चिन्तन व. ग्रन्थो जोतां जणाय छे के तेओ दिवाकरजीने अभेदवादी ज समजे छे. श्रीजयसुन्दरसूरिकृत सन्मतितर्क-विवेचनमां पण सिद्धसेन दिवाकरजीना मतने अभेदवादस्थापक ज जणाववामां आव्यो छे. मतलब के प्राचीन कालथी ज दिवाकरजीनी अभेदवादना स्थापक तरीके प्रसिद्धि रही छे अने आजे तो ओ बाबतमां भाग्ये ज कोईने शङ्का हशे..
परन्तु, आनी सामे सिद्धसेन दिवाकरजी युगपद्वादना समर्थक हता ते माटेनां साक्ष्यो पण अवलोकनीय छ :
*श्रीहरिभद्रसूरिजी श्रीनन्दिसूत्रनी टीकामां त्रणे वादोना पुरस्कर्ताओनां नाम सूचवतां जणावे छे के -
“केचन सिद्धसेनाचार्यादयो भणन्ति । किम् ? युगपदेकस्मिन्नेव काले जानाति पश्यति चेत्येकः केवली नत्वन्यः नियमान्नियमेन । अन्ये जिनभद्रगणिक्षमाश्रमणप्रभृतयः एकान्तरितं जानाति पश्यति चेत्येवमुपदिशन्ति, श्रुतोपदेशेन यथाश्रुतानुगमानुसारेणेत्यर्थः । अन्ये तु वृद्धाचार्या न नैव पृथक् पृथग्दर्शनमिच्छन्ति जिनवरेन्द्रस्य केवलिन इत्यर्थः । किन्तहि ? यदेव केवलज्ञानं तदेव से तस्स केवलिनो दर्शनं ब्रुवते ।"
__ आमां स्पष्टपणे श्रीहरिभद्रसूरिजी भगवन्ते दिवाकरजीने युगपद्वादी गणाव्या छे, के जे तेमने अभेदवादी गणावता श्रीअभयदेवसूरिजीना मतथी जुदी पडती बाबत छे. उपाध्यायजी भगवन्ते ज्ञानबिन्दुमां आ मतभेदनुं समाधान करवा प्रयास को छे के -
“यत्तु युगपदुपयोगवादित्वं सिद्धसेनाचार्याणां नन्दिवृत्तावुक्तं तदभ्युपगमवादाभिप्रायेण, न तु स्वतन्त्रसिद्धान्ताभिप्रायेण, क्रमाक्रमोपयोगद्वयपर्यनुयोगानन्तरमेव स्वपक्षस्य सम्मतावुद्भावितत्वादिति द्रष्टव्यम् ।" (दिवाकरजीओ सन्मतिमां क्रमवादनुं खण्डन करवा माटे सौ प्रथम युगपद्वादनु अवलम्बन लीधुं छे, अने त्यारबाद क्रमवादनी साथे ने साथे युगपद्वादनुं पण खण्डन करीने
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स्वसम्मत अभेदवादनी स्थापना करी छे. माटे दिवाकरजीनो पोतानो पक्ष तो अभेदवाद ज छे, परन्तु ओक हद सुधी युगपवाद स्वीकारता होवाथी श्रीनन्दिसूत्रना टीकाकारे तेमने युगपद्वादी गण्या छे.)
__ आ समाधान अटले विचारणीय जणाय छे के जो श्रीहरिभद्रसूरिजी दिवाकरजीने वास्तवमां अभेदवादना ज स्थापक समजता होत तो, अभ्युपगमवादना अभिप्रायथी पण युगपद्वादी तरीके श्रीसिद्धसेनाचार्यनो उल्लेख कर्या पछी, अभेदवादना स्थापक तरीके वृद्धाचार्यने न ज जणावत. केम के तेम करवाथी तो ओ निर्णीत ज थई जाय के अभेदवाद श्रीसिद्धसेनाचार्यनो तो नथी ज.१७
वास्तवमा विशेषावश्यकभाष्य के विशेष-णवतिमां वादोना पुरस्कर्ताओनां नाम न होवा छतां, ओ ग्रन्थोने आधारे ज केवलज्ञान-दर्शननी चर्चा करती वखते श्रीहरिभद्रसूरिजी वादपुरस्कर्ताओनां नाम सौप्रथम वखत उल्लेखे छे, त्यारे ओ नक्की छे के तेओनी आ प्ररूपणा निराधार तो न ज होय. तेओनी पासे आ माटे कोई प्रबल श्रुतपरम्परा के गुरुपरम्परा होवी ज जोईओ. अने अमां पण ज्यारे श्रीमलयगिरिजी पण स्वकीय नन्दीटीकामां त्रणे वादोना पोषक तरीके हरिभद्रसूरिजीओ जणावेला आचार्योने ज उल्लेखे छे, त्यारे 'दिवाकरजी युगपद्वादी हता, अभेदवादी नहीं' ओ मत पुरुषप्रामाण्यनी रीते अत्यन्त सबल बनी जाय छे.
*श्रीअभयदेवसूरिजीओ मल्लवादीजीने युगपद्वादी गणाव्या छे ते पण आ सन्दर्भे विचारणीय बने छे. मल्लवादीजीना बे ग्रन्थो इतिहासनां पाने नोंधायेल छे : १. द्वादशारनयचक्र २. सन्मतिटीका. हवे पण्डित सुखलालजीओ ज्ञानबिन्दुपरिशीलनमा जणाव्या मुजब द्वादशारनयचक्रमां तो केवलज्ञान-दर्शन सम्बन्धे कोई चर्चा ज नथी. तेथी तेओनी युगपद्वाद-प्ररूपणा अंगे बे ज विकल्पो संभवे छे : १. मल्लवादीओ युगपद्वादनो स्थापक त्रीजो ज ग्रन्थ रच्यो होय के जेनो उल्लेख अत्यारे आपणी पासे नथी. २. सन्मतिटीका के जे अत्यारे अनुपलब्ध छे, तेमां तेओओ युगपद्वाद प्ररूप्यो होय. आमांथी प्रथम विकल्प स्वीकारीने बीजा विकल्पने अमान्य करतां पण्डित सुखलालजी ज्ञानबिन्दु-परिशीलनमा जणावे छे के "ज्यारे मल्लवादी अभेदसमर्थक दिवाकरना ग्रन्थ पर टीका लखे त्यारे ओ केवी रीते मानी शकाय के तेमणे दिवाकरना
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ग्रन्थनी व्याख्या लखती वखते तेमां तेमना विरुद्ध पोतानो युगपत्पक्ष कोईक रीते स्थाप्यो होय ?"
परन्तु पण्डितजीनी आ वात वाजबी जणाती नथी. कारण के श्रीसिद्धसेनाचार्यना अभेदवादथी विरुद्ध युगपद्वादनी स्थापना मल्लवादीजी श्रीसिद्धसेनाचार्यना ज ग्रन्थनी टीकामां न करे ओम समजी, मल्लवादीना त्रीजा कोईक ग्रन्थनी कल्पना करवी ते करतां, मल्लवादीजीओ दिवाकरजीने युगपद्वादी ज समजी तेमना ज युगपद्वादनी प्ररूपणा सन्मतिटीकामां करी हशे ओम मानवू वधारे उचित लागे छे. अने आ मान्यताने समर्थन आपतो अेक पुरावो पण आपणने, श्रीअभयदेवसूरिजी कृत सन्मतिटीकामां सांपडे छे.
श्रीअभयदेवसूरिजीओ सन्मति० - २.१४नी टीकामां, ओ गाथानो युगपद्वादी केवो अर्थ करता हता ते जणाव्युं छे - "युगपदुपयोगद्वयवादी 'अनन्तं दर्शनं प्रज्ञप्त'मित्यस्यां प्रतिज्ञायां 'साकारग्गहणाहि य णियमऽपरित्तं' इत्यकारप्रश्लेषात् ... हेतुमभिधत्ते ।" आ उल्लेख परथी स्पष्ट छे के सन्मतितर्कनी युगपद्वादी द्वारा करवामां आवेली कोईक टीका श्रीअभयदेवसूरिजी सामे मोजूद हती. आ टीका बहु ज सम्भव छे के मल्लवादीजीनी ज हती. कारण के ओक तो श्रीअभयदेवसूरिजी गाथा २.१०नी टीकामां मल्लवादीजीने ज युगपद्वादी तरीके ओळखावे छे, अने बीजुं ओ के श्रीअभयदेवसूरिजीथी पूर्वे मल्लवादी सिवाय कोईओ सन्मतितर्क पर टीका लख्यानो उल्लेख जाणवामां नथी. सम्भवित छे के प्रस्तुत युगपद्वादपरक व्याख्याने लीधे ज मल्लवादीजीने श्रीअभयदेवसूरिजीओ युगपद्वादी गणी लीधा होय.
हवे, जो मल्लवादीजीओ सन्मतितर्कनी प्रस्तुत विषयने सम्बन्धित गाथाओनी व्याख्या युगपद्वादपरक करी होय, तो स्वाभाविक रीते समजी शकाय के तेओ दिवाकरजीने युगपद्वादी ज समजता हशे. दिवाकरजीना मन्तव्य विशेनां उपलब्ध साक्ष्योमां मल्लवादीजीनो अभिप्राय ज सौथी प्राचीन छे, अने ओ अभिप्राय श्रीसिद्धसेनाचार्य युगपद्वादी हता ओ वातनी तरफदारी करे छे. ओ दृष्टिले 'सिद्धसेन दिवाकरजी युगपद्वादना स्थापक हता' ओ मत, दिवाकरजी अभेदवादी होवाना मत सामे वधु सबल बने छे. अत्रे ज्ञातव्य छे के श्रीअभयदेवसूरिजीथी पूर्वे कोई दिवाकरजीने अभेदवादी गण्या होवानो
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उल्लेख जडतो नथी.
*तर्कशुद्धतानी कसोटीमां पण अभेदवाद करतां युगपवाद वधु खरो उतरे छे. केमके
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वि.भाष्य के विशेष-णवतिमां अभेदवादना खण्डन बाद तेना परिष्काररूपे युगपवाद प्ररूपायो छे. आ वात सूचवे छे के क्रमवाद द्वारा अभेदवाद पर करायेला आक्षेपोने सहन करवानी क्षमता तो युगपवाद धरावे ज छे. अभेदवादनो स्वीकार १२ उपयोग, ४ दर्शन, केवलदर्शनावरण कर्म जेवी घणी घणी शास्त्रीय प्ररूपणाओनो छेद उडाड्या पछी ज थई शके. आनी अपेक्षाओ युगपवादे बहु ओछी प्ररूपणाओने अमान्य करवानी रहे छे.
वाचक उमास्वातिजीओ तत्त्वार्थभाष्यमां युगपवाद ज प्ररूप्यो छे. १८ दिगम्बर-परम्परा तो प्राचीन कालथी लइने आज सुधी अकमात्र युगपद्वाद ज स्वीकारती आवी छे ९.
शास्त्रबलना सहारे युगपद्वादनुं खण्डन करवा छतां श्रीजिनभद्रगणि अने तत्त्वार्थ–टीकाकार श्रीसिद्धसेनगणि जणावे छे के युगपद्वादनो स्वीकार करवामां अमने वांधो नथी, परन्तु अने प्रमाणित करनारुं शास्त्रवचन अमे नथी जोता अने अथी अमे अनो स्वीकार नथी करता. युगपद्वादनी तर्कशुद्धता तरफ ज तेओनो इशारो छे. अभेदवाद तर्कबल अने शास्त्रबल बन्ने रीते निर्बल छे.
२० स्पष्ट छे के आनी सामे
जोवुं अने जाणवुं ओ बन्ने क्रिया ओक ज छे ओवी अभेदवादीनी वात पण बुद्धिसंगत नथी. ओना करतां केवलज्ञान अने केवलदर्शननां आवारक कर्मोनो क्षय जेम साथे थाय छे, तेम से क्षयथी जन्य केवलज्ञान - दर्शननी उत्पत्ति पण साथे ज थाय तेवुं युगपद्वादीनुं मन्तव्य वधु बुद्धिग्राह्य छे.
आम जो अभेदवादनी अपेक्षाओ युगपवाद वधु तर्कपूत होय तो महान तार्किकाचार्य सिद्धसेन दिवाकरजी शा माटे युगपद्वादने छोडीने अभेदवाद स्वीकारे ?
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*आ बाबतमां सौथी महत्त्वनी गणाय तेवी साक्षी मे छे के विशेषणवति के वि.भाष्यमां उल्लिखित अभेदवादनी दलीलोमांथी महत्त्वपूर्ण ओक पण दलील सन्मतितर्कमां श्रीसिद्धसेनाचार्यना केवलज्ञान-दर्शन अंगेना स्ववक्तव्यमां प्रायः निर्दिष्ट नथी. किन्तु युगपद्वादनी ओकथी वधु दलीलो शब्दशः सन्मतिमां कर्तानी स्वमान्यता तरीके देखाय छे.२१ तो आ ज वात सन्मतिकारना अभेदवादी न होवाना प्रमाणमां पूरती नथी ?
जो के श्रीअभयदेवसूरिजी, मलधारी श्रीहेमचन्द्रसूरिजी, उपाध्याय श्रीयशोविजयजी जेवा बहुश्रुत भगवन्तो वगर जवाबदारीओ तो दिवाकरजीने अभेदवादी न ज जणावे. पण प्रश्न ओ छे के एकाधिक साक्ष्यो दिवाकरजीना युगपद्वादी होवानुं समर्थन केम करे छे ? सन्मतिकारना मन्तव्यो विशे श्रीहरिभद्रसूरिजी अने श्रीअभयदेवसूरिजी, मलयगिरिजी अने मलधारीजीना अभिप्रायोमां परस्पर आटली विसंगति शा माटे ? सन्मतिकारनां पोतानां ज वचनोमांथी आ विसंगतिनुं निराकरण शोधवा आपणे प्रयत्न करीशुं.
★ ★ ★ सन्मतितर्क सिवाय सिद्धसेन दिवाकरजीओ केवलज्ञान-दर्शन अंगेनुं पोतानु मन्तव्य रजू कर्यु होय, अर्बु सम्प्राप्त अकमात्र स्थान, अनेक स्थळे उद्धृत नीचे- पद्य छ :
“एवं कल्पितभेदमप्रतिहतं सर्वज्ञतालाञ्छनं, सर्वेषां तमसां निहन्तु जगतामालोकनं शाश्वतम् । नित्यं पश्यति बुध्यते च युगपद् नानाविधानि प्रभो!, स्थित्युत्पत्तिविनाशवन्ति विमलद्रव्याणि ते केवलम् ॥"
(आम जेना भेदो कल्पित कराया छे तेवो, प्रतिघातथी रहित, सघळांये अज्ञानान्धकारने उलेची नाखनार, समग्र विश्वमा प्रकाश पाथरनार, त्रिकालगामी अने सर्वज्ञताना चिह्नरूप अवो आपनो केवलबोध अविरतपणे अनेक प्रकारनां अने उत्पत्ति-विनाश-ध्रौव्यथी युक्त शुद्ध द्रव्योने अकसाथे जुओ छे अने जाणे छे.)
हवे आमां जे 'कल्पितभेदं' शब्द छे, ते जोइने विद्वानो, श्रीसिद्धसेनाचार्य
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केवलज्ञान-दर्शनमां काल्पनिक भेद अने वास्तविक अभेद मानता हता ओम आग्रहपूर्वक समजावे छे. खबर नहीं केम, पण आq तात्पर्य आ श्लोकदेखाडनारा 'नित्यं पश्यति बुध्यते च युगपद्' आ अंशने नजरअंदाज करता हशे ? जो आ पद्यना रचयिता खरेखर अभेदवादी ज होत तो, तेओ कदी पण ‘पश्यति' अने 'बुध्यते' ओम बे क्रिया न देखाडत. कारण के अभेदवादमां 'जोवू' अने 'जाणवू' जु, छ ज नहि. ज्यारे अहीं तो स्पष्ट कहे छे – “नित्यं युगपत् पश्यति बुध्यते च." तो आ युगपवाद ज छे के बीजुं कई ? 'पश्यति' अने 'बुध्यते' ने 'युगपत्'- ओक साथे कहेनाराने, इच्छीओ के ना इच्छीओ, पण युगपद्वादी ज गणवा पडे, अभेदवादी नहीं.
परन्तु दिवाकरजीने युगपद्वादी गणी लीधा पछी प्रश्न तो रहे ज छे के युगपद्वादमां केवलज्ञान अने केवलदर्शन वच्चे वास्तविक भेद छे, काल्पनिक नहीं. ज्यारे अहीं तो 'कल्पितभेदं केवलम्' आq कां छे. आम केम ? वास्तवमां श्रीसिद्धसेनाचार्यना मन्तव्य- खरं हार्द अहीं ज प्रगट थाय छे. पण ते समजवा माटे आपणे ओ वातने ध्यान पर लेवी पडशे के युगपद्वाद श्रीसिद्धसेनाचार्यना काळथी घणा पहेला ज प्रस्थापित थई चुक्यो हतो. वाचक उमास्वातिजी जे सहजताथी ओक ज वाक्यमां युगपद्वाद मुजबनी उपयोग-व्यवस्था वर्णवे छे२२, ते जोतां युगपद्वाद त्यारे व्यापक प्रचार-प्रसारमां हशे ते सहज समजी शकाय छे.
हवे ओ काल के ज्यारे मनुष्यनी तत्त्वजिज्ञासा अत्यन्त प्रदीप्त थई उठी हती, प्रमेय अने तेना रहस्यनी खोज पूरजोशमां चालु हती, दार्शनिक विचारधाराओनी आपसी मूठभेड प्रबल बनी हती, फक्त शास्त्रवाक्योना सहारे थती विचारणानुं स्थान तर्क अने बुद्धिनी कसोटीओ लेवा मांड्युं हतुं अने ओ रीते दर्शनोनुं तथा अनी मान्यताओनुं निश्चित माळखं घडातुं आवतुं हतुं त्यारे; क्रमवादनी तार्किक परिष्कृत विचारणाओ जेम युगपवाद जन्माव्यो, तेम स्वयं युगपद्वाद पण कोईने परिष्करणीय लागे तेम थर्बु अनिवार्य हतुं. युगपद्वादना उद्भव पछी सैकाओ वीत्ये जन्मली अने ओ सैकाओमां विकसेला तत्त्वज्ञानने पचावी चूकेली श्रीसिद्धसेनाचार्य जेवी मूलगामी दृष्टि धरावती तार्किक प्रतिभाने ओने संमार्जित-विकसित-सम्पूर्ण करवानुं मन न थाय तो ज नवाई !
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दिवाकरजीओ जोयुं हशे के शास्त्रीय क्रमवादनी सामे तार्किक बल पर अस्तित्वमां आवेलो युगपद्वाद स्वयं तार्किक दृष्टिले शुद्धीकरणनी शक्यता धरावे छे. अमां ओक तरफ 'जुगवं दो नत्थि उवओगा' ओ शास्त्रवचननी असंगतिनी समस्या तो ऊभी ज छे. तो बीजी तरफ अनुभवनी ओरण पर पण ओ थोडोक नबळो ठरे छे. केम के केवलज्ञान अने केवलदर्शन ओकसाथे वर्तता होवा छतां, जेम भिन्न स्वरूप धरावता होवाथी परस्पर सर्वथा अभिन्न नथी, तेम अकबीजाथी सापेक्षपणे वर्तता होवाथी सर्वथा भिन्न पण नथी. ओक उदाहरण जोइओ. आपणे ज्यारे आंखथी जोइओ छीओ त्यारे बन्ने आंखोनी जोवानी क्रिया स्वतन्त्र अने भिन्न ज होय छे. बे आंखोनी जोवानी क्रिया एक ज छे अq तो कोई पण बुद्धिमान् व्यक्ति न कहे. वळी, बन्ने आंखथी मनने मळती माहिती पण भिन्न भिन्न होय छे. जमणी आंख जे कोणथी वस्तुने जुओ छे, डाबी आंखनो कोण तेनाथी लगभग ३° अंश जेटलो तफावत धरावतो होय छे. छतां पण मन ओ बन्ने माहितीने मूलवीने ओक ज दृश्य मानसिक पट पर उपसावे छे, कारण के मननी चक्षु द्वारा बोध करवानी शक्ति तो ओक ज छे. ते ओक ज शक्ति बन्ने आंखो द्वारा बोध प्रवर्तावे छे, माटे बे आंखोना बे बोध नथी प्रवर्तता. ढूंकमां, शक्ति एक, बोध ओक, पण शक्तिथी जन्य बोध माटेनी क्रिया बे. मतलब के क्रियागत भेद, पण क्रियाओनो बोधतः अने शक्तितः अभेद.
हवे आ ज वात केवलबोधमा लागु पाडीओ तो केवलज्ञानशक्ति तो स्वरूपतः ओक ज छे, पण ओ शक्ति केवलज्ञान अने केवलदर्शन जेवी बे आंखो द्वारा प्रवर्ते छे. वळी, बन्ने बोधक्रियाओ तो अलग अलग ज छे, पण ओ बन्ने क्रियाओथी जन्य बोध तो अक ज सर्जाय छे. अर्थात् बोधक्रिया (-केवलज्ञान) अने अवलोकनक्रिया (-केवलदर्शन) परस्पर स्वतन्त्र होवा छतां, बोधतः अने शक्तित:२३ अभिन्न रहे छे. आ थयो भेदाभेदवाद.२४ ।।
युगपद्वाद केवलज्ञान अने केवलदर्शनने समानकालीन गणवा छतां बन्नेने सर्वथा भिन्न गणे छे. ज्यारे सिद्धसेनाचार्ये प्ररूपेलुं अनु ज परिष्कृत स्वरूप भेदाभेदवाद बन्नेने कालतः, बोधतः अने शक्तितः अभिन्न गणे छे अने स्वरूपतः भिन्न गणे छे. अने माटे ज दिवाकरजी 'कल्पितभेदं'थी बन्ने वच्चे
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अभेद पण जणावे छे अने ‘पश्यति बुध्यते च युगपत्'थी बन्नेनी अकसाथे प्रवृत्ति दर्शाववा द्वारा बन्नेनो भेद पण जणावे छे.
सन्मतिटीकाकार ज्यारे श्रीसिद्धसेनाचार्यने अभेदवादी जणावे छे त्यारे तेमना मनमां तो उपर दर्शावेलो भेदाभेदवाद ज छे –
"भिन्नावरणत्वादेव च श्रुतावधिवन्नैकत्वमेकान्ततो ज्ञान-दर्शनयोरेकदोभयाभ्युपगमवादेनैव ।" - २.५ टीका
"सामान्यविशेषज्ञेयसंस्पर्शी उभयैकस्वभाव एवाऽयं केवलिप्रत्ययः ।" - २.११ टीका
"अतो भिन्ने एव केवलज्ञानदर्शने, न चाऽत्यन्तं तयोर्भेद एव - केवलान्तर्भूतत्वेन तयोरभेदात्, न चैवमभेदाद्वैतमेव - सूत्रयुक्तिविरोधात् ।" - २.२० टीका
"केवलयोरप्येतन्मात्रेणैव विशेषः, एकान्तभेदाभेदपक्षे तत्स्वभावयोः पूर्वोक्तदोषप्रसङ्गाद् ।" - २.२१ टीका
"ततो युगपज्ज्ञानदर्शनोपयोगद्वयात्मकैकोपयोगरूपः केवलावबोधोऽभ्युपगन्तव्य इति सूरेरभिप्रायः ।" - २.३० टीका
मुश्केली फक्त त्यां ज छे के श्रीअभयदेवसूरिजीओ आ भेदाभेदवादने ज 'अभेदवाद' अq नाम आप्युं छे. आ नाम आपती वखते तेओओ ओ ध्यान पर नथी लीधुं लागतुं के दिवाकरजीनी विचारधाराथी जुदी विचारधारा धरावनारो अन्य ओक मत, के जे वि.भाष्य अने विशेष-णवति जेवा ग्रन्थोमां केवलदर्शननो के तेनी केवलज्ञानथी जुदी सत्तानो निषेध करनारा मत तरीके व्यावर्णित छे, ते पण 'अभेदवाद' तरीके ओळखाय छे. जो के बनी शके के आ अन्य मत श्रीअभयदेवसूरिजीना काल सुधीमां 'अभेदवाद' अर्बु विधिवत् नाम न पण पाम्यो होय, तेथी तेमणे श्रीसिद्धासेनाचार्यना मन्तव्यने 'अभेदवाद' तरीके ओळखाव्यु होय; पण पाछळना जैन विद्वानोओ उतावळमां ज, बन्ने- 'अभेदवाद' अq ओकसरखं नाम जोइने, विशेष-णवतिमां वणित अभेदवादने दिवाकरजी- मन्तव्य ज गणी लीधुं होय एम बने. दिवाकरजीने थयेलो कदाच आ मोटामां मोटो अन्याय हशे.
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विशेष-णवतिनो अभेदवाद वास्तवमां दर्शनसमुच्छेदवाद छे". आ मत अ धारणा पर रचायो छे के सर्वद्रव्योमां रहेला महासामान्यने जोनारुं केवलदर्शन छे. अने तेना सिवायना सर्व धर्मोने जाणनारुं केवलज्ञान छे. २६ आ धारणा प्रमाणे केवलदर्शन, केवलज्ञाननी अपेक्षाओ अत्यन्त परिमित विषयक्षेत्र धरावनाएं बने छे. अने तेथी, सघळाये धर्मोने केवलज्ञान जाणे छे तो महासामान्यने पण जाणशे ज ओवा तर्कना बळे, केवलदर्शनना अस्तित्वनो निषेध के तेनो केवलज्ञानमां अन्तर्भाव शक्य बने छे. ट्रंकमां, आ मत केवलज्ञान-दर्शननो सर्वथा अभेद स्वीकारे छे, अने ओ माटे अनुं तमाम ध्यान केवलदर्शननी स्वतन्त्र सत्ताना इन्कार पर केन्द्रित छे.
आ रीते केवलदर्शननो उच्छेद करवो ओ कंइ वादी सिद्धसेन दिवाकरजीनुं मन्तव्य नथी. आ वातनो सौथी मोटो पुरावो से छे के दर्शनसमुच्छेदवादीओ तरफथी केवलज्ञान - दर्शनना औक्यने समजवा जे मतिज्ञानचक्षुर्दर्शननुं दृष्टान्त आपवामां आवतुं हतुं, अने से दृष्टान्त द्वारा ओक ज उपयोगनां बे नाम छे अवुं साबित करवामां आवतुं हतुं, ते विशेष - णवतिमां उल्लिखित दृष्टान्त, थोडाक शाब्दिक फेरफार साथे सन्मतितर्कमां पूर्वपक्ष तरीके जोवा मळे छे, अने त्यां अ रीते बन्ने वच्चे सर्वथा अभेद छे से वातने खोटी साबित करी, ज्ञान-दर्शन वच्चे स्वभावतः भेद देखाडवामां आव्यो छे.
"मइणाणाणत्थंतरभूयस्स वि चक्खुदंसणस्सेह । जह दंसणोवयारो जुत्तो तह केवलस्सावि ॥" "दंसणमोग्गहमेत्तं घडोत्ति णिव्वण्णणा हवइ नाणं । जइ एत्थ केवलाण वि विसेसणं एत्तियं चेव ॥"
" जइ ओग्गहमेत्तं दंसणं ति मन्नसि...." सन्मति २.२३
वि.ण. २१२
वास्तवमां बन्ने अभेदवादना शब्दो सरखा होवा छतां, [" णाणं ति दंसणं ति य एक्कं चिय केवल तस्स" (- वि.ण. १९७) " तम्हा तं णाणं दंसणं च अविसेसओ सिद्धं" (-सन्मति. २.३०)], आ बन्ने वच्चे पायानो तफावत ओ छे के दर्शनसमुच्छेदात्मक अभेदवाद केवलज्ञान अने केवलदर्शननुं सर्वथा औक्य स्वीकारे छे, ज्यारे दिवाकरजीनो भेदाभेदवाद बन्नेने स्वभावतः क्रियारूपे भिन्न मानीने, ओक ज बोधना कारक तरीके अने ओक ज शक्तिना स्वरूप
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तरीके अभिन्न गणे छे. माटे दर्शनसमुच्छेदवादमां केवलज्ञान ज केवलदर्शन छे, ज्यारे भेदाभेदवादमां अक ज केवलबोधनां केवलज्ञान अने केवलदर्शन अम बे क्रियात्मक स्वरूपो छे. आटआटली भिन्नता होवा छतां, फक्त नामनी समानताने लीधे बन्ने वादोने ओक गणी लेवामां आव्या छे ते खरेखर नवाई गणाय !
जो के आवी धारणा बंधाई ते माटे प्रत्यक्ष नहीं तो परोक्ष रीते स्वयं श्रीअभयदेवसूरिजीने जवाबदार गणी शकाय. कारण के तेमना समयमां प्रचलित त्रण वादो- क्रमवाद, युगपद्वाद अने अभेदवादमांथी क्रमवाद अने युगपद्वादना विरोधमां श्रीसिद्धसेनाचार्यनुं मन्तव्य रजू करती वखते तेमणे करवी जोईती ओ स्पष्टता न करी के आ मन्तव्य ओ बे वादोनी जेम त्रीजा वादथी पण जुएं छे. सन्मतिमां अने तेनी टीकामां अभेदवादनुं खण्डन होवा छतां, शब्दशः आ स्पष्टता वगर तो दिवाकरजी- मन्तव्य बाकी रहेलो त्रीजो वाद ज गणाई जाय ओ तद्दन स्वाभाविक हतुं. अमां पण ज्यारे ओ बाकी रहेलो वाद अने दिवाकरजी- मन्तव्य सरखं अभिधान पाम्या त्यारे तो ओ धारणा सुदृढ थवामां कशुं ज बाकी न रह्यु.
__ हवे प्रश्न जे उद्भवे छे के सन्मतिटीकाकार श्रीअभयदेवसूरिजीओ सिद्धसेन दिवाकरजीना निजी मन्तव्य तरीके वर्णवेलो आ भेदाभेदवाद प्रचलित त्रण वादोथी जुदो स्वतन्त्र चोथो वाद ज छे ? के ओ त्रण वादोमां ज अनो अन्तर्भाव शक्य छे ? आ सन्दर्भे आम विचारी शकाय -
कोई पण बे पदार्थ वच्चे भेदक परिबळो मुख्यत्वे चार होय छे : १. उपादानद्रव्य २. क्षेत्र ३. काल ४. स्वरूप (आ चारेनी विवक्षा अनेक प्रकारे थई शके). हवे अत्रे केवलज्ञान अने केवलदर्शन धरावनारो जीव ओक ज होय छे. अटले द्रव्य के क्षेत्रथी तो अमां भेद-अभेदनो विचार करवानो रहेतो नथी. बाकी रहेता काल अने स्वरूप सम्बन्धे त्रण मत छे : १. स्वरूप अने काल बन्नेथी भेद - क्रमवाद. २. स्वरूपथी भेद, पण कालथी अभेद - युगपद्वाद ३. स्वरूप अने काल बन्नेथी अभेद - अभेदवाद. आ सिवायनो चोथो विकल्प - कालथी भेद, पण स्वरूपथी अभेद अq तो भेदाभेदवाद मानतो नथी. तेथी पूर्वोक्त त्रण विकल्पमांथी ज कोईक विकल्पमां अनो
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समावेश करवो पडे. अने ते युगपद्वादमां ज शक्य छे. कारण के युगपद्वादनुं मुख्य अवलम्बन - केवलज्ञान अने केवलदर्शननो ओक साथे उपयोग भेदाभेदवादने पण मान्य छे. श्रीमल्लवादीजी, श्रीहरिभद्रसूरिजी, श्रीमलयगिरिजी व. आ ज कारणसर श्रीसिद्धसेनाचार्यने युगपद्वादी गणे छे.
___ पण भेदाभेदवाद युगपद्वादनी जेम केवलज्ञान अने केवलदर्शनने परस्परथी निरपेक्ष स्वतन्त्र उपयोगो नथी गणतो. केम के ओकसाथे प्रवर्तनारा बे स्वतन्त्र उपयोगो ओकसाथे बे स्वतन्त्र बोधने जन्मावे. अने आत्मानी तथास्वभावता ओकसाथे एक ज बोधमां वर्तवानी छे. आ स्वभाव 'सव्वस्स केवलिस्सा जुगवं दो नत्थि उवओगा'मां जणाव्या मुजब केवलि अवस्थामां पण निवृत्त नथी थतो. माटे पूर्वे जणाव्युं तेम भेदाभेदवाद, 'आंखथी जोवानी शक्ति ओक, तज्जन्य जोवानी क्रिया बे आंखनी बे, अने ओ बे क्रियाओथी देखातुं दृश्य पार्छ ओक - अनी जेम, केवलज्ञानशक्ति ओक, ओ शक्तिनां क्रियात्मक स्वरूपो केवलज्ञान अने केवलदर्शन अम बे(के जे परस्पर सापेक्ष छे; केम के जे द्रव्य-पर्यायोने सामान्यपणे केवलदर्शन जुओ छे, ते ज द्रव्य-पर्यायोने विशेषपणे केवलज्ञान जाणे छे), अने ओ उभय क्रियाथी जनमनारो परिपूर्ण केवलबोध अक' अq स्वीकारे छे. मतलब के भेदाभेदवाद केवलज्ञान अने केवलदर्शनने ओक ज केवलबोधना घटकरूपमा अभिन्न गणे छे. अने तेथी ज श्रीअभयदेवसूरिजी के उपाध्याय श्रीयशोविजयजी श्रीसिद्धसेनाचार्यने 'अभेदवादी' तरीके ओळखावे छे. आ रीते विचारीओ तो भेदाभेदवादने अभेदवाद अने युगपद्वाद बन्नेने व्यापीने रहेलो स्वतन्त्र चोथो वाद गणी शकाय. पण ओम गणती वखते ध्यानमा राखवा जेवी वात ओ छे के भेदाभेदवाद युगपद्वादनो विरोधी नथी, कारण के तेनी पोतानी आधारभूमि ज युगपद्वाद छे. जो के सन्मतिटीकामां श्रीअभयदेवसूरिजीओ तेने युगपद्वादना विरोधी तरीके वर्णव्यो छे, तेना द्वारा युगपद्वादनुं खण्डन पण देखाड्युं छे, पण ते योग्य छे के नहीं ते आपणे सन्मतितर्कगत प्रस्तुत विषयने सम्बन्धित चर्चा द्वारा अवलोकीशुं. आ चर्चा दरम्यान आपणे सौप्रथम दरेक गाथानो संक्षेपमा टीकाकार भगवन्ते करेलो अर्थ जोइशुं अने त्यारबाद जरूर जणाशे त्यां ओ अर्थ पर विचार-विमर्श करीशं.
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सन्मतितर्कगत केवलचर्चा (क्रमवाद-भेदाभेदवाद) मणपज्जवणाणतो, णाणस्स य दरिसणस्स य विसेसो ।
केवलणाणं पुण, दंसणं ति णाणं ति य समाणं ॥२.३।। टी. - मनःपर्यवज्ञान सुधी ज (अर्थात् मत्यादि चार ज्ञान अने चक्षुः वगेरे त्रण दर्शनमां) ज्ञान अने दर्शन वच्चे विशेष- विश्लेष-क्रमिकता होय छे. पण जे केवलबोध छे, तदात्मक केवलदर्शन अने केवलज्ञान समानकालीन ज होय छे. जेम सूर्यनो प्रकाश अने ताप साथे ज वरसे छे तेम केवली ज्यारे जाणे छे त्यारे ज जुओ छे (ओवो आचार्यनो अभिप्राय छे).
वि. - केटलाक विवेचको आ गाथाना अर्थमां ओक स्पष्टता करता होय छे के "श्रीसिद्धसेनाचार्य वास्तवमां तो अभेदवादी ज छे, तेथी 'समाणं'नो 'समानकालीन' ओवो अर्थ आपाततः ज समजवो जोइओ. कारण के ओनो साचो अर्थ तो 'केवलज्ञान अने केवलदर्शन ओक ज छे' अवो छे."
पण आपणे उपर जोयुं तेम श्रीसिद्धसेनाचार्य अभेदवादी नहीं, पण भेदाभेदवादी छे. अने भेदाभेदवादमां तो केवलज्ञान अने केवलदर्शन समानकालीन ज छे. तेथी टीकाकार भगवन्ते करेलो अर्थ आपाततः नहीं, पण वास्तविक ज समजवो जोइए.
केइ भणंति ‘जइया जाणइ तइया ण पासइ जिणो' त्ति ।
सुत्तमवलंबमाणा तित्थयरासायणाऽभीरू ॥२.४।। टि. - सूत्रमात्रने वळगी रहेनारा अने तीर्थकरोनी आशातनाथी न डरनारा केटलाक आचार्यो 'ज्यारे केवली जाणे छे त्यारे जोता नथी' (अर्थात् केवली भगवन्तने केवलज्ञान वखते केवलदर्शननो उपयोग होतो नथी.) ओम कहे छे.
वि. - आमां क्रमवादनुं खण्डन करवा माटे क्रमवादीओ, मन्तव्य रजू करवामां आव्युं छे.
केवलणाणावरणक्खयजायं केवलं जहा णाणं ।
तह दंसणं पि जुज्जइ णियआवरणक्खयस्संते ॥२.५।। टी. - केवलज्ञानावरणनो क्षय थाय अटले जेम केवलज्ञान उत्पन्न
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थाय, तेम पोताना आवरणनो क्षय थये छते केवलदर्शन पण उत्पन्न थाय ज.
साथे वर्तवा छतांय बन्ने वच्चे सर्वथा अभेद नथी, कारण के बन्नेना आवरण जुदां हतां. पण कालनी अपेक्षाओ बन्ने वच्चे अभेद छे.
वि. - आ गाथाथी क्रमवादनुं खण्डन प्रारम्भाय छे. टीकाकार भगवन्ते छल्ले जे चोखवट करी छे ते श्रीसिद्धसेनाचार्यने अभेदवादी गणनाराओओ खास लक्ष्यमां लेवाजेवी छे.
भण्णइ खीणावरणे, जह मइणाणं जिणे ण संभवइ । तह खीणावरणिज्जे, विसेसओ दंसणं णत्थि ॥२.६।।
टी. - (पूर्वे जणाव्युं तेम क्रमिकता मत्यादि ज्ञानो साथे नियत छे. माटे) जेम आवरणनो क्षय थाय अटले मतिज्ञान केवलज्ञानीने नथी होतुं, तेम आवरणनी क्षीणता थये छते केवलज्ञानथी पृथग केवलदर्शन पण न होय.
वि. 'भण्णइ'थी कोइक स्पष्टता थई रही छे अवो सङ्केत मळे छे. ते ओ छे के पूर्वेनी गाथामां जणाव्या मुजब स्वावरणनो क्षय थये छते केवलदर्शननी उत्पत्ति थाय ते वात तो क्रमवादीने पण मान्य ज छे. पण ते केवलज्ञानथी केवलदर्शनना उपयोगने भिन्नकालीन गणे छे. ते वात बराबर नथी ते जणाववा भेदाभेदवादी उपरनी गाथा रजू करे छे.
सुत्तम्मि चेव 'साइ अपज्जवसिय'ति केवलं वुत्तं । सुत्तासायणभीरूहि तं च दट्ठव्वयं होइ ॥२.७॥ संतम्मि केवले दंसणम्मि णाणस्स संभवो नत्थि ।
केवलणाणम्मि य दंसणस्स तम्हा सणिहणाइं ॥२.८।। टी. - आगममां ज केवलने (अर्थात् केवलज्ञान अने केवलदर्शनने) सादि-अनन्त कहेवामां आव्युं छे. माटे सूत्रनी आशातनाथी डरनारा (क्रमवादी) आचार्योओ ते पण ध्यान पर लेवा जेतुं छे. (कारण के क्रमवादमां तो) केवलदर्शन वखते केवलज्ञाननो सम्भव नथी अने केवलज्ञान वखते केवलदर्शननो सम्भव नथी. माटे बन्ने सान्त बने छे. (अर्थात् आ रीते क्रमवादमां पण केवलज्ञान-दर्शननी अनन्तता प्रतिपादित करनारा सूत्र साथे विरोध ज आवे
छे.)
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२.
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३.
णवतिमां अनुक्रमे २२४ अने २४८ क्रमाङ्के जोवा मळे छे.
वि. आ बन्ने गाथाओमां दर्शावेलो भाव धरावती गाथाओ विशेष
1
दंसणणाणावरणक्खए समाणम्मि कस्स पुव्वअरं । होज्ज समं उप्पाओ हंदि दुए णत्थि उवओगा ॥२.९॥
वि.
टी. - दर्शनावरण अने ज्ञानावरण बन्नेनो क्षय समानकालीन होवाथी कोनो पहेलां उत्पाद मानशो ? ( मतलब के पहेलां केवलज्ञान प्रगटे के केवलदर्शन ? तेमां कोई नियामक नथी. माटे) बन्नेनो साथे उत्पाद थाय छे ओम मानवुं जोइओ. (आम युगपद्वादीओ कहे छते अभेदवादी आचार्य स्वमन्तव्य दर्शावतां कहे छे के) पण ओक साथे बे उपयोग होता नथी. टीकाकार भगवन्तना मते आ गाथाथी सिद्धसेन दिवाकरजीना स्वपक्ष अभेदवाद(-भेदाभेदवाद) नी स्थापना थई छे. अर्थात् अत्यार सुधी आचार्ये युगपद्वादनुं अवलम्बन लइने क्रमवादनुं खण्डन कर्तुं अने हवे तेओ स्वपक्ष तरीके भेदाभेदवाद स्थापी क्रमवाद - युगपवाद बन्नेनुं ओकसाथे खण्डन करे छे. टीकाकार भगवन्तनी आ मान्यतानो आधार "हंदि दुए णत्थि उवओगा'' अ पङ्क्ति छे के जे भेदाभेदवादी आचार्य तरफथी बोलाती होवानुं तेओओ दर्शाव्युं छे. आ परत्वे केटलीक समस्याओ
१.
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-
हजु आचार्ये स्वसम्मत पक्ष तरीके भेदाभेदवादनी स्थापना ज न करी होय, भेदाभेदवादनुं मन्तव्य ज समजाव्युं न होय अने ओक गाथानी चोथी लीटीमां भेदाभेदवादने पकडी युगपद्वादनुं खण्डन अचानक ज चालु करी दे ओम बनवुं शक्य खरुं ?
आचार्ये अत्यार सुधी युगपद्वादनुं अवलम्बन क्रमवादना खण्डन माटे लीधुं अवुं आनुं तात्पर्य समजाय. परन्तु क्रमवादनुं खण्डन जे दलीलोथी अत्यार सुधी युगपद्वादे कर्तुं छे, ते सघळी दलीलो भेदाभेदवाद तरफथी पण प्रयोजवी शक्य हती ज. छतां पण आचार्य प्रथमथी ज भेदाभेदवाद न प्ररूपे अने युगपद्वादने मान्य करे ते विचारणीय नथी ? युगपवाद केवलज्ञान अने केवलदर्शनने समानकालीन स्वतन्त्र उपयोगो माने छे. ज्यारे भेदाभेदवाद से बन्नेने स्वतन्त्र उपयोगो नथी गणतो, पण
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ओक ज उपयोगनां परस्पर भिन्न बे स्वरूप समजे छे. महत्त्वनी वात ओ छे के केवलज्ञान अने केवलदर्शनने स्वतन्त्र उपयोगो गणो के ओक ज उपयोगनां परस्पर भिन्न बे स्वरूप समजो, बन्नेनी परस्पर जे विलक्षणता छे ते तो नाबूद थती ज नथी. हवे, भेदाभेदवाद तरफथी युगपद्वादना खण्डनमा जे दलीलो श्रीअभयदेवसूरिजी रजू करे छे, तेनो मुख्यप्रहार केवलज्ञान-दर्शननी भिन्नता पर छे (सन्मति० २.१०-२.१४ विवरण) तो स्वयं भेदाभेदवाद जे भिन्नताने मान्य राखे छे, ते ज भिन्नताने लक्ष्य बनावी ए युगपद्वादनुं खण्डन करी शके खरो ? भेदाभेदवादमां आ भिन्नता कथञ्चिद् छे अने युगपद्वादमां औकान्तिक छे, ओवी भेदरेखा पण बन्ने वच्चे दोरी न शकाय. केम के युगपद्वाद पण केवलज्ञान अने केवलदर्शनने प्रमातृतः (बन्नेनो स्वामी आत्मा ओक ज छे ओ रीते), कालतः अने शक्तितः ओक गणे ज छे. माटे तेने
स्वीकारेली बन्ने वच्चेनी भिन्नता पण भेदाभेदवादनी जेम कथञ्चित् ज छे. ४. आचार्य प्रस्तुत समग्र केवलचर्चाने अन्ते जे निष्कर्ष बतावे छे
"साइ अपज्जवसियं ति दो वि ते ससमयओ हवइ एवं ।
परतित्थियवत्तव्वं च एगसमयंतरुप्पाओ' ॥२.३१॥ । तेमां पण युगपद्वादपरक ज निष्कर्ष देखाड्यो छे अने क्रमवादने ज परमत गण्यो छे, युगपद्वादने नहीं. तो जो आचार्य चर्चानी शरूआतमां युगपद्वादनो परपक्ष तरीके निर्देश न करतां होय, अन्ते युगपद्वादपरक ज निष्कर्ष दर्शावतां होय, चर्चा दरम्यान पण युगपद्वादनुं नामग्रहणपूर्वक साक्षात् खण्डन न करतां होय, तो शा माटे युगपद्वादनी ज भूमि पर उछरेला तेमना मन्तव्यने युगपद्वादनुं विरोधी गणवू जोइओ ? ५. आपने जोइ| तेम हवे पछीनी गाथाओमां पण साक्षात् क्रमवादनुं ज
खण्डन छे. तेने युगपद्वादना खण्डनपरक बनाववा टीकाकार भगवन्तने जे शाब्दिक खेंचताण अने परिश्रम करवा पडे छे ते पण ध्यानपात्र छे.
आ समस्याओने ध्यानमां लेता वास्तवमा 'हंदि दुवे णत्थि उवओगा' ओ पङ्क्ति, युगपद्वाद(-भेदाभेदवाद)-क्रमवादनी चाली रहेली चर्चामां क्रमवादी
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तरफथी ज मूकाई छे ओम समजाय छे. कारण के शरूआतमां स्वपक्षनुं स्थापन युगपद्वादना परिष्कृत स्वरूप भेदाभेदवाद परक ज थयुं छे. "केवलणाणं पुण दंसणं ति णाणं ति य समाणं" कहीने (२.३) त्यां ज आचार्ये भेदाभेदवादनो उपन्यास करी दीधो छे. माटे आ गाथामां अचानक युगपद्वादना विरोधी तरीके भेदाभेदवादनो प्रवेश मानवानी जरूर नथी जणाती.
__ हवे पछीनी गाथाओमां आचार्य बन्ने उपयोगर्नु सह-अस्तित्व सिद्ध करवा प्रयत्न करे छे ते पण अत्रे ध्यानार्ह छे.
जइ सव्वं सायारं जाणइ एक्कसमएण सव्वण्णू ।
जुज्जइ सयावि एवं अहवा सव्वं न याणाइ ॥२.१०॥ टी. - (सामान्य अने विशेष परस्पर अव्यतिरिक्त होवाथी अने केवलज्ञान सामान्य-विशेष उभयात्मक वस्तुना अवबोधरूप होवाथी) केवली भगवन्त जो अकसमयमां बधी ज वस्तुओने विशेषपणे (जाणता छतां तदात्मक सामान्यने त्यारे ज जुओ छे अथवा तो ते सामान्यने जोता छतां तेनाथी अव्यतिरिक्त अवा विशेषोने त्यारे ज) जाणे छे; तो ज (तेओनुं सर्वज्ञत्व अने सर्वदर्शित्व) सदाकाल माटे योग्य जणाय छे.
अथवा -(ओकला सामान्यने जोनाएं केवलदर्शन अने ओकला विशेषोने जाणनारुं केवलज्ञान असत् बनवाथी क्रमवाद के युगपद्वादमां केवली) सर्व नथी जाणता.
वि. - आ गाथानो युगपद्वादना खण्डनपरक अर्थ करवा माटे जे उमरण करवू पडे छे अने शब्दोना अर्थने जे हदे बदलवा पडे छे ते जोतां आ गाथानो आवो अर्थ न होई शके ते स्वयं समजाय तेवू छे, माटे ते परत्वे झाझी टिप्पणी आवश्यक नथी.
वास्तवमां आ युगपद्वादी (-भेदभेदवादी) तरफथी क्रमवाद सामे करवामां आवती सरळ दलील छे के जो केवली ओक समयमां बधी ज वस्तुओने साकारपणे जाणे छे, तो कायम माटे जाणशे ज. (कारण के पहेली क्षणे प्रवर्तेलो साकार उपयोग बीजी क्षणे न प्रवर्ते ते माटे कोई प्रतिबन्धक तो छ ज नहीं) अथवा वगर प्रतिबन्धके पण तेनो अभाव मानशो तो ते बधुं
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नथी जाणता ओम ज सिद्ध थशे. कारण के नियम छे के जेतुं कारण नथी ते कार्य कां तो कायम होय ज कां तो कायम न ज होय.
युगपद्वाद तरफथी थती प्रस्तुत दलील शब्दान्तरे श्रीनन्दिसूत्रनी हारिभद्रीय टीकामां पण मळे छे.
"अकारणमेव अन्यतरोपयोगकालेऽन्यतरस्याऽऽवरणं, तथा च सति सर्वदैव भावाभावप्रसङ्गस्तथा चोक्तम् -
"नित्यं सत्त्वमसत्त्वं वा हेतोरन्यानपेक्षणात् । अपेक्षातो हि भावानां कादाचित्कत्वसम्भवः ॥” इति ।"
___(उद्धृत वि.ण. २२५नी टीका) परिसुद्धं सायारं अवियत्तं दंसणं अणायारं ।
ण य खीणावरणिज्जे जुज्जइ सुवियत्तमवियत्तं ॥२.११॥ टी. - साकार- विशेषग्राही ज्ञान व्यक्त होय छे अने अनाकारसामान्यग्राही दर्शन तो अव्यक्त होय छे. हवे जेनां आवरण क्षीण थई गया छे ओवा अर्हत्ने व्यक्त शुं ? अने अव्यक्त शुं? (माटे सामान्य-विशेष उभयात्मक ज्ञेयने विषय बनावनारो ओक ज केवलबोध स्वीकारवो जोइओ.)
वि. – वि.ण. २१९-२२०मां क्रमवाद सामे रजू थयेल आ प्रकारना तर्कनो जवाब श्रीजिनभद्रगणिजे केवलदर्शननी व्यक्तता सिद्ध करीने आप्यो छे.२७
अदिटुं अण्णायं च केवली एव भासइ सया वि । __एगसमयम्मि हंदी वयणवियप्पो न संभवइ ॥२.१२॥ ___टी. - (युगपद्वादमां बे उपयोग परस्पर स्वतन्त्र होवाथी जे जोडे छे ते जणायुं नथी अने जणायुं छे ते देखायुं नथी. ज्यारे क्रमवादमां जाणवाना समये जोता नथी अने जोवाना समये जाणता नथी. माटे ओ बन्ने मते) केवली भगवन्त ज्यारे बोले छे, त्यारे कां तो जाणेलुं नहीं होय, कां तो जोयेलुं नहीं होय. (अने तेथी बन्ने मते) अकसमयमां (जोयेलुं अने जाणेलं केवली बोले छे अर्बु) विशिष्टवचन अनुपपन्न थशे.
वि. - आ गाथाना टीकागत अर्थ परत्वे केटलीक समस्याओ -
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१. टीकाकार भगवन्ते युगपद्वाद प्रत्ये दर्शावेली आपत्ति, जो अ ज रीते
विचारीओ तो, भेदाभेदवादमां पण लागु पडे तेम छे. केम के तेमां पण जोवू अने जाणवू स्वरूपतः क्रियारूपे तो भिन्न ज छे, बन्नेना विषयो पण परस्पर पृथग् ज छे. अने जो त्यां कथञ्चिद्अभिन्नता स्वीकारी आ आपत्तिनुं निराकरण शक्य होय, तो ओ रीते कथञ्चिअभिन्नता युगपद्वादमां पण शक्य छे ज. 'हंदी'नो अर्थ ज नथी को. आ अव्यय कोइक वातनो प्रतिवाद थई रह्यो छे ओ वातनो सूचक छे. टीकाकार भगवन्ते स्वयं २.९ना अर्थमां ओने ओ रीते दर्शाव्यो छे. माटे ओ रीते जोईओ तो अत्रे उत्तरार्धमां पूर्वार्धनो जवाब छे. पण टीकाकर भगवन्ते अत्रे अने ध्यान पर ज नथी
लीधो. उपरथी उत्तरार्धना विधानना हेतुरूपे पूर्वार्धना विधानने देखाड्युं छे. ३. ‘एगसमयम्मि वयणवियप्पो न संभवइ'नो अर्थ 'अकसमयमां जोयेलुं अने
जाणेलं केवली बोले छे अq वचनविशेष नथी घटतुं.' अवो करवो
क्लिष्ट लागे छे. ४. 'अकसमयमां जोयेलुं अने जाणेलं केवली बोले छे' अर्बु शास्त्रवचन पण
मळवू मुश्केल छे, जेनी अनुपपत्तिनो दोष आपी शकाय.
तेथी समग्रपणे विचारतां चाली रहेली युगपद्वाद (-भेदाभेदवाद)क्रमवादनी चर्चा मुजब आ गाथानो आवो अर्थ करवो युक्तिसङ्गत लागे छे :
पूर्वार्ध - (युगपद्वादी क्रमवादीने) तमारा मते जोवू अने जाणवू ओकसाथे होतुं नथी. तेथी तमारा मते केवली भगवन्त कायम माटे जे पण बोलशे ते कां तो जाणेलं नहीं होय कां तो जोयेलुं नहीं होय. माटे केवली जोया अने जाण्या वगर ज बोले छे ओवी आपत्ति तमारा मतमां आवशे.
उत्तरार्ध - (क्रमवादी युगपद्वादीने) तमे दर्शावेली आपत्ति तो साची ठरत के जो वचनविकल्प अक समयमा सम्भवतो होत. कारण के अक समयमां ओक ज उपयोग अमने मान्य होवाथी ते समयमां बोलाता वचननी विषयभूत वस्तु जोया के जाण्या वगरनी होई शकत. परन्तु वचननो उद्भव अन्तर्मुहूर्तमां थाय छे. अने अन्तमुहूर्तमां तो केवलज्ञान अने केवलदर्शन बन्ने
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सम्भवता होवाथी, न जोयेलुं अने न जाणेलुं बोलवानी आपत्ति रहेती नथी. स्वपक्षनी नबळी दलीलोनुं परपक्ष द्वारा करायेलुं मान्य खण्डन देखाडवुं ঔ वैचारिक उदारता छे. अने महामना आचार्य भगवन्ते अत्रे ओ ज उदारता दर्शावी होय तेम लागे छे. वि. भाष्य के वि.ण.मां आ दलील युगपद्वादना खण्डन दरम्यान देखाती नथी, ते पण जणावे छे के आ दलीलनो जवाब क्रमवाद तरफथी अत्रे ज अपाई गयो होवाथी तेनो पुनः उल्लेख जरूरी नहीं बन्यो होय.
अण्णायं पासंतो अट्टिं च अरहा वियाणंतो ।
किं जाणइ ? किं पासइ ? कह सव्वण्णु त्ति वा होइ ? ॥२.१३॥ टि. - जो केवली भगवन्त न जाणेलुं देखे छे अने न जोयेलुं जाणे छे, तो तेओ वास्तवमां शुं जाणे छे ? शुं देखे छे ? अने तेओ सर्वज्ञ पण कई रीते बनशे ?
वि.
प्रस्तुत भावने मळती गाथा वि.ण. मां २४६मा क्रमाङ्के जोवा
मळे छे.
-
केवलणाणमणतं जहेव तह दंसणं पि पण्णत्तं । सागारग्गहणाहि य णियमपरित्तं अणागारं ॥२.१४ ॥
टी. केवलज्ञान जेम अनन्त छे तेम केवलदर्शनने पण अनन्त
जणाववामां आव्युं छे. तथा साकार विशेषोना ग्राहक ज्ञान करतां तो अनाकारसामान्यमात्रने विषय बनावनाएं केवलदर्शन अवश्य परिमित विषयनुं ग्राहक बने छे. तेथी जो केवलदर्शन केवलज्ञानथी भिन्न होय तो तेमां केवलज्ञानथी तुल्य अनन्तता कई रीते आवे ? माटे बन्नेने अभिन्न गणवां जोइओ.
-
युगपद्वादी टीकाकार भगवन्त 'णियमऽपरित्तं' अवो पाठ स्वीकारे छे अने अर्थ पण ओवो करे छे के साकार- विशेषोमां रहेलुं जे सामान्य तेना ग्रहणनो नियम होवाने लीधे केवलदर्शन पण अपरिमित बने छे. २८ (अर्थात् तमाम विशेषोमां सामान्य रहेलुं ज होय छे. तेथी सामान्य पण विशेषोनी जेम अनन्त ज थवानुं. तो ते सामान्यनुं ग्राहक केवलदर्शन परिमित कई रीते बने ? )
वि. आ गाथानो युगपद्वादपरक अर्थ करवो त्यारे ज शक्य बने
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के आगळ-पाछळनी गाथाओने युगपवादमां फलित करवामां आवी होय. प्रश्न ओ छे के जो आ गाथाओ युगपवादनी पण प्ररूपक बनती होय तो युगपद्वादने आचार्यना मन्तव्यथी विरोधी कई रीते गणी शकाय ?
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वळी, टीकाकार भगवन्त भेदाभेदवादमां केवलदर्शनने केवलज्ञानथी अभिन्न बनावीने तेमां अनन्ततानी सङ्गति करे छे, ते वात पण विचारणीय छे. केम के आ रीते तो केवलदर्शनगत अनन्तता औपचारिक ज थशे. अने बदले युगपद्वादी टीकाकार भगवन्ते घटावेली अनन्तता वधु युक्तिसङ्गत लागे छे. अने श्रीसिद्धसेनाचार्यना भेदाभेदवादमां पण अ ज रीते घटी शके छे.
भण्णइ जह चउनाणी जुज्जइ णियमा तहेव एयं पि । भण्णइ ण पंचणाणी जहेव अरहा तहेयं पि ॥ २.१५ ॥
टी. - (क्रमवादी ) जेम चार ज्ञानोनो उपयोग अकसाथे न होवा छतां छद्मस्थने चतुर्ज्ञानी कहेवामां आवे छे, तेम केवलज्ञान अने केवलदर्शननो ओकसाथे उपयोग न होवा छतां, केवलीने सर्वज्ञ अने सर्वदर्शी कहेवामां आव्या होय तेम न बने ?
मळे छे.
(भेदाभेदवादी-) केवलीने केवलज्ञाननी जेम मत्यादि ४ ज्ञानोनां पण आवरणनो क्षय होवा छतां अ ४ ज्ञानोनो पृथक् उपयोग न होवाथी जेम तेमने ‘पञ्चज्ञानी' नथी कहेवामां आवता; तेम केवलज्ञान अने केवलदर्शननो उपयोग क्रमवादमां अकसाथे न होवाथी, तेमने 'सर्वज्ञ - सर्वदर्शी' पण न कहेवाय. भेदाभेदवादमां तो बन्ने उपयोग अकसाथे प्रवर्तता होवाथी केवलीने 'सर्वज्ञसर्वदर्शी' गणी ज शकाय छे.
वि. - वि.ण.मां २४७मा क्रमाङ्के प्रस्तुत भावने जणावती गाथा जोवा
पण्णवणिज्जा भावा समत्तसुयनाणदंसणाविसओ । ओहिमणपज्जवाण उ अण्णोण्णविलक्खणा विसओ ॥२.१६ ॥
तम्हा चउव्विभागो जुज्जइ, ण उ णाणदंसणजिणाणं । सयलमणावरणमणंतमक्खयं केवलं जम्हा ॥२.१७॥
टी. - प्रज्ञापनीय भावो मतिज्ञान, श्रुतज्ञान अने दर्शनोना विषयभूत
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छे. अने ओ ज रीते अवधिज्ञान-मनःपर्यवज्ञान पण परस्पर विलक्षण विषयक होय छे. माटे ओ चारनो विभाग (-कालभेद) युक्त थाय छे. पण केवलज्ञान अने केवलदर्शननो कालभेद युक्त थतो नथी. कारण के केवलबोध सकलविषयक, आवरणथी रहित, अनन्त अने अक्षय होय छे.
परवत्तव्वयपक्खाअविसिट्ठा तेसु तेसु सुत्तेसु ।
अत्थगईअ उ तेसि वियंजणं जाणओ कुणइ ॥२.१८॥ ___टी. - परदर्शनोना अभ्युपगमथी अविशिष्ट (-सरखं ज) प्रतिपादन ते ते सूत्रोमां मळे छे. माटे अर्थानुसारे ज जाणकार व्यक्तिले अनी व्याख्या करवी जोइओ.
वि. - "केवली जं समयं पासइ णो तं समयं जाणइ" जेवां सूत्रोने क्रमवादीओ युगपद्वाद के भेदाभेदवादना खण्डन माटे प्रयोजे छे. तेना जवाबमां भेदाभेदवादीओ तरफथी आ कहेवायुं छे. तेओ आ सूत्रमा 'केवली'नो अर्थ श्रुतकेवली, अवधिकेवली व. करे छे. अने अम करीने भेदाभेदवादना आ सूत्र साथेना विरोधनो परिहार करे छे. वि.ण. २६७मां जिनभद्रगणिजे आ दलीलने बहु सचोट रीते रदियो आप्यो छे.
___ सन्मतितर्कगत भेदाभेदवाद-क्रमवादनी चर्चा अत्रे सम्पूर्ण थाय छे. हवे आपणे सन्मति २.१९ थी प्रारम्भाती भेदाभेदवाद-अभेदवादनी चर्चा जोइशुं. सन्मतिगत भेदाभेदवाद-अभेदवाद( -दर्शनसमुच्छेदवाद)नी चर्चा
___ अभेदवादी - केवलज्ञान अने केवलदर्शन जो अक ज उपयोगमां अन्तर्भाव पामे छे, तो ओ उपयोगने मनःपर्यवज्ञाननी जेम 'केवलज्ञान' रूपे ज केम नथी ओळखावता? केवलज्ञान अने केवलदर्शन अम बे नाम केम आपो छो ? भेदाभेदवादी
जेण मणोविसयगणाय दंसणं णत्थि दव्वजायाण ।
तो मणपज्जवणाणं णियमा णाणं तु णिद्दिढें ॥२.१९॥
टी. - मनःपर्यवज्ञानना विषयभूत द्रव्योने मनःपर्यवज्ञानशक्तिथी जाणी शकाय छे, पण जोई शकाता नथी. तेथी मनःपर्यवनो ज्ञानात्मक उपयोग ज
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शास्त्रोमां देखाड्यो छे. (मनःपर्यवदर्शन होतुं नथी. परन्तु केवलबोधमां तो आवं नथी. तेनाथी तो सर्व द्रव्य-पर्यायोने जाणी पण शकाय छे अने जोई पण शकाय छे. तेथी केवलज्ञान अने केवलदर्शन अम तेना माटे अलग-अलग निर्देशो छे.)
चक्खुअचक्खुअवहिकेवलाण समयम्मि दंसणविअप्पा ।
परिपढिया केवलणाणदसणा तेण ते अण्णा ॥२.२०॥ टी. - सिद्धान्तमां चक्षु, अचक्षु, अवधि अने केवल - ओम चार प्रकारनां दर्शनो जणाववामां आव्यां छे. तेथी पण केवलदर्शनने केवलज्ञानथी अलग गणवू जोइओ.
अभेदवादीदसणमोग्गहमेत्तं घडो त्ति णिव्वण्णणा हवइ नाणं ।
जह एत्थ केवलाण वि विसेसणं एत्तियं चेव ॥२.२१॥
टी. - ('कंइक छे' अवो) अवग्रहमात्र दर्शन छे अने ‘आ घडो छे' ओवो निश्चय ते ज्ञान छे. जेम आ बन्ने वच्चे फक्त ओळखाणनो तफावत छे, वास्तवमां तो बन्ने अेक ज छे, तेम केवलज्ञान-केवलदर्शन वच्चे पण मात्र नामनो ज तफावत छे, वास्तविक नहीं...
वि. – टीकामां तो आने स्वमतनी ज गाथा गणी छे. पण आगळनी २.२३ गाथामां आ वातनुं खण्डन होवाथी अने दिवाकरजीना स्वमतमां बे उपयोगो वच्चेनी भिन्नता फक्त नामनी भिन्नता पूरती सीमित न होवाथी अत्रे आने परमतनी गाथा गणी छे. वि.ण. २१२मां पण सर्वथा अभेदवादीओ तरफथी ज आवी दलील रजू थई छे.
दंसणपुव्वं णाणं णाणणिमित्तं तु दंसणं णत्थि । तेण सुविणिच्छियामो दंसणणाणाण अण्णत्तं ॥२.२२॥
टि. - दर्शनपूर्वक ज्ञान होई शके छे, परन्तु ज्ञानपूर्वक दर्शन होतुं नथी. तेथी पण जणाय छे के ते बन्ने वच्चे कथञ्चित् भेद छे. (आ क्रम क्षयोपशममूलक छे, माटे केवलीमां क्षयोपशम न होवाथी क्रम पण नथी होतो.)
वि. – टीकाकार भगवन्त आ गाथाने दिवाकरजीना स्वपक्षनी समजे
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छे अने तेथी अत्रे कथञ्चित् भेदनी सिद्धि करे छे. पण वास्तवमां आ पूर्वपक्षअभेदवाद तरफथी थयेली रजूआत छे. उपाध्यायजी भगवन्ते ज्ञानबिन्दुमां जणाव्युं छे के९ जो आ गाथानुं ध्येय ज्ञान - दर्शननो भेद सिद्ध करवानुं ज होत तो “दंसणपुव्वं णाणं” अटलुं ज कहेवुं पर्याप्त हतुं. " णाणनिमित्तं तु दंसणं णत्थि" ओवुं कहेवानी जरूर न हती. माटे अत्रे " दंसणणाणा ण अण्णत्तं (भजंते)" आवो पाठ मानवो जोईओ अने ओवो अर्थ करवो जोइओ के “दर्शनपूर्वक ज्ञान होय छे, पण ज्ञानपूर्वक दर्शन होतुं नथी. (हवे क्रमवादमां तो केवलज्ञान पछी केवलदर्शन मान्य छे. अने तेम बनवुं तो असम्भवित छे.) तेथी अमे नक्की करीओ छीओ के केवलज्ञान अने केवलदर्शन वच्चे अभेद ज छे. "
आम सर्वथा-अभेदवादनुं मन्तव्य दर्शाव्या पछी अ मतनुं खण्डन करवा माटे आचार्य, 'अवग्रहमात्र दर्शन छे' ओवा केवलज्ञान - दर्शननो अभेद सिद्ध करवा माटे अपायेला दृष्टान्तने अयोग्य ठरावतां जणावे छे के
जइ ओग्गहमेत्तं दंसणं ति मण्णसि विसेसिअं णाणं । मइणाणमेव दंसणमेवं सइ होइ निप्फण्णं ॥२.२३॥
एवं सेसिंदियदंसणम्मि नियमेण होइ ण य जुत्तं (णयजुत्तं ?) । अह तत्थ णाणमेत्तं घेप्पइ चक्खुम्मि वि तहेव ॥२.२४॥
टी. - जो मतिज्ञाननो अवग्रह तबक्को दर्शन होय अने विशिष्टातायुक्त निश्चय ते ज्ञान होय तो 'मतिज्ञान अ ज दर्शन छे.' ओवुं आना परथी साबित थाय. तो जेम चाक्षुष मतिज्ञाननो अवग्रह तबक्को 'चक्षुर्दर्शन' अने शेष तबक्का 'चाक्षुषज्ञान' कहेवाय छे. तेम शेष इन्द्रियोमां पण अवग्रह तबक्कानो 'श्रोत्रदर्शन', ‘घ्राणदर्शन' व. व्यवहार थवो जोइओ. पण अवुं तो थतुं नथी. अने जो त्यां श्रोत्रज्ञान, घ्राणज्ञान व. ज व्यवहार थतो होय, तो चाक्षुषमतिज्ञानमां पण अम केम नथी करता ? त्यां अवग्रहने शा माटे 'चक्षुर्दर्शन' ओवी अलग ओळखाण आपवामां आवे छे ?
वि. दिवाकरजीना कथननो सार से छे के अवग्रह अ ज दर्शन नथी. पण हवे जणावाशे तेवो जुदा प्रकारनो बोध ज दर्शन छे. अने तेथी
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दर्शन-ज्ञाननो सर्वथा अभेद असिद्ध थाय छे.
णाणं अपुढे अविसए य अत्थम्मि दंसणं होइ ।
मोत्तूण लिंगओ जं अणागयाईयविसएसु ॥२.२५।। ३०
टी. - अतीत-अनागत पदार्थोनुं लिङ्गना बळे थतुं जे अनुमान, तेना सिवायनो, अस्पृष्ट अने अविषयभूत पदार्थोमां प्रवर्तनारो बोध ज 'दर्शन' कहेवाय छे. अने तेथी
जं अप्पुढे भावे जाणइ पासइ य केवली नियमा ।
तम्हा तं णाणं दंसणं च अविसेसओ सिद्धं ॥२.३०॥ टी. - केवली अस्पृष्ट भावोने अवश्य जाणता अने जोता होवाथी, तेमनो ते केवलबोध 'ज्ञान' अने 'दर्शन' उभयरूपे अविशेषपणे- सरखी ज रीते सिद्ध थाय छे.
सन्मतितर्कगत केवल ज्ञान-दर्शनने लगती चर्चा अत्रे सम्पूर्ण थाय छे. अने तेनी साथे सिद्धसेन दिवाकरजीना केवलज्ञान-दर्शन विशेना मन्तव्य अंगेनी आपणी विचारणा पण आटोपाय छे. परन्तु ते आटोपता पूर्वे समग्र चर्चाना निष्कर्षो जोइ लइओ : १. दिवाकरजीना मन्तव्य अनुसार केवलज्ञान अने केवलदर्शन, ओक ज
बोधनां समानकालीन, बे क्रियात्मक स्वरूपो छे. २. आ स्वरूपो स्वरूपतः परस्पर भिन्न छे. पण कालतः, शक्तितः, बोधतः,
प्रमातृतः व. रीते कथञ्चिद् अभिन्न छे. माटे बन्ने वच्चे भेदाभेद समजवो जोइओ अq तेओनुं मन्तव्य छे. माटे सिद्धसेनाचार्यना मन्तव्यने आपणे समजण पूरतुं 'भेदाभेदवाद' अq नाम आपी शकीओ. आ भेदाभेदवाद युगपद्वादनो विरोधी नथी. पण युगपद्वादनुं ज परिष्कृत स्वरूप छे, तेथी क्रमवाद, युगपद्वाद अने अभेदवाद - ओ त्रण मुख्य वादोमां जो तेमनुं मन्तव्य समावq होय तो युगपद्वादमां ज समावी शकाय. आ अर्थमां तेओ 'युगपद्वादी' छे.
३ .
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४. सन्मतिटीकाकार श्रीअभयदेवसूरिजीओ दिवाकरजीना मन्तव्यने युग
पद्वादथी जुदुं पाडवा 'अभेदवाद' अq नाम आप्युं छे. आ रीते श्रीसिद्धसेनाचार्य अभेदवादी छे. परन्तु वि.भाष्य के विशेष-णवतिमां वर्णित अभेदवाद तो तेओने मान्य नथी ज; ओ अभेदवाद तो केवलदर्शन मानवानो ज निषेध करे छे अथवा तेनुं केवलज्ञान साथे सर्वथा औक्य स्वीकारे छे. ज्यारे सिद्धसेनाचार्य बन्नेने अक ज बोधनी अन्तर्गत गणी बन्नेने कथञ्चिद् अभिन्न गणे छे. फरी वार, श्रीअभयदेवसूरिजीओ दिवाकरजीना मन्तव्य करीके जणावेलो भेदाभेदात्मक 'अभेदवाद' अने वि.ण.मां वर्णित त्रण मुख्य वादोमांनो दर्शनसमुच्छेदात्मक 'अभेदवाद'
बन्ने एक नथी. ५. केवलज्ञान अने केवलदर्शनमां औकान्तिक भेद के अभेद मानवामां
अनेक दोषो छे. पण दिवाकरजीओ दर्शावेली रीते जो बन्ने वच्चे भेदाभेद स्वीकारीओ तो सर्वथा सङ्गति सर्जाय छे. 'स्याद्वादो विजयतेतराम्'. वळी, सामान्यग्राहक केवलदर्शन अने विशेषग्राहक केवलज्ञानने पोतानामा समावी लेनारो ओक केवलबोध ज परिपूर्ण वस्तुनो ग्राहक बनी शके छे, स्वतन्त्र बे उपयोगो नहीं. अने आ रीते बेने ओक ज उपयोगमा समाविष्ट करी दइओ तो 'जुगवं दो नत्थि उवओगा' ओ शास्त्रवचननी असङ्गति पण दिवाकरजीना मतमां नथी रहेती. वास्तवमां दिवाकरजी- मन्तव्य केवलचर्चामां अन्तिमबिन्दु गणी शकाय तेटलुं तर्कपूत छे.
श्रीसिद्धसेन दिवाकरजीना केवलबोध अंगेना मन्तव्य विशे केटलांक नवां ज दृष्टिबिन्दुओ अत्रे रजू कर्यां छे, ते बधां साचां ज छे ओवो आ लखनारनो दावो नथी. ओक अल्पज्ञ जीवनो ओवो दावो होई शके पण नहीं. प्रचलित मान्यता करतां श्रीसिद्धसेनाचार्य- मन्तव्य भिन्न होवानी दृढ प्रतीति तेमज शास्त्रबल अने तर्कबल बन्ने रीते निर्बल अभेदवादने, दिवाकरजीना माथे थापी देवामां, तेमने अन्याय थतो होवानी समजणे ऊहापोह करवा प्रेर्यो छे. बहुश्रुत भगवन्तोने नम्र विनन्ति के आ विचारधारामां जो क्षति जणाय तो अवश्य सुधारे तथा सूचवे.
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बालस्य यथा वचनं, काहलमपि शोभते पितृसकाशे । तद्वत् सज्जनमध्ये, प्रलपितमपि सिद्धिमुपयाति ॥
(प्रशमरति - ११)
टिप्पणी १. सम्यक्त्वीनुं ज्ञान ते ज्ञान अने मिथ्यात्वीनुं ज्ञान ते अज्ञान - आवी जैन
प्रमाणशास्त्रीय व्यवस्था अनुसार आ अर्थ थाय छे. २. जैन-प्रमाणशास्त्रीय परिभाषा अनुसार 'उपयोग' शब्द पण ओक करतां वधु अर्थ
धरावे छे : १) शक्तिने क्रियात्मक स्वरूपे प्रयोजवी. जेमके मतिज्ञानशक्तिजन्य ४ विलक्षण क्रियाओ छे - मतिज्ञानसाकारोपयोग, मत्यज्ञानसाकारोपयोग, चक्षुदर्शननिराकारोपयोग, अचक्षुदर्शननिराकारोपयोग. आ अर्थ वखते उपयोगशब्द बोधक्रियाओ अने अवलोकनक्रियाओ दर्शावतो होवाथी ज्ञान अने दर्शन शब्दनो पर्यायवाची बने छे. २) ज्ञान (-बोधक्रिया) अने दर्शन (-अवलोकनक्रिया) आत्माना मूलभूत गुणो छे. तेथी आत्मामां हरहमेश बोधक्रियाओ अने अवलोकनक्रियाओ प्रवर्तमान ज होय छे. (जेनो कोई ने कोई पर्याय द्रव्यमां सदाकाल विद्यमान न रहेतो होय, ते मूळभूत गुण न गणाय.) ध्यानमा राखवा जेवी बाबत ओ छे के आत्मा सभानपणे तो ते बे के तेथी वधु क्रियाओमांथी कोईपण ओकमां ज व्याप्त होय छे. (अटले तो आपणने ध्यान बीजे होय तो कानमां अवाज पेसवा छतां संभळातुं नथी.) आ सभानता त्यारे ज जन्मे छे के ज्यारे आत्मा बोधक्रिया के अवलोकनक्रियामां तन्मय थई तथाप्रकारनी परिणतिने पामे छे. आ आत्मिक परिणति के तज्जन्य जागृति ज 'उपयोग' तरीके ओळखाय छे.
"जुगवं दो नत्थि उवओगा" जेवा स्थळे उपयोग-शब्द आवो ज भाव धरावे छे. ३. आ त्रणे वादोनी चर्चाने सम्बन्धित तमाम साहित्यनी सूची माटे जुओ -
'उपयोगवादनुं समग्र साहित्य' - ले. श्रीहीरालाल रसिकदास कापडिया, जैन
सत्यप्रकाश - वर्ष ९, अङ्क ८, पृष्ठ ३८६-३८८ ४. वस्तुगत सामान्यनुं ग्राहक ते दर्शन अने वस्तुगत अनन्तानन्त विशेषोनुं ग्राहक
ते ज्ञान - आवी मान्यता पर आधारित आ तर्क छे. आ मान्यतानी चकासणी
माटे जुओ - 'दर्शन विशे विचारणा' - अनुसन्धान ५६, पृष्ठ १४३-१७३ ५. कर्मना आंशिक क्षय अने आंशिक उपशमथी जन्य अवस्था क्षायोपशमिक गणाय
छे. (क्षय- विघात, उपशम- शक्तिहनन) अने कर्मना सर्वथा क्षयथी उद्भवती
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अवस्था क्षायिक कहेवाय छे. ६. आ प्ररूपणाओ माटे जुओ अभिधानराजेन्द्रकोशगत दंसण, दंसणावरण,
अणागारोवओग व. शब्दो. ७. आ पछी अभेदवादीओ तरफथी करायेली अन्य ३-४ दलीलो पण वि.ण.मां
छे. पण आ दलीलो आ मतनुं हार्द समजवामां अतीव उपयोगी न होवाथी
अत्रे नथी लखी. ८. अत्रे अभेदवादीओनो जे तर्क अने अनुं निराकरण दर्शाव्युं छे ते वि.ण.गत
नीचेनी गाथाओने आधारे छे : "णाणं वत्तं दंसणमव्वत्तं भणइ देसियं समए । तो णाणदंसणाणं जिणम्मि सविसेसणं जुत्तं ॥१८८॥ "भण्णइ केवलदसणमव्वत्तं जेण होज्ज को हेऊ ? । जइ नाणाओ अन्नं वत्तं च हवेज्ज को दोसो ? ॥१८९।। "जह सव्वं विण्णेयं नाणेण जिणोऽमलं विजाणाइ । तह दंसणेण पासइ णिययावरणक्खए सव्वं ॥१९०।। "जेसिमणिटुं दंसणमण्णं णाणा हि जिणवरिंदस्स । तेसिं न पासइ जिणो सविसयणिययं जओ नाणं ॥१९१॥"
___ आ गाथाओना अत्रे दर्शावेला अर्थ करतां तद्दन जुदो अर्थ वि.ण.नी अक्षरगमनिका टीका (-कुलचन्द्रसूरिजी, प्र.- दिव्यदर्शन ट्रस्ट-धोळका, वि.सं. २०६७)मां आपवामां आव्यो छे. लेखमां आ ४ गाथाओमांथी प्रथम गाथाने अभेदवाद-परक अने पछीनी ३ गाथाने क्रमवादपरक समजाववामां आवी छे. ज्यारे उपरोक्त टीकामां प्रथम गाथाने क्रमवादपरक, बीजी गाथाने परपक्षनी अने त्रीजी-चोथी गाथाने पुनः क्रमवादपरक बताववामां आवी छे. टीका -
"सिद्धान्ती स्वलक्षणमेव भणति । तथाहि - ज्ञानं व्यक्तं स्पष्टं साकारत्वात्, दर्शनमव्यक्तमस्पष्टं निराकारत्वात्, देशितं- निर्दिष्टं समये- सिद्धान्ते तीर्थकरगणधरैः। ततो ज्ञानदर्शनयोः जिने- केवलिनि सविशेषणं- साकारनिराकारभेदभिन्नत्वं युक्तं- युक्तिसङ्गतम् ॥१८८॥
"अथ केवलज्ञानदर्शनयो नात्वमभ्युपगम्य परेण भण्यते परवादिना । तथाहि - केवलदर्शनं येन हेतुना अव्यक्तं भवेत् स हेतुः कः ? इत्येकः प्रश्नः । अथ द्वितीयः प्रश्नः । यथा - यदि ज्ञानात् दर्शनम् अन्यत् व्यक्तं च भवेत् तहि को दोषः स्यात् ? न कोऽपि दोष इति पराशयः ॥१८९॥
"सिद्धान्ती प्राह - जह सव्वं..."
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आ अर्थने ग्राह्य गणतां पहेलां केटलाक विचारणीय मुद्दा१. आह (गाथा १६६, १७३, १८५), अह (गाथा १७७, १९८, २००),
भणइ (गाथा २०१, २०७) व. शब्दोनो उपन्यास परपक्षनी नवी आशाना निदर्शन माटे थाय छे. तो गाथा १८८ गत 'भणइ' शब्द परपक्षनुं कथन होवा- नथी सूचवतो ? 'भण्णइ' शब्द उत्तरपक्ष क्रमवाद तरफथी आशङ्कानो उत्तर अपाई रह्यो छे तेवं सूचवे छे (गाथा १७३, १७८, १८२, २०२, २०७, २११, २१८). तो ओ ज शब्दथी शरू थती गाथा १८९ क्रमवाद तरफथी अपातो जवाब
न होय ? ३. 'सविशेषणं' शब्दनो दर्शावेलो अर्थ करवो क्लिष्ट लागे छे. ४. अभेदवादी केवलज्ञान-दर्शन- नानात्व स्वीकारी शके खरा ? ५. सर्व पदार्थोने केवलदर्शनथी जोई शकाय छे अर्बु स्वीकारनारा (गाथा
१९०) जिनभद्रगणि अने अव्यक्त गणे खरा ? जो जिनभद्रगणि केवलदर्शनने अव्यक्त गणे तो तेमणे सन्मति०-२.११मां अपायेली क्रमवादमां केवलदर्शन अव्यक्त रहेवानी आपत्तिनो स्वीकार करवानो थाय. जो गाथा १९०-१९१मां, गाथा १८९मां परवादी तरफथी पूछायेल 'जो केवलदर्शन केवलज्ञानथी भिन्न होय अने व्यक्त होय तो शुं दोष ?' आ प्रश्ननो जवाब होय तो, त्यां केवलदर्शननी अव्यक्तता सिद्ध करवा प्रयत्न होवो जोइओ, पण अq तो नथी. उपरथी "जेसिमणिटुं दंसणमण्णं णाणा" ओम कां छे, जे सूचवे छे के प्रश्न पूछनारो परवादी बेने अभिन्न गणे छे. ___ माटे समग्रपणे विचारतां आ गाथाओनो नीचेनो अर्थ करवो युक्तिसङ्गत
लागे छेक्र. - केवलज्ञान-दर्शन- नानात्व स्वीकारQ तमने शा माटे अनिष्ट छे ? (गाथा
१८७) अ. - सिद्धान्तमां ज्ञानने व्यक्त अने दर्शनने अव्यक्त गणवामां आव्युं छे. (हवे
जो केवलज्ञान-दर्शनने भिन्न गणीओ) तो केवलीमां ज्ञान-दर्शन- (नानात्व -पूर्वगाथाथी अनुवृत्त) पोताना विशेषणो साथे (-व्यक्त-अव्यक्त) ज युक्त
थशे. अर्थात् केवलीने अव्यक्तता मानवानी आपत्ति आवशे. (गाथा १८८) क्र. - केवलदर्शन अव्यक्त रहे तेमां कयुं कारण ? अने केवलज्ञानथी भिन्न
पण गणो अने व्यक्त पण मानो तो कयो दोष ? (गाथा १८९) आ पछीनी गाथाओमां केवलदर्शननी भिन्नता अने व्यक्तता सिद्ध करवामां आवी छे.
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१०. समय से जैनदर्शन मुजब कालनो अन्तिम सूक्ष्मतम निर्विभाज्य अवयव छे. ११. वास्तवमां आ आखी प्ररूपणा मत्यादि ४ ज्ञान अने चक्षुः व. ३ दर्शनोने अनुलक्षीने समजवानी छे. पण सरळता खातर फक्त मतिज्ञान - श्रुतज्ञानने अनुलक्षीने ज समजावी छे..
१२. असङ्ख्य समयोनुं अन्तर्मुहूर्त थाय छे.
१३. सागरोपम अ कालना ओक बृहत् खण्डनुं नाम छे.
१४-१५. टिप्पण नं. २मां जणाव्युं तेम "जुगवं दो नत्थि उवओगा' 'मां उपयोगनो
अर्थ सभानता छे. केवलज्ञान अने केवलदर्शननां आवरणोनो साथे क्षय थाय अटले केवलज्ञान अने केवलदर्शन साथे ज जन्मे ओवी युगपद्वादीनी वात चोक्कस साची छे. किन्तु अत्रे ध्यानमा राखवानी बाबत से छे के आ ज्ञानदर्शन क्रियात्मक छे, उपयोगात्मक नहीं. क्रियात्मक केवलज्ञान - दर्शनना साहचर्यनो इन्कार तो खुद क्रमवादी पण न करी शके. केमके पूर्वे जणाव्यं तेम क्रियात्मक ज्ञानदर्शन आत्माना मूळभूत गुणो छे अने मूळभूत गुणोनी पर्यायधारा अखण्ड वर्ते छे. परन्तु क्रमवादीनी केवलज्ञानोपयोग अने केवलदर्शनोपयोग साथे न होवानी वात पण यथार्थ छे. कारण के एकसाथे केवलज्ञान - दर्शनरूप उभयक्रियामांथी कोई ओक ज क्रियामां आत्मा सभानपणे वर्ती शके तद्रूप परिणति पामी शके ओवी आत्मानी तथास्वभावता छे. आ रीते विचारीओ तो क्रमवादयुगपद्वाद परस्परना विरोधी नथी, पण प्रमाणव्यवस्थानुं साचुं चित्र स्पष्ट करवामां परस्परना पूरक बने छे.
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१६. वि.भाष्य-टीकामां अभेदवादना मन्तव्यमां स्तुतिकारना नामे मलधारीजीओ प्रस्तुत पद्य उद्धृत कर्तुं छे. हवे स्तुतिकार तरीके श्वेताम्बर परम्परामां सिद्धसेनसूरिजीनी प्रसिद्धि छे. तेथी आ परथी बे तारण काढी शकाय : १. प्रस्तुत पद्य दिवाकरजीनुं छे. २. मलधारीजी दिवाकरजीने अभेदवादी गणता हता. १७. मलयगिरिजीओ तो नन्दीसूत्रनी टीकामां युगपवादनी तमाम दलीलो ज वादी, सिद्धसेन व.ना मुखे बोलावी छे. तो तेओने फक्त अभ्युपगमवादथी ज युगपवाद सम्मत छे अवुं कई रीते गणी शकाय ?
१८. “ मतिज्ञानादिषु चतुर्षु पर्यायेणोपयोगो भवति, न युगपत् । सम्भिन्नज्ञानदर्शनस्य भगवतः केवलिनो युगपत् सर्वभावग्राहके निरपेक्षे केवलज्ञाने केवलदर्शने चाऽनुसमयमुपयोगो भवति ।” तत्त्वार्थभाष्य १.३१
१९. “तत्त्वज्ञानं प्रमाणं ते युगपत्सर्वभासनम् ।
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क्रमभावि च यज्ज्ञानं स्याद्वादनयसंस्कृतम् ॥" -आप्तमीमांसा
“तत्र सकलज्ञानावरणपरिक्षयविजृम्भितं केवलज्ञानं युगपत्सर्वार्थविषयं करणक्रमव्य
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________________ जून - 2012 143 वधानातिवर्तित्वाद् युगपत्सर्वभासनं तत्त्वज्ञानत्वात् प्रमाणम् / ' –अष्टशती-अष्टसहस्री 20. “कस्स व णाणुमयमिणं जिणस्स जइ होज्ज दो वि उवओगा / णूणं ण होति जुगवं जओ णिसिद्धा सुए बहुसो // " "न चाऽतीवाऽभिनिवेशोऽस्माकं युगपदुपयोगो मा भूदिति, वचनं न पश्यामस्तादृशम्' - तत्वार्थ० सिद्ध० टीका-१.३१ 21. आगळ सन्मतितर्कने आधारित चर्चामां विचारविमर्श जुओ. 22. जुओ टि. 18 23. जेम ऊर्जा ओक ज होवा छतां गतिऊर्जा, स्थितिऊर्जा, उष्माऊर्जा व. अनेक स्वरूपे व्यक्त थाय छे. आपणने भले ओ स्वरूपो तद्दन भिन्न जणातां होय, परन्तु वैज्ञानिको तो ओ तमाम स्वरूपोमां वर्तती ऊर्जाने मूलभूतरूपमां अक ज जुओ छे. तेम अत्रे शक्तितः अभेद समजवो जोइओ. 24. सिद्धसेन दिवाकरजीना अभेदवादने प्राचीन अभेदवादथी जुदो पाडवा अत्रे अने _ 'भेदाभेदवाद' अq तत्पूरतुं नाम आप्युं छे. 25. प्राचीन अभेदवाद केवलदर्शनने स्वीकारवानो निषेध करतो होवाथी, अत्रे अने दिवाकरजीना अभेदवादथी जुदो पाडवा 'दर्शनसमुच्छेदवाद' तरीके ओळखाव्यो 26. जुओ टि. 4 27. जुओ टि. 8 28. श्रीअभयदेवसूरिजीओ युगपद्वादीना मते फक्त "णियमऽपरित्तं' अटलो ज पाठभेद देखाड्यो छे. पण टीकामां उद्धृत युगपद्वादी-टीकानो अंश अने अर्थसङ्गति जोतां गाथानो उत्तरार्ध युगपद्वादीना मते “सागारगयग्गहणणियमऽपरित्तं अणागारं" ओवो होवो जोईओ अम लागे छे. 29. दंसणनाणा इति दर्शनज्ञाने नाऽन्यत्वं न क्रमापादितभेदं केवलिनि भजते इति शेषः / ... यत्तु क्षयोपशमनिबन्धनक्रमस्य केवलिन्यभावेऽपि पूर्वं क्रमदर्शनात् तज्जातीयतया ज्ञानदर्शनयोरन्यत्वमिति टीकाकृव्याख्यानं, तत् स्वभावभेदतात्पर्येण सम्भवदपि दर्शने ज्ञाननिमित्तत्वनिषेधानतिप्रयोजनतया कथं शोभते इति विचारणीयम् -ज्ञानबिन्दु. 30. प्रस्तुत गाथाना विस्तृत विवेचन माटे जुओ अनुसन्धान 56, पृ. 160