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अनुसन्धान-५९
आ शक्तिनुं प्रागट्य छे.
हवे तमे क्रमिक उपयोगमां असर्वज्ञ-असर्वदर्शित्वनी आपत्ति आपी ते पण शक्तिनी अपेक्षाओ विचारीओ तो नथी रहेती. गौतमस्वामी चतुर्ज्ञानी तरीके ओळखाता हता. पण तेमने उपयोग तो अकसाथे ओक ज ज्ञाननो रहेतो हतो. तेथी उपयोगनी अपेक्षाओ ओकज्ञानी अने शक्तिनी अपेक्षाओ चतुर्ज्ञानी - अम आपणे जेम समजीओ छीओ, तेम उपयोग अकला केवलज्ञान के अकला केवलदर्शननो होवा छतां शक्तिनी अपेक्षाओ केवलीने सर्वज्ञ-सर्वदर्शी गणवामां आवे छे. ट्रॅकमां, क्रमिक उपयोग मानवाना मतमां तमे आपेला कोई ज दोष आवता नथी.
यु. - केवलज्ञानावरणनी साथे ज केवलदर्शनावरणनो पण क्षय थाय छे. तो क्षयना तरत पछीना समये केवलज्ञाननो ज उपयोग होय, केवलदर्शननो नहीं, तेमां नियामक कोण ? माटे जेम बन्नेना आवारक कर्मोनो क्षय साथे ज थयो छे, तेम बन्नेनो उपयोग पण साथे ज मानवो जोईओ.१४ (वि.ण. २४८)
क्र. - जेनां आवरक कर्मोनो क्षय साथे ज थाय, तेमनो उपयोग पण साथे ज होय ओवो नियम नथी. केम के केवलज्ञानावरणनी साथे दानान्तराय, लाभान्तराय व. कर्मोनो पण क्षय थाय छे. छतांय क्षयना अनन्तर समये केवलीने दान, लाभ व. प्रवर्ते ज तेम बनतुं नथी. माटे केवलदर्शननो उपयोग क्षय पछी न प्रवर्ते तेमां कोई बाध नथी५. (वि.ण. २४९-२५०)
वळी, "केवली णं इमं रयणप्पभं पुढवि आगारेहिं जं समयं जाणति नो तं समयं पासति, जं समयं पासति नो तं समयं जाणति ।" जेवां सूत्रो द्वारा भगवतीजी, प्रज्ञापना व. अनेक स्थळे, ओकसाथे जोवा अने जाणवानो निषेध करवामां आव्यो छे. (वि.ण. २५१)
यु. - अत्रे आवो अर्थ करवामां केवली भगवन्तनी आशातना थाय छे. माटे अत्रे केवलीनो अर्थ श्रुतकेवली समजवो जोइए. अथवा तो आ वातने परतीर्थिकोनो मत समजवो जोइए. (वि.ण. २५२)
क्र. - प्रज्ञापना, भगवतीजी व.मां आवता आ सिवायना अन्य तमाम केवली सम्बन्धित निर्देशोने स्वसिद्धान्तसम्मत ज तमे समजो छो. अटलुं ज नहीं, पण ओ तमाम स्थाने 'केवली'नो अर्थ तमे 'केवलज्ञानी' ज करो छो.