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जून - २०१२
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होवा छतां आ बन्ने ज्ञानो जो अन्तर्मुहूर्तमां ज वगर कारणे नाश पामी जतां होय तो आवरणोनो क्षयोपशम निरर्थक नहीं बने ? अने कारण वगर पण नाश थाय छे ओम स्वीकारवानी आपत्ति नहीं आवे ? ४. मतिज्ञान वखते श्रुतज्ञान न होय अने अ ज रीते श्रुतज्ञान वखते मतिज्ञान विराम पामी जतुं होय तो कोई पण जीवने मति-श्रुतज्ञानी तरीके ओळखी ज न शकीओ.
अत्रे आ बधा ज दोषोनो उद्धार आपणे बन्ने अेक ज रीते करी शकीओ. आत्मानो सहज स्वभाव ज ओक उपयोगमां वर्तवानो छे. तेथी मतिज्ञानोपयोग वखते तेवा कारणोसर श्रुतज्ञानोपयोग सर्जाय तो मतिज्ञानोपयोग नष्ट थई जाय छे, आत्मगत मतिज्ञानशक्ति कंइ नष्ट नथी थती. ओ तो श्रुतज्ञानोपयोग वखते पण विद्यमान ज होय छे अने तेथी ज तो श्रुतज्ञानोपयोग बाद पुनः मतिज्ञानोपयोग प्रवर्ती शके छे. आम मति-श्रुतज्ञानशक्ति जो अन्तर्मुहूर्तमां नाश न पामी जती होय तो ओ शक्तिने आश्रयीने थतुं ६६ सागरोपमनुं विधान कई रीते असंगत बने ? ओ शक्तिने जन्मावनारो क्षयोपशम कई रीते निरर्थक बने ? वगर कारणे नाश पामवानी आपत्ति पण कई रीते आवे ? अने उपयोगमां न होवा छतां मति-श्रुतज्ञानशक्ति धरावनारा जीवने मति-श्रुतज्ञानी तरीके केम न ओळखी शकाय ?
नवाईनी वात ओ छे के आटली स्पष्ट समजण तमे पण धरावो छो अने मति-श्रुतज्ञान स्थळे आवता दोषोनो उद्धार तमे पण करी शको छो तो ओ ज रीते केवलज्ञान-दर्शनने क्रमिक मानवामां उपस्थित थता दोषोनुं निराकरण शक्य छे ओ तमे केम समजता नथी ?
___ अमे केवलज्ञान-दर्शनना उपयोगोने अकसामयिक गणीओ छीओ, केवलज्ञान-दर्शन-शक्तिने नहीं. शास्त्रगत सादि-अनन्ततानुं विधान शक्तिने आश्रयीने छे के जे खरेखर अनन्त छे. तो उपयोगोनी ओकसामयिकतानो ओ विधान साथे कई रीते विरोध आवे ? वळी, आ अकसामयिकता आत्माना सहज स्वभावने लीधे छे. तेथी उपयोगोना ओक समय पछीना नाशने अकारणिक मानवानी आपत्ति पण रहेती नथी. उपरान्त, केवलज्ञान अने केवलदर्शननां आवारक कर्मोनो क्षय केवलज्ञान-दर्शननी शक्तिने प्रगट करे छे के जे अनन्त छे, तो क्षयनी निरर्थक बनवानी वात ज आमां क्यां आवी ? क्षय छे तो ज