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अनुसन्धान-५९
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छे अने तेथी अत्रे कथञ्चित् भेदनी सिद्धि करे छे. पण वास्तवमां आ पूर्वपक्षअभेदवाद तरफथी थयेली रजूआत छे. उपाध्यायजी भगवन्ते ज्ञानबिन्दुमां जणाव्युं छे के९ जो आ गाथानुं ध्येय ज्ञान - दर्शननो भेद सिद्ध करवानुं ज होत तो “दंसणपुव्वं णाणं” अटलुं ज कहेवुं पर्याप्त हतुं. " णाणनिमित्तं तु दंसणं णत्थि" ओवुं कहेवानी जरूर न हती. माटे अत्रे " दंसणणाणा ण अण्णत्तं (भजंते)" आवो पाठ मानवो जोईओ अने ओवो अर्थ करवो जोइओ के “दर्शनपूर्वक ज्ञान होय छे, पण ज्ञानपूर्वक दर्शन होतुं नथी. (हवे क्रमवादमां तो केवलज्ञान पछी केवलदर्शन मान्य छे. अने तेम बनवुं तो असम्भवित छे.) तेथी अमे नक्की करीओ छीओ के केवलज्ञान अने केवलदर्शन वच्चे अभेद ज छे. "
आम सर्वथा-अभेदवादनुं मन्तव्य दर्शाव्या पछी अ मतनुं खण्डन करवा माटे आचार्य, 'अवग्रहमात्र दर्शन छे' ओवा केवलज्ञान - दर्शननो अभेद सिद्ध करवा माटे अपायेला दृष्टान्तने अयोग्य ठरावतां जणावे छे के
जइ ओग्गहमेत्तं दंसणं ति मण्णसि विसेसिअं णाणं । मइणाणमेव दंसणमेवं सइ होइ निप्फण्णं ॥२.२३॥
एवं सेसिंदियदंसणम्मि नियमेण होइ ण य जुत्तं (णयजुत्तं ?) । अह तत्थ णाणमेत्तं घेप्पइ चक्खुम्मि वि तहेव ॥२.२४॥
टी. - जो मतिज्ञाननो अवग्रह तबक्को दर्शन होय अने विशिष्टातायुक्त निश्चय ते ज्ञान होय तो 'मतिज्ञान अ ज दर्शन छे.' ओवुं आना परथी साबित थाय. तो जेम चाक्षुष मतिज्ञाननो अवग्रह तबक्को 'चक्षुर्दर्शन' अने शेष तबक्का 'चाक्षुषज्ञान' कहेवाय छे. तेम शेष इन्द्रियोमां पण अवग्रह तबक्कानो 'श्रोत्रदर्शन', ‘घ्राणदर्शन' व. व्यवहार थवो जोइओ. पण अवुं तो थतुं नथी. अने जो त्यां श्रोत्रज्ञान, घ्राणज्ञान व. ज व्यवहार थतो होय, तो चाक्षुषमतिज्ञानमां पण अम केम नथी करता ? त्यां अवग्रहने शा माटे 'चक्षुर्दर्शन' ओवी अलग ओळखाण आपवामां आवे छे ?
वि. दिवाकरजीना कथननो सार से छे के अवग्रह अ ज दर्शन नथी. पण हवे जणावाशे तेवो जुदा प्रकारनो बोध ज दर्शन छे. अने तेथी