________________
जून - २०१२
१२३
तरीके अभिन्न गणे छे. माटे दर्शनसमुच्छेदवादमां केवलज्ञान ज केवलदर्शन छे, ज्यारे भेदाभेदवादमां अक ज केवलबोधनां केवलज्ञान अने केवलदर्शन अम बे क्रियात्मक स्वरूपो छे. आटआटली भिन्नता होवा छतां, फक्त नामनी समानताने लीधे बन्ने वादोने ओक गणी लेवामां आव्या छे ते खरेखर नवाई गणाय !
जो के आवी धारणा बंधाई ते माटे प्रत्यक्ष नहीं तो परोक्ष रीते स्वयं श्रीअभयदेवसूरिजीने जवाबदार गणी शकाय. कारण के तेमना समयमां प्रचलित त्रण वादो- क्रमवाद, युगपद्वाद अने अभेदवादमांथी क्रमवाद अने युगपद्वादना विरोधमां श्रीसिद्धसेनाचार्यनुं मन्तव्य रजू करती वखते तेमणे करवी जोईती ओ स्पष्टता न करी के आ मन्तव्य ओ बे वादोनी जेम त्रीजा वादथी पण जुएं छे. सन्मतिमां अने तेनी टीकामां अभेदवादनुं खण्डन होवा छतां, शब्दशः आ स्पष्टता वगर तो दिवाकरजी- मन्तव्य बाकी रहेलो त्रीजो वाद ज गणाई जाय ओ तद्दन स्वाभाविक हतुं. अमां पण ज्यारे ओ बाकी रहेलो वाद अने दिवाकरजी- मन्तव्य सरखं अभिधान पाम्या त्यारे तो ओ धारणा सुदृढ थवामां कशुं ज बाकी न रह्यु.
__ हवे प्रश्न जे उद्भवे छे के सन्मतिटीकाकार श्रीअभयदेवसूरिजीओ सिद्धसेन दिवाकरजीना निजी मन्तव्य तरीके वर्णवेलो आ भेदाभेदवाद प्रचलित त्रण वादोथी जुदो स्वतन्त्र चोथो वाद ज छे ? के ओ त्रण वादोमां ज अनो अन्तर्भाव शक्य छे ? आ सन्दर्भे आम विचारी शकाय -
कोई पण बे पदार्थ वच्चे भेदक परिबळो मुख्यत्वे चार होय छे : १. उपादानद्रव्य २. क्षेत्र ३. काल ४. स्वरूप (आ चारेनी विवक्षा अनेक प्रकारे थई शके). हवे अत्रे केवलज्ञान अने केवलदर्शन धरावनारो जीव ओक ज होय छे. अटले द्रव्य के क्षेत्रथी तो अमां भेद-अभेदनो विचार करवानो रहेतो नथी. बाकी रहेता काल अने स्वरूप सम्बन्धे त्रण मत छे : १. स्वरूप अने काल बन्नेथी भेद - क्रमवाद. २. स्वरूपथी भेद, पण कालथी अभेद - युगपद्वाद ३. स्वरूप अने काल बन्नेथी अभेद - अभेदवाद. आ सिवायनो चोथो विकल्प - कालथी भेद, पण स्वरूपथी अभेद अq तो भेदाभेदवाद मानतो नथी. तेथी पूर्वोक्त त्रण विकल्पमांथी ज कोईक विकल्पमां अनो