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जून - २०१२
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आ अर्थने ग्राह्य गणतां पहेलां केटलाक विचारणीय मुद्दा१. आह (गाथा १६६, १७३, १८५), अह (गाथा १७७, १९८, २००),
भणइ (गाथा २०१, २०७) व. शब्दोनो उपन्यास परपक्षनी नवी आशाना निदर्शन माटे थाय छे. तो गाथा १८८ गत 'भणइ' शब्द परपक्षनुं कथन होवा- नथी सूचवतो ? 'भण्णइ' शब्द उत्तरपक्ष क्रमवाद तरफथी आशङ्कानो उत्तर अपाई रह्यो छे तेवं सूचवे छे (गाथा १७३, १७८, १८२, २०२, २०७, २११, २१८). तो ओ ज शब्दथी शरू थती गाथा १८९ क्रमवाद तरफथी अपातो जवाब
न होय ? ३. 'सविशेषणं' शब्दनो दर्शावेलो अर्थ करवो क्लिष्ट लागे छे. ४. अभेदवादी केवलज्ञान-दर्शन- नानात्व स्वीकारी शके खरा ? ५. सर्व पदार्थोने केवलदर्शनथी जोई शकाय छे अर्बु स्वीकारनारा (गाथा
१९०) जिनभद्रगणि अने अव्यक्त गणे खरा ? जो जिनभद्रगणि केवलदर्शनने अव्यक्त गणे तो तेमणे सन्मति०-२.११मां अपायेली क्रमवादमां केवलदर्शन अव्यक्त रहेवानी आपत्तिनो स्वीकार करवानो थाय. जो गाथा १९०-१९१मां, गाथा १८९मां परवादी तरफथी पूछायेल 'जो केवलदर्शन केवलज्ञानथी भिन्न होय अने व्यक्त होय तो शुं दोष ?' आ प्रश्ननो जवाब होय तो, त्यां केवलदर्शननी अव्यक्तता सिद्ध करवा प्रयत्न होवो जोइओ, पण अq तो नथी. उपरथी "जेसिमणिटुं दंसणमण्णं णाणा" ओम कां छे, जे सूचवे छे के प्रश्न पूछनारो परवादी बेने अभिन्न गणे छे. ___ माटे समग्रपणे विचारतां आ गाथाओनो नीचेनो अर्थ करवो युक्तिसङ्गत
लागे छेक्र. - केवलज्ञान-दर्शन- नानात्व स्वीकारQ तमने शा माटे अनिष्ट छे ? (गाथा
१८७) अ. - सिद्धान्तमां ज्ञानने व्यक्त अने दर्शनने अव्यक्त गणवामां आव्युं छे. (हवे
जो केवलज्ञान-दर्शनने भिन्न गणीओ) तो केवलीमां ज्ञान-दर्शन- (नानात्व -पूर्वगाथाथी अनुवृत्त) पोताना विशेषणो साथे (-व्यक्त-अव्यक्त) ज युक्त
थशे. अर्थात् केवलीने अव्यक्तता मानवानी आपत्ति आवशे. (गाथा १८८) क्र. - केवलदर्शन अव्यक्त रहे तेमां कयुं कारण ? अने केवलज्ञानथी भिन्न
पण गणो अने व्यक्त पण मानो तो कयो दोष ? (गाथा १८९) आ पछीनी गाथाओमां केवलदर्शननी भिन्नता अने व्यक्तता सिद्ध करवामां आवी छे.